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Showing posts from 2022

दिल्ली है गुलज़ार

शब्द वेध/भेद के अंतर्गत 40 दोहे  6. कुछ तो है षड्यंत्र अनुभव ने अनुभूति से, चुगली की दो चार। सपनों में आने लगे, भगदड़ हाहाकार।। नदियां रूठी देखकर, खेतों में भूचाल। बांध तोड़ने चल पड़े, हँसिया और कुदाल।। जंगल छोटे पड़ गए, चले तेंदुए गांव। शायद गौशाला बने, उनका अगला ठाँव।। बाघ-तेंदुए मर रहे, कुछ तो है षड्यंत्र। फिर शिकार की भूमिका, बना रहा है तंत्र।। भेड़-बकरियां हो गए, दो कौड़ी के लोग। उधर ख़ास-दरबार में, पकते छप्पन भोग।। @ कुमार,   ०३.०१.२०२३ 0 5. आनेवाले साल को ..... ० जुल्फ़ों आंखों शक्ल पर, पड़ी समय की मार। हाथ पांव के रूठते, गिरी जिस्म सरकार।।१ शब्द निरक्षर हो गए, वाक्य खो चुके अर्थ। ग्रंथालय के ग्रंथ सब, हुए आजकल व्यर्थ।।२ बोलो तो शातिर बनो, मौन रहो तो घाघ। जीभ लपलपाकर हुए, वो जंगल में बाघ।।३ आंखों से विश्वास का, सूखा सारा नीर। ठहरे आता साल अब, किस दरिया के तीर?।४ हाथ उठाये चल रहा, अपराधी सा वक़्त। आनेवाले साल को, मिली सजाएं सख़्त।।५ @रा रा कुमार, ३१.१२.२२. ००० 4. सच के दावेदार ० सारा क्रोध, विरोध सब, आंके गए भड़ास। धुँधयाती कुंठा बची, शब्द-वीर के पास।।१ पट्टेवाले

यश दड़बों में बंद

 यश दड़बों में बंद ० लहक-चहक कर गीत-ग़ज़ल ने, उम्र गुज़ारी, फिर - धूल खा रहीं रचनावलियाँ,  यश-दड़बों में बंद। जो कुछ मिला है उससे बेहतर, पाने की आशा है। दुनिया को लफ़्ज़ों से ज़्यादा,  जिन्सों की इच्छा है।  इसीलिए मंचों पर सजकर और संवरकर रहते, कमरों में साजिश रचते हैं,  मिले-जुले छल-छंद। परिश्रमों की एक तमन्ना,  मिले दिहाड़ी, जाएं। जो कुछ आ जाये इतने में,  उसे बांटकर खाएं। जगी हुई चिंता से सुख दु:ख,  कहते नींद भरे, आख़िर बिस्तर हो जाते हैं,  अंधियारों के खंद। भूखी-वंचित, दीन-हीन,  बेबस-निर्बल लाशों को। रौंद चले नासा इसरो,  हथियाने आकाशों को। उन्नत शीत-युद्ध में उलझी,  कूटनीतियाँ,  जिसमें   अपने-अपने ताने-बाने,  अपने-अपने फंद। @१०.१२.२२

शब्दों में शक्ति होती है, तभी तो..

क्षमा करें इस बार 11 पदों की लंबी कविता   शब्दों में शक्ति होती है, तभी तो ० १. शब्दों में शक्ति होती है तभी तो चिड़ियों के चहचहाते ही होने लगी है पत्तों में सरसराहट जबकि नींद पीकर सोया हुआ सारा शहर धुत्त है सुविधाओं के लिहाफ़ों में। २. शब्दों में शक्ति होती है तभी तो भंवरों की गुनगुन से खिलने लगे हैं फूल फड़कने लगे हैं तितलियों के पर जबकि बांबियों में छुपे हुए बहरे सांप गाढ़ा करने में लगे हैं अपना ज़हर। ३. शब्दों में शक्ति होती है तभी तो हवाओं की सनन सनन से अंकुराने लगीं हैं रबी की फसलें जबकि बिलों में घुसपैठिये चूहे रच रहे हैं जड़ें कुतरने का षड्यंत्र। ४. शब्दों में शक्ति होती है तभी तो झूठ सर चढ़कर बोलने लगा है जबकि अपाहिज़ और गूंगा सच झुककर तस्मे बांध रहा है साहब के जूतों के।   ५. शब्दों में शक्ति होती है तभी तो अपराधियों के माथे से पुंछ रहे हैं बर्बरता के तमाम कलंक जबकि अंधी संस्कृति के हाथों ने उठा रखे हैं अभिनंदन के हार। ६. शब्दों में शक्ति होती है तभी तो ख़रीदे जाने लगे हैं नक्कार खाने जबकि तूतियाँ अब कहीं नहीं बोलतीं छोड़कर जा रहीं

