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Showing posts from May, 2020

प्रथम विज्ञानवादी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की स्मृति में

दूरस्थ दीपक * दूर जलता हुआ एक दीपक मुझे ज़िंदगी बनके छलता रहा आज तक। एक दिन सब अंधेरे संवर जाएंगे बस यही सोच जलता रहा आज तक। नाम अज्ञात का किससे मैं पूछता लापता का पता मैं बताता किसे। यूं अपरिचित नगर से गुजरते हुए आत्म-भू नींद से अब जगाता किसे। बीहड़ों बंजरों में भटकता रहा धूप में ही पिघलता रहा आज तक। गांव के बाग़ सब खेत-खलिहान तक बिक चुके थे या अधिया-बंटैतों के थे। वो नयन जिनमें आकाश के स्वप्न थे मन रहित तन से बंधुआ लठैतों के थे। याद का अंगरखा ठूंठ पर था फंसा आंधियों में मचलता रहा आज तक। अनमने मौसमों से मिली चिट्टियां उनमें ऋतुओं के आंसू थे काजल घुले। अनछुए पल के पहिने उतारे हुए आह के कुछ वसन थे सभी अनधुले। घाट आहत समय ले गया भींचने आप जल में ही' गलता रहा आज तक। @कुमार वेणु, २७.०५.२०२०, बुधवार, ३.नवतपा, ज.ला.ने. पुण्यतिथि

21 वीं सदी में भारतीय मजदूरों की बदहवास भूख-यात्रा

*मजदूरों के आयन-पलायन से क्षुब्ध होकर* तुम मजबूरी के महलों में, हम आवारा सड़कों पर भारी मन से गुजर जाएंगी ये सांसें आती-जाती । मृगतृष्णा निकली हर तृष्णा, रेत-घरौंदा हर कोशिश। लू-सी लिपट गयी पांवों से, बारहमासा-सी बंदिश। ऋतु-परिवर्तन बहुत दूर ही वायुयान सा झलके है सूने नभ पर खुली पड़ी है, मौसम की कोरी पाती। बचपन को भी लगा बचपना, अपना हंसी-खुशी का खेल। किलकारी पर चढ़ी लपककर, तिक्त भर्त्स्नाओं की बेल। आंगन फूल-फलों से वंचित, घर अन्तस-सा स्वजन विहीन केवल अपनी धड़कन सुनकर, पिचके-फूले हैं छाती। अगल बगल से निकल गईं सब, रंग-बिरंगी तस्वीरें। अपने लिए नहीं थीं जायज़, वे शीरीं, लैला, हीरें। हम फरहाद नहीं हैं लेकिन, पथ के पर्वत तोड़ रहे दूध-नदी के बदले हम तक, धूसर आंधी ही आती। लचका, पेज, भभूदर, आलू, नून-गोंदरी, दो रोटी। हाथ-पांव की गांठों में है, जिनगानी झीनी मोटी। देस छोड़ परदेस बिहरती, जीने की मरघुल आसा बिना तेल के मिच-मिच आंखें, जलें, करें दीया-बाती। @कुमार वेणु, १४.०५.२०२०, शाम ०५.५४

कृष्ण का विरहालाप, राम का भी...

एक अद्भुत विरहावली समर्थ शायरा #अर्चना_पाठक_अर्चिता से प्राप्त हुुुई है। यह विरहावली प्रिय #शशिरंजन_शुक्ल_सेतु के अनुजवत #शिवदत्त_द्विवेदी_द्विज ने विरहाकुल क्रोंच की पीड़ा पीकर रची है और अपने अनुज पर अनुग्रह करते हुये मथुरानंदन की व्याकुलता में तैरते हुए #शशिरंजन_शुक्ल_सेतु ने इसे मधुर स्वर प्रदान किया है। {अवधेश को भी वैदेही के विछोह का दारुण दुख था, तभी तो वे अस्त-व्यस्त से पूछ रहे थे... हे खग, मृग,  हे मधुकर-श्रेनी। देखी तुम सीता मृग-नैनी? किन्तु मिलन और विरह, अधिकांशतः मथुरा और बरसाने तक ही सिमटा हुआ है और मर्यादा के कारण उसे मिथिला और अवध में प्रवेश न मिल सका। किन्तु प्रिय #द्विज के एक पद में जानकी का विसर्जन सम्मिलित है, इसलिए #कदाचित अन्याय होगा यदि साकेत को विरह से #किंचित भी अलग रखा गया। ज्येष्ठ दासरथ को भी ध्यान में रखकर यह  गीत। पढ़ें।) पढें. * #तुम्हारे_बिना * (10 मुक्तक मनके) २१२ २१२ २१२ २१२ हम उपेक्षित, अवाचित तुम्हारे बिना। हर जगह हम अयाचित तुम्हारे बिना। आज हमको सभी पूछते अन्यथा, हम थे किंचित-कदाचित तुम्हारे बिना। हम सदी से न सोए तुम्हारे बिना।

अवकाश पर बसंत और रवींद्रनाथ टैगोर : जन्म तिथि पर विशेष

आज *जन गण मन अधिनायक*(भारत का राष्ट्रगान) और *आमार सोनार बांग्ला देश*(बांग्ला देश का राष्ट्रगान) के महान गीतकार *कविवर रवींद्रनाथ टैगोर* का जन्म दिन है। उन्हें याद करते हुए गीतांजलि के कई गीत गूंज रहे हैं। किंतु एक गीत सहसा ध्यान खींचता है। गीतांजलि के 21 वें गीत के दूसरे पद में कविगुरु कहते हैं- फोटानो सारा करे, बसन्त जे गेले सरे निये झरा फुलेल डाला, बलो की करी? अर्थात बसन्त अपने पुष्पित करने का काम करके जा चुका है। अब डालियों से फूल झर रहे हैं, बोलो क्या करना है। रवींद्र पूछते हैं कि पतझर यानी मुसीबतों में हमारी क्या जिम्मेदारी है। आज कविकुलगुरु रवीन्द्र की जन्म तिथि है। मुझे लगता है आज उनका यह गीत प्रासंगिक है। आज से कोई 8 वर्ष पहले मैंने मेहबूबाबाद वारंगल आंध्रप्रदेश से गुजरते हुए ट्रैन में ही यह छायानुवाद पूरा किया था। यह गीत, गुरुदेव रवींद्र के गीत और अनुवाद के दीपस्तंभ की छाया में उनको मेरी श्रद्धांजलि है। गीतांजलि : गीत 21, कविवर रवींद्र नाथ टैगोर * (मूल बंगाली पाठ) एबार भासिये दिते हबे, आमार एइ तरी तीरे वसे जाय जे बेला, मरि गो मरि फुल फोटानो सारा करे, बस