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Showing posts from June, 2019

जुलाहा

जुलाहा को याद करो तो कबीर याद आते हैं। विश्वभारती विश्वविद्यालय के संस्थापक कविगुरु रवींद्र, विश्वभारती के आचार्य क्षितिमोहन सेन और विश्वभारती के ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'कबीर' को याद करते हुए कितने ही मानदंड स्थापित किये। 'कबीर ' का अर्थ अद्भुत, आला और महान सिर्फ शब्दों तक सीमित नहीं है। 'कबीर' ने उसे सार्थक भी किया है। आलोचना के शिखर-पुरुष नामवर सिंह के गुरु हजारी प्रसाद की कृति 'कबीर' पढ़ने से पता चलता है कि कबीर की व्युत्पत्ति के मूल में *कवि:* भी बैठा हुआ है। संस्कृतविद 'कवि:' से कबीर तक की यात्रा सरलता से कर सकेंगे। कुलमिलाकर, *कवि-समूह* को यह नवगीत सौंप रहा हूं, जुलाहा की जगह अपने को रखकर पढ़ें। और हां, यह सिर्फ *छूने भर की चेष्टा* है, *असल गहराई तक जाना* तो मैं ही निश्चित रूप से नहीं कर पाया। *जुलाहा* धागा-धागा बुने जुलाहा ताना, बाना, भरणी। रेशा-रेशा कुल कपास का आपस में मिलजुलकर। गाढ़ा गढ़े गूढ़ गुंथन में गठ-बंधन, शुभ, हितकर। परिमित कूलों के भीतर ही अगम अपरिमित धारा, अनगढ़ ऊबड़-खाबड़ गड्ढे ढांप रही सरि हंसकर। शोभनीय

मोहरे

जो लोग शतरंज के खिलाड़ी हैं उन्हें मोहरों की औकात पता है। मोहरा बेचारा ही अपनी कीमत नहीं जानता। अभी तीन दिन पहले मैं मोहरा बनाया गया और उस समय तक मेरे बड़े भाव थे जब तक मैं पिट नहीं गया। मुझे मोहरा बनाकर चलनेवाले चालबाज़ ने जानबूझकर मुझे दूसरी पार्टी के घर में धकेलकर ऐसे स्थान पर खड़ा किया था जहां मेरे पिट जाने में आसानी हो। नाइट के सामने पैदल कैसे टिकेगा? मुझे वजीर कहकर इस खिलंदड़े चालबाज़ ने उठाया था लेकिन जब मैं घोड़े से पिट गया तो मुझे अपनी चाल में लगानेवाला चालबाज़ खिलाड़ी हंसकर बोला, "गया पिद्दी मोहरा। मुझे पता था यह जाएगा इसीलिए इसे आगे बढ़ाया। पर चूंकि यह ज़िंदा इंसान है इसलिए इस पिद्दी (पैदल) को भाव देते हुए इसे मैंने झूठमूठ वजीर कह दिया ताकि यह खुशी खुशी मोहरा बन सके और मैं इसे चल सकूं।' मैं पिटा हुआ पैदल लुइस रुआंसा होकर उस चालबाज़ शतरंजिये का मुंह टुकुर टुकुर देख रहा था। एडिनबर्ग स्कॉटलैंड के तमाशाई देखते रहे कि झल्लाई हुई रानी विक्टोरिया किंग लुइस मार्टिन को नहीं, वार्डर लुइस चैस को पीटने लगी। किंग मार्टिन हंसने लगा। क्वीन विक्टोरिया रॉयल-गेम छोड़कर गली-छाप लड़ाई पर उतर आ

संवादों के फूल

पितृ दिवस के अवसर पर एक पैतृक गीत : *** अनबोली दुनिया में खुशबू भरने को, संवादों के फूल खिलाने आया हूं। मैं, मेरे, अपने, परिजन खुश रहें, खिलें, सुमन सुमन भावी भावन भर लाया हूं। बनावटों की बाट-बाट बगवानी थी। स्वार्थ सनी हर ललक, खुशी,अगवानी थी। नहीं सिकोड़ी नाक न माथे सिकन पड़ी, मेरे लिए खेल उनकी नादानी थी। संबंधों की मुझे लगन, उनको क्रीड़ा। तोड़ी नहीं, सदा जोड़ी है मन-वीणा। खिंचे तार पर कटी किन्तु उंगली फेरी, झंकारों पर झूमा, नाचा, गाया हूं। बदल नहीं सकते जब दुनियावालों को। दिखा नहीं सकते अंदरूनी छालों को। मगरमच्छ हैं जहां, हमे भी रहना है, छोड़ नहीं सकते हम चलचर, तालों को। पीकर विष, हंसकर अस्तित्व बचाना है। जान बूझकर चोट-चोट मुस्काना है। 'तुम तुम हो, मैं मैं हूं' ऐसा सोच सदा, इस कांटों से भरे सफर में आया हूँ। नीड़ है मेरा, चूजे मेरे, मैं उनका। उनकी खातिर जोड़ा है तिनका-तिनका। बाजों से, गिद्धों से बचा-बचा लाया, कभी न अंतर किया रात का या दिन का। उनको इस जंगल में जीना सिखलाऊं। कैसे लड़ें भेड़ियों से गुर बतलाऊं। सिर, पर, पैर मिले हैं मुझको इसीलिए, धरती नापी ह