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Showing posts from May, 2019

हर मन भूखा

हरमन भूखा रह जाता है, खाता नहीं दलाली। जनसंख्या का गणित संगठित लूट-मार में भागी। एक दूसरे के पहुंचे से, पहुंचे घर-घर दागी। बिना-मोल बिक गयी जवानी बिना तुले निष्ठाएं, द्वेष, झूठ, मद, घृणा पागती राजनीति बड़भागी। सुप्त-कोश बन गए युवाओं ने शक्तियां उछाली। (किन्तु ....) हरमन भूखा रह जाता है, खाता नहीं दलाली। सारे न्यायशास्त्र के मानक पिछलग्गू हैं उनके। कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं, तन गेंहू, मन घुन के। उनका 'कृत्रिम' भी 'सच्चा' है उनका 'छल' भी 'सद' है, 'सरल-सत्य शुभ' के पीछे रखते वे गुहचर चुनके। बाट-बाट बटमार उन्हीं के, कदम कदम कुतवाली (किन्तु ....) हरमन भूखा रह जाता है, खाता नहीं दलाली। यह उनका विज्ञान, एक को दाबें, सौ दब जाएं। उनका मंत्र, 'प्रणाम लाख के, मात्र एक को जाएं।' उनकी रेखा वक्र रहे, पर सुगम-सरल कहलाये, प्रकृति उनके साथ है, उनके पत्थर भी तिर जाएं। उनको अमृत-सिंधु मिला है, यद्यपि रेत खंगाली! (किन्तु ....) हरमन भूखा रह जाता है, खाता नहीं दलाली। हरमन अब भी भूखी-बस्ती में मुरझाया रहता। म

आओ मित्रों! घर-घर खेलें

पका रहा है खिचड़ी क्या क्या, मन मस्ताना, बन बावरची। यतन-यतन की रतन रसोई, सपनों के अपने चटखारे। मंत्र मुग्ध मन दुख-सुख धोकर, ताज़ा मक्खन मार बघारे। धीरे-धीरे मिलें मसाले, यादें प्याजी, मां के घर की। जहां-जहां से बाड़ी दरके, फिर-फिर जोड़े भोला धुनकी। धनिया-पोदीने में खटपट, मिर्च-भटे से तुरई तुनकी। चटनी से उलझा सिलबट्टा, चैन नहीं उसको पल भर की। फूले कल्ले खौफ़ चबाकर, पान उठ गए, बंटी सुपारी। टेढ़ी मुस्कानों में झलके, घृणा-द्वेष की धुन हत्यारी। बन्धुत्वों के बंधन बिखरे, सींग मारती है मन-मरज़ी। आओ मित्रों घर-घर खेलें, छाओ आम-जमुन के पत्ते। चौपालों में पीपल-बरगद, आँगन में चम्पे के छत्ते। हाट-हाट से हंसी जुटाओ, खट्टी मीठी, खारी चरपी। ** डॉ. रा. रामकुमार, १४.५.१९, (६ बजे, १ बजे)

ब्रैड, मलाई और फ्रीज़

(भारत, २१ मई २०१९) गर्मी के दिनों में फ्रीज़ से बड़ा कोई भी देश और संविधान नहीं हो सकता। उसी फ्रीज़ रूपी देश के भीतर चुनाव के लिए भिंडी-टिंडा से लेकर मलाई, बटर और ठंडे पानी की बोतलें साधारण परिस्थितियों में पड़ी ही होती हैं। आइसक्रीम और दूसरी चीजों के लिए शाम को अपनी ए-सी-कार में बैठकर रेस्तरां रेस्तरां घूमकर आप अपनी तैसी कराकर इत्मीनान से वापस आ सकते है। चुनाव आपका है। फ्रीज़ के पास जाने पहले मैं अपने कन्फ़रटेबल क्षेत्रीय-कार्यालय यानी सौफे पर बैठा आज का घोषणापत्र तैयार कर रहा था। अपने पर्सनल देश में खाने लायक क्या-क्या है, इस पर विचार कर रहा था। वैसे भी इस खाना प्रधान देश में रोज़ सुबह उठकर 99 प्रतिशत घरों में सिर्फ खाने की ही चिंता होती है। उधर एकमात्र प्रधानमंत्री है जो कहते हैं कि न खाऊंगा, न खाने दूंगा। क्योंकि देश की हालत प्रधानमंत्री जानते हैं। गरीबी-प्रधान देश है। सभी को खाने की आज़ादी नहीं दी जा सकती। कुछ विशेष जाति, विशेष वर्ग, विशेष संगठनों को ही यह सुविधा संभव है। कुछ *निराला* के अनुसार *योग्यतम* सिद्ध हो जाएं और नौ हजार करोड़ या अन्य घपले कर विदेश भाग जाएं, वह उनकी कामयाबी ह