चमीटा

  चमीटा खनन खनन खन, खनन खनन खन,खन खन बजा चमीटा। धूनी, चूल्हा, गुरसी, सिगड़ी, उकसा रहा चमीटा।                                       खनन खनन खन... तू फ़क़ीर का अल्ला-अल्ला, बाबाओं का भोले। चिलमों पर अंगारा धरकर, हर-हर बम-बम बोले। अलख जगाए, धुनी रमाये, आंगन-आंगन डोले। कथा सुनाए, आल्हा गाये, तू भड़काए शोले। खरी-खरी जो कहे कबीरा, किसको लगा न चीटा। आह कबीरा..!!                   खनन खनन खन... पंजे का ख़ुद्दार पुत्र तू, चतुर चिकोटी माई। चिमटी है चालाक बहन, फ़ौलादी संड़सा भाई। चूल्हे चौके से खेतों तक तू अपनों का साथी। जबड़ोंवाला मगर-मच्छ तू, खीसोंवाला हाथी। तूने अपनी राह बनाई, गड़बड़ रस्ता पीटा। कड़ा चमीटा..!!              खनन खनन खन... ० @रा रा कुमार, दूसरा पद दि. : ०५.१२.२२

आज की ग़ज़ल

 आज की ग़ज़ल  0 हमेशा' अपनी' ही मर्ज़ी से क्यों जिया जाए कभी हवा की दिशा में भी बह लिया जाए फटे दिलों को मुहब्बत से अब सिया जाए हुए कटार से रिश्ते हैं क्या किया जाए तबील राह हो तो ये सबक़ ज़रूरी है मुसाफ़िरों के बराबर सफ़र किया जाए हंसी ख़ुशी के ये लम्हात गर गए तो गये हज़ार जख़्म दबा मौज में जिया जाए ज़मीन पास में होगी तो नींव रख लेंगे बने मकान तो छत उठ के आलिया जाए मसर्रतों का मुहर्रम मना रही है सदी महज़ ख़याल की सड़कों पे ताज़िया जाए तमाम रिश्तों से बढ़कर वो एक है कांधा कि जिस पे रखते ही सर सोग़ शर्तिया जाए बयानबाज़ियों के सब्ज़ बाग़ रहने दो करो उपाय कि मसला ये हालिया जाए  शराब की ही लगानों से मुल्क जी पाया निजाम ये है कि घर घर में साक़िया जाए  @ हबीब अनवर  {alis डॉ. आर रामकुमार, रामकुमार रामरिया, कुमार ज़ाहिद वग़ैरह} 0 शब्दार्थ : तबील = लम्बी, दूरी की,  आलिया (अरबी)= आकाश, स्वर्ग, मसर्रत = हर्ष, उल्लास, खुशी, आनंद,  मुहर्रम = शोक काल, इमाम की शहादत का मातम,  महज़ = केवल, मात्र, निरा,  ख़याल = कल्पना, तख़य्युल, illusion, दृष्टि भ्रम, निराधार कल्पना, ताज़िया = इमाम के जनाज़े या क़ब्र की झांकी, शर्तिया =

