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Showing posts from August, 2022

देश भक्ति गीत

   देश भक्ति गीत ० सत्ता को वरदान मिला है, नंगा नाचो, ऐश करो। मारो, काटो, लूट मचाओ, दो कौड़ी का देश करो।। आशा और आस्थाओं का, मैं भी भूखा-प्यासा हूं। सक्रिय सकारात्मकता की, व्याकुल तीव्र पिपासा हूं। पूरे सृजनाकुल सपने हों, वाचित वह सन्देश करो।। राष्ट्र-संपदा, लोक-वित्त को, नहीं सुरक्षा दे सकते। गिद्ध-चील के मुंह से जनधन, वापस छीन न ले सकते। तब तो व्यर्थ राष्ट्र-पालक का, मत पहना गणवेश करो। भव्य, भयानक भूत-भवन हैं, मंदिर मूक मूर्तियों के। समता, ममता रहित लेख ये, पौरुष-हीन कीर्तियों के। वंचित, शोषित, दमित, दलित के, उनमें प्राण-प्रवेश करो। सारा भारत बेच रहे हो, धान, धरा, धन, धरोहरें। खान, विमानन, कोष, सुरक्षा, सड़कें, सब संस्रोत भरे। मां की कोख लजानेवालों, लज्जा तो लवलेश करो। कथनी-करनी एक रखो फिर, जनहित में अनुदेश करो। अपने दोष सुधारो पहले, फिर जन को उपदेश करो। तब यह देश सहर्ष कहेगा-"माननीय आदेश करो।।" ० @कुमार, २४.०८.२२ , ०८.३०-१.५४ , बुधवार,

गीता, गीत, गीतांजली!

गीता, गीत, गीतांजली!! 0. भूलकर सारी दुनिया की रंगीनियां, रंग में मेरे, मन तुम रंगाओ प्रिये। दुःख के बादल ये काले बिखर जाएंगे, ठोस विश्वास मुझ पर जो लाओ प्रिये। * 1. गीत, गीतांजली और गीता सभी, मन की गहराइयों के विविध-चित्र हैं। द्वेष के, ईर्ष्या के सघन द्वंद्व में, मोह, अनुराग, निष्ठा, सहज-मित्र हैं। इनसे लड़ना भी है, इनसे बचना भी है, कोई रणनीति तुम भी बनाओ प्रिये! ♂♀ 2. कर्म के मार्ग पर नागफणियाँ उगीं, वृक्ष फलदार होंगे, ये मत सोचना। रोपकर मात्र कर्त्तव्य, क्यारी में तुम भाल से जो पसीना बहे, सींचना। कल के श्रम-वृक्ष से आज के फल मिले, बीज उपवन में उनके उगाओ प्रिये। ^ 3. काल के तार में क्षण के मनके हैं हम, रेत नदियों में जैसी बहे, हम बहें। रंग रूपाकृति भाव व्यवहार सब, हर युगों में बदलते हैं, क्या कुछ कहें।  कौन तुम, कौन हम, कल कहाँ, कब हुए, आज जो भी हैं वैसा निभाओ प्रिये!°~™ @कुमार, रविवार, २१.०८.२२ , अपरान्ह ०१.१५-०२.०० संश्रोत : ० 0. • सर्वधर्मान्परित्यज्य,         मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो,      मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।१८.६६।। .....    

अट्ठहासों_के_भरोसे

अट्ठहासों के भरोसे ० जब कभी प्रतिमा गढूं मन की शिलाओं पर चित्र तो बनते नहीं, चिंगारियां निकलें। कंटकों की यात्रा के घाव गहरे हैं। शूल से चुभते हुए उद्भ्रांत चहरे हैं। भूल जाता क्यों नहीं मन चोट सब पिछली, क्या समय के चिकित्सक निरुपाय ठहरे हैं? इस नगर से उस नगर तक, भाग कर देखा- हर अपरिचित विषमता से यारियां निकलें।  शौर्य के, उत्साह के दिन सींखचों में हैं।  और सद्भावों के सपने खंढरों में हैं। जो निराशाएं गड़ा आया था मलबों में वो निकाली जा चुकी हैं, आहतों में हैं। हर चिकित्सालय से मैं भयभीत रहता हूँ क्या पता, मुर्दा कहां, खुद्दारियाँ निकलें! मर चुकी पाने की इच्छा, कुंद अभिलाषा।  दोगली लगने लगी है - आज की भाषा। वाम, द्रोही, नास्तिक, कुंठित, भ्रमित, विक्षिप्त, छद्म-जीवी गढ़ रहे हैं मेरी परिभाषा।   अट्ठहासों के भरोसे जी रहे जुमले, घोषणाओं में भी जिनकी, गालियां निकलें।  ०० @कुमार, १५ अगस्त २०२२, ५.३० प्रातः ०