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आओ मित्रों! घर-घर खेलें

पका रहा है खिचड़ी क्या क्या,
मन मस्ताना, बन बावरची।

यतन-यतन की रतन रसोई,
सपनों के अपने चटखारे।
मंत्र मुग्ध मन दुख-सुख धोकर,
ताज़ा मक्खन मार बघारे।
धीरे-धीरे मिलें मसाले,
यादें प्याजी, मां के घर की।

जहां-जहां से बाड़ी दरके,
फिर-फिर जोड़े भोला धुनकी।
धनिया-पोदीने में खटपट,
मिर्च-भटे से तुरई तुनकी।
चटनी से उलझा सिलबट्टा,
चैन नहीं उसको पल भर की।

फूले कल्ले खौफ़ चबाकर,
पान उठ गए, बंटी सुपारी।
टेढ़ी मुस्कानों में झलके,
घृणा-द्वेष की धुन हत्यारी।
बन्धुत्वों के बंधन बिखरे,
सींग मारती है मन-मरज़ी।

आओ मित्रों घर-घर खेलें,
छाओ आम-जमुन के पत्ते।
चौपालों में पीपल-बरगद,
आँगन में चम्पे के छत्ते।
हाट-हाट से हंसी जुटाओ,
खट्टी मीठी, खारी चरपी।
**
डॉ. रा. रामकुमार,
१४.५.१९,
(६ बजे, १ बजे)

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