ग़ज़ल

 एक ग़ज़ल  रश्क़ दुश्मन को हो    असबाब हैं मेरे अंदर जान से क़ीमती    अहबाब हैं मेरे अंदर रतजगे जश्न तमाशे सभी का मरकज़ हूं अलहदा क़िस्म के   अरबाब हैं मेरे अंदर हाल बीमार का   आंखों से पकड़ लेता हूँ आइना हूँ   कई सीमाब हैं मेरे अंदर मैं कि किरदार को ज़रदार बना देता हूँ गो नगीने नए नायाब हैं मेरे अंदर रोज़ इंसान की सीरत को नई सूरत दूं आसमां हूं   कई महताब हैं मेरे अंदर @डॉ. रा.रामकुमार, (प्रतिच्छाया : @ कुमार जाहिद, @हबीब अनवर, 19.10.22) शब्दार्थ : असबाब > सबब का बहुवचन, अहबाब > हबीब( मित्र) का बहुवचन अरबाब > रब (ईश्वर, अनेक धर्मों के अनेकशः) सीमाब > पारा, पारद, अनेक आलों में अलग अलग इस्तेमाल होनेवाली तरल धातु, {सीमाब के साथ कई लफ़्ज़ तब अखरनेवाला है जब उसे एक ही अर्थ में लिया जाए। सीमाब का अर्थ (१) आईने के लेप और (२) पारे से बनी दवा , चिकित्सक (३) बुखार नापने और (४) बीपी नापने के दो अलग अलग आले में इसका इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावे (५)एटमोस्फियरिक प्रेशर के लिए बैरोमीटर में भी सीमाब का इस्तेमाल होना सभी जानते हैं। (६) लैक्टोमीटर,  इसलिए जहां जैसी ज़रूरत हो या जो जै

नाख़ून कब कटेंगे?

 नाख़ून कब कटेंगे?                            @डॉ. आर. रामकुमार ० हमारे बाल और नाख़ून रोज़ बढ़ते हैं. यह प्राकृतिक-शारीरिक क्रिया है. बाल, हड्डी और नाख़ून एक ही प्रजाति के प्रत्यंग हैं. हड्डी काटने और तोड़ने का कोई दिन या मुहूर्त नहीं होता, उसके लिए 'भाव' की भूमिका महत्वपूर्ण है. घृणा या क्रोध जैसे ख़राब समझे जानेवाले 'भाव' आने से, लोग दिन या मुहूर्त का विचार किये बिना ही, किसी भी क्षण हड्डी तोड़ या काट सकते हैं. कभी-कभी ख़राब ही नहीं, अच्छे या ऊंचे 'भाव' होने पर भी हड्डियां काटी या तोड़ी जाती हैं. ऊंचे और अच्छे 'भाव' के कारण ही इस देश में गायों, बकरियों और मुर्ग़ियों की हड्डियां काटी और तोड़ी जा रही हैं. गाय की हड्डियों ने तो राजनीति पर भी बड़ा हल्ला मचाया है. चूंकि इस देश में गाय की तुलना स्त्री से की जाती है, इसलिए देश के धर्मप्राण प्रान्तों में स्त्री और गाय की हड्डियां समान रूप से तोड़ी और काटी जा रही हैं. अब हम बाल पर आते हैं. बालों की महिमा बहुत है. बाल शरीर पर हड्डियों और नाख़ूनों के साथ आते हैं. एक समय तक बाल बढ़ाने का चलन था. सर और दाढ़ी मूंछें बढ़ाने पर लोग ऋषि

युद्धोत्प्रेरक सप्तशती है गीता

युद्धोत्प्रेरक सप्तशती है गीता  *  वास्तव में प्रतिपक्ष के प्रतिकार का पूर्व-प्रबंधन है गीता। सामना की तैयारी है। सान पर शस्त्रों को पैना करना है। शस्त्रों को धार देने का प्राम्भिक सत्र है गीता। संघर्ष का प्राक्कथन है। प्रायः पक्ष का प्रबंधन, अहंकार और अहमन्यता पर आधारित स्थापनाओं और उनकी प्रतिरक्षा तक सीमित हो जाता है। उसकी हठधर्मिता का सारा ध्यान निर्माण की अपेक्षा विध्वंस में लिप्त रहता है। इसलिए प्रतिपक्ष वाम-मार्गी होता है। वह विरोध में, असहमति में उठा हुआ हाथ होता है। उसकी वह न्याय के पक्ष में होता है और पक्ष में भांड होते हैं, ताली बजानेवाले किन्नर होते हैं, चारण होते हैं, विचार-विहीन उच्छ्रंखल होते हैं। जैसा कि महाभारत की कथावस्तु में देखते हैं। महाभारत में दो पक्षों अर्थात पक्ष और प्रतिपक्ष के आपसी अंतिम टकराव, आर-पार की लड़ाई का प्राम्भिक प्रबंधन अर्जुन-कृष्ण संवाद के रूप में महाभारत का सप्तशती-खंडकाव्य गीता है, जो अर्जुन के हतप्रभ और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाने के बाद हथियार डालने के बाद, कृष्ण के प्रेरणास्प्रद उद्बोधन अथवा समकालीन शब्दों में मोटिवेशनल-स्पीच (motivational speech