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि

कुछ सोते, कुछ जागते

देश को एक कश्चित योगदान.. १५.५.१९,१०.३५.रात्रि 👇 दिलों से तो गुजरता हूं कहीं रहता नहीं हूं। सभी को चाहता तो हूं मगर कहता नहीं हूं। नदी होता अगर, बंजर बियाबां में बदलते? समंदर हूं , उबलता हूं, मगर बहता नहीं हूं। किनारों पर कई रस्मोरवायत बांध लेतीं, कहूं कैसे कि क्या-क्या मार मैं सहता नहीं हूं। १६.५.१९ बादलों को चूमती ये वादियां अच्छी लगीं। कुदरती तहज़ीब की उरयानियां अच्छी लगीं। हम नहीं डरते कि हम जांबाज़ हैं, दिलदार हैं, इसलिये इस दौर की ये आंधियां अच्छी लगीं। उस सदी से इस सदी तक, बोले' बिन पढ़ती रहीं, ये मुझे इस शहर की खामोशियां अच्छी लगीं। मालकिन है हर लहर की, जलजले की जान है, यार! तूफ़ां की हवा से यारियां अच्छी लगीं। एक मुफ़लिस के लिए फ़ाक़ा ओ रोज़ा एक है, दर्दो ग़म लानत भरी, इफ़तारियां अच्छी लगीं। आसतीं में सांप हैं या हैं बग़ल में छूरियां, ये नज़र मोटी, पढ़े बारीकियां अच्छी लगीं। ये इधर टूटी क़यामत, वो उधर बरपा कहर, साजिशों की लापता सरगोशियां अच्छी लगीं। सांप ने डसना न छोड़ा, दूध देना आपने, आप दोनों की मुझे खुद्दारियां अच्छी लगीं। लड़ रहीं ख़ुदबीं अक

अस्तित्व का एक प्रेरक गीत : कर हर मैदान फतह

कर हर मैदान फतह मेहबूब की *मदर इंडिया* में नरगिस नायिका की प्रमुख भूमिका में थीं और उनके बिगड़ैल बेटे बिरजू की भूमिका निभाई थी सुनील दत्त ने। फ़िल्म के दौरान ही कुछ ऐसा घटा कि नरगिस और सुनील (बलराज दत्त) दाम्पत्य में बंध गए। उन दोनों के भ्रांत-पुत्र 'खलनायक के नायक' संजय दत्त की पारिवारिक कथा किसी 'महाकाव्य' से कम नहीं है। घटना चक्र, मोह व्यामोह, संघर्ष, दिग्भ्रांति, सज्जनता, प्रेम, समर्पण, धोखा, गंभीर बीमारियों, मुसलसल मृत्यु, आसन्न राजनीति, अय्यासी, षड्यंत्र, आरोप, अपराध, कानूनी सज़ाओं, उच्चतम राजनीतिक पहुंच और केंद्रीय राजनीतिक व्यक्तित्वों का एक विराट वास्तविक कथा-चित्र है। नरगिस के पुत्र और फ़िल्म उद्योग के "भव्य स्वर्णिम सपनों के व्यापारी" कपूर परिवार के सफल प्रपौत्र अर्थात चौथी पीढ़ी के सर्वाधिक साक्षर सुपुत्र के बीच बने तानेेबानेे का अद्भुत चित्रण है "संजू"। इस महाकाव्यात्मक फ़िल्म के केंद्रीय चरित्र संजय दत्त का अंधेरे में जाने, डूबने और निकलकर बाहर आने का समकालीन फिल्मी कला तत्वों के आधार पर बेहतर चित्रण है। फिल्मी पटकथा में गीतों की भूमिका

