Skip to main content

Posts

Showing posts from 2021

जाता साल : आता साल

  जाता साल : आता साल आज है *आख़री दिन* ... अव्यवस्था, अंशदान चोरी, सामूहिक धन यानी अमानत में हेराफेरी, आरोप-प्रत्यारोप, धौंस, मनमानी, तनातनी, गुटबंदी, माफ़िया को बचाने के लिए छर्रों की लामबंदी, बेमेल वसूली, भेद, मान-अपमान की कलह-नीति की समाप्ति का... 💐💐 कल से होगा *नया शुभारंभ* .... सबका हित, शांति, उखड़ी हुई सड़कों की जगह नई और मज़बूत सड़क, सुव्यवस्थित और पारदर्शी पानी की व्यवस्था, सभी का बराबरी और ईमानदारी से अंशदान, सामूहिक बिजली और सफ़ाई की सुचारू व्यवस्था, फिज़ूलखर्ची का अंत, *जितनी चादर, उतने पैर फैलाने* की परंपरा का .... ☺️☺️ जाते जाते थोड़ा सा मज़ाक़ तो चलता है।  यह जानते हुए भी कि अंधों के आगे रोकर अपनी ही आंखें ख़राब करना है। और यह जानते हुए कि कुछ भी नया नहीं होने वाला  झूठ मुठ का *नया साल मुबारक!* 💐💐 ( *कोहराम नगर* से दुखियादास कबीर ) शब्दार्थ : झूठ-मूठ : वह मूठ जिसके नीचे तलवार नहीं होती, दिखावा, गीदड़ भभकी।

एक ग़ज़ल

बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़ मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईलु फ़ाइलुन 221 2121 1221 212 ० दुश्मन को लामबंद हुआ देख रहा हूँ हर ओर खाइयों के ख़ुदा देख रहा हूँ सच्चाइयों का आफ़ताब फिर है नदारद बादल से आसमां को घिरा देख रहा हूँ कुछ देर के मज़े थे ज़रा देर थीं खुशियां फिर आफ़तों को सर पे खड़ा देख रहा हूँ सब सिर्फ़ एकजुट थे वसूली के वास्ते बस्ती का हाल और बुरा देख रहा हूँ कल तक थी ख़ुदशनास ख़बरदार तबीयत क्यों आज उसका रंग उड़ा देख रहा हूँ मेरी बलाएँ लेके वो क़ातिल को दुआ दे गर्दिश की है शातिर ये अदा देख रहा हूँ सब बोलने वालों का गला घोंटनेवालों कल लेगी तबाही जो मज़ा देख रहा हूँ @कुमार,  २९.१२.२१ , बुधवार, 0 शब्दार्थ : लामबंद : संगठित,  खाइयों के ख़ुदा : खाइयों के बनाने और गहरी करनेवाले नुमाइंदे,   ख़ुदशनास : आत्मविश्वासी, अपने को पहचाननेवाला,   ख़बरदार : पहले से खतरा भांपनेवाला, अलाहिदा علاحدہ भिन्न, अलग क़िस्म का, अन्य,  नाज़िल نازِل नाज़िल  उतरने वाला, नीचे आने वाला, गिरने वाला, पधारने वाला, उतरा हुआ, आया हुआ

ग़ज़ल

 रमल मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मक़्तूअ फ़ाइलातुन फ़यइलातुन फ़यलातुन फ़ेलुन/फ़अलुन 2122 1122 1122 22 /112 1.  मेरी आँखों के समंदर पे तो तैरे कोई इस तरह दिल में उतर पाएगा गहरे कोई लेते रहता है फ़लक भर के क्यों फेरे कोई ठौर इतने हैं कहीं पर भी तो ठहरे कोई शक़्ल-- चीज़ें -- न दिखें राह-गुज़र -- चारागर ज़हन में क्यों लिए फिरता है ये कुहरे कोई जिसके होने से बियाबां में बहारां होती एक गुंचा तो खिलाये मेरे डेरे कोई चिलमनों में भी मिले रुख पे हिज़ाब ओढ़े थे  डालकर ख़ुद पे ही रखता है क्या पहरे कोई रंज ग़म जख़्म तलातुम में गिरफ़्तार बशर  इस बुरे तौर से इंसां को न पेरे कोई चैन देते हैं सुकूँ देते शिफ़ा देते हैं  मेरे पहलू से हटाए न अंधेरे कोई @कुमार, ज़ाहिद, हबीब अनवर, १५.१२.२१