देश भक्ति गीत

   देश भक्ति गीत ० सत्ता को वरदान मिला है, नंगा नाचो, ऐश करो। मारो, काटो, लूट मचाओ, दो कौड़ी का देश करो।। आशा और आस्थाओं का, मैं भी भूखा-प्यासा हूं। सक्रिय सकारात्मकता की, व्याकुल तीव्र पिपासा हूं। पूरे सृजनाकुल सपने हों, वाचित वह सन्देश करो।। राष्ट्र-संपदा, लोक-वित्त को, नहीं सुरक्षा दे सकते। गिद्ध-चील के मुंह से जनधन, वापस छीन न ले सकते। तब तो व्यर्थ राष्ट्र-पालक का, मत पहना गणवेश करो। भव्य, भयानक भूत-भवन हैं, मंदिर मूक मूर्तियों के। समता, ममता रहित लेख ये, पौरुष-हीन कीर्तियों के। वंचित, शोषित, दमित, दलित के, उनमें प्राण-प्रवेश करो। सारा भारत बेच रहे हो, धान, धरा, धन, धरोहरें। खान, विमानन, कोष, सुरक्षा, सड़कें, सब संस्रोत भरे। मां की कोख लजानेवालों, लज्जा तो लवलेश करो। कथनी-करनी एक रखो फिर, जनहित में अनुदेश करो। अपने दोष सुधारो पहले, फिर जन को उपदेश करो। तब यह देश सहर्ष कहेगा-"माननीय आदेश करो।।" ० @कुमार, २४.०८.२२ , ०८.३०-१.५४ , बुधवार,

गीता, गीत, गीतांजली!

गीता, गीत, गीतांजली!! 0. भूलकर सारी दुनिया की रंगीनियां, रंग में मेरे, मन तुम रंगाओ प्रिये। दुःख के बादल ये काले बिखर जाएंगे, ठोस विश्वास मुझ पर जो लाओ प्रिये। * 1. गीत, गीतांजली और गीता सभी, मन की गहराइयों के विविध-चित्र हैं। द्वेष के, ईर्ष्या के सघन द्वंद्व में, मोह, अनुराग, निष्ठा, सहज-मित्र हैं। इनसे लड़ना भी है, इनसे बचना भी है, कोई रणनीति तुम भी बनाओ प्रिये! ♂♀ 2. कर्म के मार्ग पर नागफणियाँ उगीं, वृक्ष फलदार होंगे, ये मत सोचना। रोपकर मात्र कर्त्तव्य, क्यारी में तुम भाल से जो पसीना बहे, सींचना। कल के श्रम-वृक्ष से आज के फल मिले, बीज उपवन में उनके उगाओ प्रिये। ^ 3. काल के तार में क्षण के मनके हैं हम, रेत नदियों में जैसी बहे, हम बहें। रंग रूपाकृति भाव व्यवहार सब, हर युगों में बदलते हैं, क्या कुछ कहें।  कौन तुम, कौन हम, कल कहाँ, कब हुए, आज जो भी हैं वैसा निभाओ प्रिये!°~™ @कुमार, रविवार, २१.०८.२२ , अपरान्ह ०१.१५-०२.०० संश्रोत : ० 0. • सर्वधर्मान्परित्यज्य,         मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो,      मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।१८.६६।। .....    