कबीर का जीवन दर्शन Kabir's philosophy of life.

#अमर_नइहा_काया_रे... मैंने बचपन में #मां के सौजन्य से, एक अनुयायी मण्डल से ढिबरी की लौ और गुरसी की आंच में यह #कबीरपंथी_भजन सुना था। गरीब लोग थे और शीत की रात को झांझ, मंजीरा, टिमकी, ढोलक और सारंगी में कबीर के पदों और भजनों को रात-भर गाकर, रजाई और कंबलों के अभाव को, गाते बजाते पछाड़  दिया करते थे। #स्मृति_दीवानी के खजाने से निकला #संत_कबीरदास  का यह भजन प्रस्तुत है। निवेदन है, इसका और कोई भी पाठ हो सकता है क्योंकि अनपढ़ कबीर के भजन कई पाठों में प्राप्त होते हैं। अमर नइहा काया रे अमर नइहा काया। सुनो #नर_ग्यानी अमर नइहा काया। काहे की जिबहा तो काहे की बानी? सोने की जिबहा सुधारस बानी। झूठी बाकी माया है रे, झूठी सारी माया... ..........सुनो #नर_ग्यानी अमर नइहा काया। काहे की नारी तो काहे को पूता? लोभ की नारी तो मोह को पूता। काहे भरमाया है तू काहे भरमाया.. ..........सुनो #नर_ग्यानी अमर नइहा काया।. काहे को मान तो काहे की बड़ाई? ज्ञान को मान तो गुन की बड़ाई। यही सरमाया है यही सरमाया.. .................सुनो #नर_ग्यानी अमर नइहा काया। @#सदगुरु_कबीर_साहब [Translation : The body

1 मई पर विशेष

मेहनतकशों की 'पूजा' : मंजूरानी सिंह @ आज अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस है। मेहनतकशों का दिन। आज अनेक राजनैतिक दलों के मजदूर संगठन अपने अपने तरीके से मजदूरों को लुभाने के लिए इस दिन को मनाएंगे। कुछ राजनीतिक दल मनुष्यों को बांटने का काम करते हैं । जातियों में, भाषा में, प्रान्त में, धार्मिक उन्माद में। कोई कोई दल अपनी स्तरहीन सोच से बनाये हुए एजेंडों से आज देश को दिशाहीन,पथभ्रष्ट, शक्तिहीन और संगठन-विहीन कर दिया है। दुर्भाग्य से कुछ वर्षों से हिन्दू मुस्लिम, दलित पिछड़ों और सवर्णों के बीच खाइयां बढ़ा देनेवाली मानसिकता को अवसर भी मिला है और उन्मत्त बुद्धिहीन नौजवानों, नवयुवतियों, बुजुर्गों का उन्हें समर्थन हासिल करने में सफलता भी मिली है। यह अंदर ही अंदर देश को विभाजित कर कुछ वर्गों को परंपरागत ढंग से सुदीर्घकालीन सुविधाएं, अभयदान और बैठे ठाले मजदूर वर्ग के शोषण का चक्र चलाये रखने की कोशिशों को मिलनेवाला प्रतिसाद ही है। मेरे हाथों में इन दिनों एक पुस्तक है। डॉ. आरके सिंह कुलपति सरदार पटेल विश्वविद्यालय, बालाघाट द्वारा अध्ययन हेतु प्राप्त इस संस्मरणात्मक पुस्तक का नाम है "शां