अट्ठहासों_के_भरोसे

अट्ठहासों के भरोसे ० जब कभी प्रतिमा गढूं मन की शिलाओं पर चित्र तो बनते नहीं, चिंगारियां निकलें। कंटकों की यात्रा के घाव गहरे हैं। शूल से चुभते हुए उद्भ्रांत चहरे हैं। भूल जाता क्यों नहीं मन चोट सब पिछली, क्या समय के चिकित्सक निरुपाय ठहरे हैं? इस नगर से उस नगर तक, भाग कर देखा- हर अपरिचित विषमता से यारियां निकलें।  शौर्य के, उत्साह के दिन सींखचों में हैं।  और सद्भावों के सपने खंढरों में हैं। जो निराशाएं गड़ा आया था मलबों में वो निकाली जा चुकी हैं, आहतों में हैं। हर चिकित्सालय से मैं भयभीत रहता हूँ क्या पता, मुर्दा कहां, खुद्दारियाँ निकलें! मर चुकी पाने की इच्छा, कुंद अभिलाषा।  दोगली लगने लगी है - आज की भाषा। वाम, द्रोही, नास्तिक, कुंठित, भ्रमित, विक्षिप्त, छद्म-जीवी गढ़ रहे हैं मेरी परिभाषा।   अट्ठहासों के भरोसे जी रहे जुमले, घोषणाओं में भी जिनकी, गालियां निकलें।  ०० @कुमार, १५ अगस्त २०२२, ५.३० प्रातः ०

वो : एक ग़ज़ल

 वो : एक ग़ज़ल बेकाबू ... टेढ़ा मेढ़ा ...बहुत तेज़ जा रहा बुझने के पहले जैसे दिया भकभका रहा नारी... दलित के बाद वो शबरी के नाम पर जूठे नहीं मिले तो झूठे बेर खा रहा अगली कठिन चढ़ाई में अगले की टांग खींच सीना फुला के बांह की मछली दिखा रहा इससे भी ज्यादा और गिरावट सियासतन  होनी है ... दौर का हमें मंज़र बता रहा कितना अज़ीब शौक़ है ... पशुओं से प्रेम का कुत्ते ख़रीदकर उन्हें हाथी बना रहा @कुमार, १२.०७.२२, मंगलवार
 एक ग़ज़ल  पिछले किसी फ़साद पे उलझा दिखाई दे बातें वो चौंक चौंक के करता दिखाई दे  हर बात पर उसे सदा खटका दिखाई दे अपनों के बीच में भी वो सहमा दिखाई दे  जंगल की कोई बात उसे चुभ गयी होगी टेसू का पेड़ इसलिए दहका दिखाई दे  ईडी की ऐड़ उसको ही लगती है आजकल राजा जिसे--- हो नंगा तो नंगा दिखाई दे  बन्दर के हाथ उस्तरा मत दीजिए कभी काटे गला तो उसको सफलता दिखाई दे  @कुमार, २९.०६.२०२२, बुधवार, ऐड़ : चाबुक की मार,

एक ग़ज़ल : दुविधाओं की शल्य चिकित्सा

 एक ग़ज़ल : दुविधाओं की शल्य चिकित्सा  मुंसिफ़ बड़ा है शाह से ...सच है कि बतकही लगती है आग आह से ...सच है कि बतकही ईमां का हाथ छोड़ के  ... कुर्सी को थाम के बचते हैं हर गुनाह से ... सच है कि बतकह बिकते उसूल हाट में  ...  मिलते रसूख़ ज़र निकले वो बारगाह से  ... सच है कि बतकही किस पर यक़ीन किस पे भरोसा किया  लुटे बैठे हैं अब तबाह से ... सच है कि बतकही तख़्तापलट के दौर में ... मुर्दार मोहरे उठ आते क़ब्रगाह से ... सच है कि बतकही @कुमार, ३०.०६.२०२२, शब्दार्थ :  मुंसिफ़ : न्याय करनेवाला, न्यायाधीश, रसूख़ : प्रभाव, इज़्ज़त, साख, रुतवा, ज़र    : धन, दौलत,  बारगाह : दरबार, सदन, खेमा, डेरा, घर, मुर्दार : मरा हुआ, मृत-पशु, डरा हुआ, अयोग्य व्यक्ति ,

आत्मविश्वास के पक्ष में

 एक ग़ज़ल की कोशिश : आत्मविश्वास के पक्ष में ० दुनिया को सभी नुक़्स नफ़ा तौलने तो दो अंदर जो बोलता है उसे बोलने तो दो  हीरे जवाहरात व गौहर के ख़ब्त को तहख़ाना दिल का आज ज़रा खोलने तो दो  अमरित जो हौसले का अगर पी चुके हो तुम फिर रोज़ ज़ह्र घोले जहां घोलने तो दो  गर्दिश पड़ाव ख़ास सरे राह डालती यह छाती छोलना है उसे छोलने तो दो  हुंकार के ख़िलाफ़ तो डंके की चोट हो एकाध ज़लज़ले से ज़मीं डोलने तो दो  @कुमार, 23-25.05.2022  कुछ शब्दार्थ : नक़्स/नुक़्स نَقْص : संज्ञा, पुल्लिंग : त्रुटी,  ख़राबी,  कमी,  कसर,  दाग़, धब्बा, खोट, ख़सारा,आर्थिक~ घाटा, नुक़्सान नफ़ा' نَفَع संज्ञा, पुल्लिंग,आर्थिक ~ हित, लाभ, फ़ायदा ख़ब्त : خَبْط संज्ञा, पुल्लिंग: उन्माद, सनक,बुद्धि-विकार, पागलपन,  गौहर : گَوہر  मोती, मुक्ता, मुक्तक, मुक्ताहल, मोती, रत्न, बुद्धिमत्ता, किसी वस्तु की प्रकृति, गर्दिश گَرْدِش  संज्ञा, स्त्रीलिंग, विपत्ति, मुसीबत, आफ़त,  संकट का फेर,  ख़िलाफ़ خِلاف : विपरीत, विरुद्ध ज़लज़ला: زَلْزَلَہ   भूडोल, भूचाल, भूप्रकंप

रत्नाकर की वंशबेल

 रत्नाकर_की_वंशबेल : नवगीत 0 धीरे धीरे सही, खुल रहा, गुप्त-गुफ़ा का द्वार। कुछ रहस्य है सम-धर्मा लोगों में  बढ़ा खिंचाव। आगे दम्भ,  आक्रमण-मुद्रा, पीछे हुआ लगाव।  संवादों को आशंकाएं रहीं मौन दुत्कार। दकियानूसी भाईचारा मेल-जोल, सह-जीवन। तर्कों के भाले चमकाता कट्टरपंथी दुर्जन। दुआ सलामी और प्रणामी  ले निकलीं हथियार।  रत्नाकर की वंश बेल में हृदय नहीं फलते हैं। कंक्रीट के क्रूर क्रोड़ में लूट लोभ पलते हैं। इस जंगल में कोई हो जो छुपकर करे न वार। @कुमार, दि.२१.०४.२०२२, गुरुवार।

ये कश्मीर है!!

  ये कश्मीर है!!          अगर फिरदौस बर रूए ज़मीं अस्त          अमी अस्तो अमी अस्तो अमी अस्त।।            यह शेर कश्मीर के संदर्भ में इतने अधिक बार  बोला गया है कि अब यह कश्मीर पर ही लिखा हुआ लगता है और इसी रूप में स्थापित भी हो गया है। यद्यपि इस पूरे शेर में कश्मीर कहीं आया नहीं है। फ़िरदौस शब्द जन्नत के लिए है। यह ज़मीन के हर उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है जो स्वर्ग की तरह है। लेकिन स्वर्ग देखा किसने है कि कहां है और कैसा है। स्वर्ग एक ख़्याली पुलाव है। भारत और दुनिया के लोगों ने कश्मीर ज़रूर देखा है। ग़रीबों ने और मध्यमवर्गी लोगों ने फिल्मों के माध्यम से कश्मीर देखा है। कश्मीर की वादियों पर बहुत फिल्में बनीं जैसे कश्मीर की कली, जंगली, आरज़ू, जब जब फूल खिले, बेमिसाल, शीन आदि। कुछ गीत भी रचे गए हैं जिससे कश्मीर का पता चले। जैसे "कितनी ख़ूबसूरत ये तस्वीर है, ये कश्मीर है।" या फिर "ये तो कश्मीर है, इसकी फ़िज़ा का क्या कहना।" यह भी गीत है,"काशमिर की कली हूँ मैं, मुरझा गयी तो फिर न खिलूंगी, कभी नहीं, कभी नहीं।" लेकिन कश्मीर की कली तमाम विपरीत परिस्थितियों में खिल रह

फिर पलाश फूले हैं।

  फागुन राग सप्तम फिर पलाश फूले हैं।                             (स्वतंत्र मत, जबलपुर, २३ मार्च १९९७) फिर पलाश फूले हैं फिर फगुनाई है। मस्ती कब किसके दबाव में आई है! नाज़ उठाती हवा चल रही मतवाली। इतराती है शाख़ नए फूलों वाली। कलियां कब अब संकोचों में आती हैं। गाती हैं विस्फोट का गाना गाती हैं।। पत्ते नए, नए तेवर दिखलाते हैं। पेड़ उन्हें अपने माथे बिठलाते हैं। धूप, ठीक नवयौवन का अभिमान लिए। चूम रही धरती को नए विहान लिए।।            जिधर देखिए उधर वही तो छाई है।।१।।            मस्ती कब किसके दबाव में आई है! सिकुड़े बैठे शीत के मारे उठ धाये। खेतों की पेड़ों पर ठस के ठस आये। ख़ूब पकी है फसल पसीनावालों की। व्यर्थ गयी मंशा दुकाल की, पालों की।। भाग भाग कहने वाले शरमाये हैं। सिर्फ़ आग के रखवाले गरमाये हैं। गर्मी से जिनका रिश्ता है नेह भरा। खेतों खेतों जीवित है वह परम्परा।।            कुछ न कुछ कर गुज़रेगी तरुणाई है।।२।।            मस्ती कब किसके दबाव में आई है! दूध पका है बच्चे इन्हें भुनाएंगे। मसल हथेली फूंक-फूंक कर खाएंगे। मेड़ों पर जो ऊग रही है बे मतलब। वही घास बनती '

भारतीय स्वर्ग कश्मीर ?

  भारतीय स्वर्ग कश्मीर ? मैं एक महीने से योजना बना रहा था कि आपसे '15 मार्च की ख़ासियत ' को लेकर चर्चा करूंगा। लेकिन 11 मार्च को कश्मीर पर बनी फ़िल्म को लेकर सोशल मीडिया में चक्रवात आ गया। विभिन्न अभिकरणों और अभिकर्ताओं ने फ़िल्म देखने की पुरज़ोर अपील शुरू कर दी ताकि जलियांवालाबाग़ तथा सैकड़ों नरसंहार की तरह कश्मीर में हुए नरसंहार की तश्वीरें देखी जा सकें, ताकि क्रूरता के जघन्न और घिनौने दृश्य हमें पीड़ितों के क़रीब पहुंचा सकें, ताकि उनके प्रति सहानुभूति पैदा कर सकें।(?)  सोमवार 15 मार्च तक मीडिया में यह खबर आई  कि 250 भारतीय सैनिकों पर आतंकी हमले से हुए नरसंहार के प्रतिशोध स्वरूप जो सर्जिकल स्ट्राइक हुई, उसकी रोमांचित और उत्तेजित करनेवाली फ़िल्म ' उरी' को कई करोड़ पीछे छोड़ते हुए, 'कश्मीर-फाइल्स' केवल तीन दिन में साढ़े पंद्रह करोड़ का बिसिनेस करनेवाली फ़िल्म बनी। फ़िल्म के लेखक, निर्देशक और निर्माता विवेक रंजन अग्निहोत्री अपनी सहनिर्मात्री और अभिनेत्री पत्नी के साथ प्रधानमंत्री से भी मिल आये। अब दूसरी कंपनियों और अभिकरणों की भांति प्रधानमंत्री ने सभी से अपील की है कि इस फ़ि

महाभारत की कूटनयिक जंगी प्रासंगिकता

  महाभारत की कूटनयिक जंगी प्रासंगिकता रूस से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए यूक्रेन ने भारत से सहायता और सहयोग की अपील की है और उसे महाभारत की दुहाई दी है। इसके पीछे के निहितार्थ को कितने प्रतिशत भारतीय समझ पाए, यह आंकलन मुश्किल है। हम सामान्य जनों से मिलकर बने भारत से इस जानकारी की उम्मीद नहीं रखते कि महाभारत युद्ध में किस विदेशी सत्ता ने किस हैसियत से सहायता पहुंचायी और किसे पहुंचाई? महाभारत का जाना-पहचाना प्रसंग यह है कि एक ही वंशवृक्ष की दो शाखाएं आपस में टकरा रहीं थीं। सत्ता पर आसीन शाखा अपना वर्चस्व सिद्ध कर रही थी और दूसरी शाखा अपनी नीति की लड़ाई लड़ रही थी। जो सत्ता पर है, वह भी भारत है और उसी भारत से यूक्रेन की सत्ता, महाभारत के नाम पर सहयोग की गुहार कर रही है। सत्तासीन भारत अपने मित्र राष्ट्र की सत्ता से अस्तित्व की लड़ाईवाली सत्ता द्वारा की गई सहायता की गुहार के किस निहितार्थ को समझ रहा है, इसका अनुमान राजनैतिक समीक्षक ही लगा सकते हैं। दूसरी तरफ आकार और संभवतः शक्ति में रूस की तुलना में छोटा देश है यूक्रेन, जो अपनी अस्मिता और स्वन्त्रतता बनाये रखने के लिए लड़ रहा है। यानी नीतिगत

नफ़रत और मुहब्बत का दिन : १४ फरवरी

  नफ़रत और मुहब्बत का दिन :  १४ फरवरी . मुहब्बत और नफ़रत में हमेशा जंग ज़ारी है.  कई सदियों पे केवल एक दिन उल्फ़त का भारी है. सियासत जुल्म करती है मगर परिणाम क्या होता? सदा संघर्ष जीता, क्रूरता हर युग में हारी है. * @कुमार, १४ फरवरी २०२२, पुलगामा दिवस, वैलेंटाइन डे,  पुलगामा दिवस नयी दिल्ली, 14   आतंकवादियों ने इस दिन को देश के सुरक्षाकर्मियों पर कायराना हमले के लिए चुना। राज्य के पुलवामा जिले में जैश-ए-मोहम्मद के एक आतंकवादी ने विस्फोटकों से लदे वाहन से सीआरपीएफ जवानों की बस को टक्कर मार दी, जिसमें कम से कम 39 जवान शहीद हो गये और कई गंभीर रूप से घायल हुए। 14 फरवरी  वैलेंटाइंस डे   तीसरी शताब्दी में रोम के एक क्रूर सम्राट ने प्रेम करने वालों पर जुल्म ढाए तो पादरी वैलेंटाइन ने सम्राट के आदेशों की अवहेलना कर प्रेम का संदेश दिया, लिहाजा उन्हें जेल में डाल दिया गया और 14 फरवरी 269 ईसवी को फांसी पर लटका दिया गया। प्रेम के लिए बलिदान देने वाले इस संत की याद में हर वर्ष 14 फरवरी को वैलेंटाइन डे मनाने का चलन शुरू हुआ। हालांकि इस दिन को मनाने को लेकर कुछ लोगों को एतराज है।  देश दुनिया के इतिहास में

दो मुक्तक

 दमदार सोच, करे शिकायत दूर * सोच रखो दमदार, शिकायत हों सब नौ दो ग्यारा. लोग हंसेंगे, बोल पड़े यदि, सागर लगता खारा. गड्ढे, कांटे, रोड़े, दुश्मन, मुसीबतें, तक़लीफ़ें, इनका ज़िक्र, करेगा बौना, हर किरदार तुम्हारा.          @कुमार, ०९.०२.२०२२, ११.३० प्रातः, -------------0------- नाकामियों के दर्द झटक * हिम्मत से भर छलांग, हिमालय को पार कर. सौ बार फिसलता है तो, कोशिश हज़ार कर. कमज़ोर ख़्याल जीत का दुश्मन है, सावधान,  नाकामियों के दर्द झटक, तार-तार कर.              @कुमार, ३०.०१.२०२२/०९.०२.२०२२,