एक सामयिक ग़ज़ल :

 एक सामयिक ग़ज़ल : मर गया हर दौर अपने आप  ये तिज़ारतदां हैं सबके बाप जुर्म की लिखतीं इबारत रोज़ मज़लिशें वे नाम जिनका खाप कैंचियां आएंगी उनके हाथ ले रहे हैं जो गले का नाप हैं जहां गड्ढ़े भरे उखड़ाव उस सड़क की दूरियां मत माप उस मुनी की है तपस्या श्रेष्ठ क्रोध में भरकर जो देता श्राप @कुमार,  ०६.१२.२१, ९.४५ प्रा. शब्दार्थ/कव्याशय :  ० दौर : समय, युग, लहर,  तिज़ारतदां : व्यापार बुद्धि लोग, पूंजीपति-उद्योगपति, मुनाफ़ा जीवी, मज़लिशें : सभाएं, पंचायतें,  खाप : खाप मुख्य रुप से एक सामुदायिक संगठन है जो किसी खास जाति या गोत्र से मिलकर बना होता है। इस तरह की खा प पंचायतों का कोई कानूनी आधार नहीं होता और सुप्रीम कोर्ट इन्हे अवैध घोषित कर चुका है।  आमतौर पर खाप में 84 गांव शामिल होते हैं। प्रत्येक गांव में एक चुनी हुई परिषद होती है जिसे पंचायत कहा जाता है। 7 गांवों की यूनिट को थंबा कहा जाता है और 12 थंबा मिलकर एक खाप पंचायत का निर्माण करते हैं। हालांकि अब 12 और 24 गांवों की खाप भी मौजूद है। सभी खापों के ऊपर सर्वखाप होती है जो इन सभी खाप पंचायतों का प्रतिनिधित्व करती है। प्रत्येक खाप अपने एक प्रतिनिधि को सर्व

सूरज की रोशनी में मौजूद हो तुम तुम में मौजूद है सूरज की रोशनी

 कविता : 3 ० सूरज की रोशनी में मौजूद हो तुम तुम में मौजूद है सूरज की रोशनी ० तुम्हारे पास से गुजरते ही मन भर जाता है अनदेखी उजास से ऊर्जा की एक अकथनीय सिहरन से निकलने लगती है अकूत ऊष्मा। दिखाई नहीं देता तुम्हारा हाथ पर कलाइयों में महसूस होता है मज़बूत और ताक़तवर पकड़ का अहसास सांसों में छातियों को फुलाने का साहस  उछाल मारने लगता है। तुम पिता तो नहीं हो  जिसके अभाव में ढूंढता रहा हूँ मैं  पिता जैसा लगनेवाला कोई कद्दावर किरदार किसी सूरत या शक्ल की तरह नहीं अपनेपन के सिंकाव की तरह जो मेरे भाग भागकर थके मन को दे सकता एक स्थायी राहत  नहीं, उस मरे हुए पिता की  अनाथ यादें भी तुम नहीं हो उनमें इतनी ऊर्जा और ऊष्मा कहां? तुम कौन हो जिसकी नज़र पड़ते ही फूलों में ताज़गी भरी मुस्कानें आ गयी खिल उठा ज़मीन का ज़र्रा ज़र्रा नदियों की कलकल जगमगा उठी लहलहा उठी खेतों की असंख्य उम्मीदें जाग उठे झंझावातों से लड़ने के जंगल के सारे मनसूबे तुम्हारी नज़र पड़ते ही  ख़ून में रवानी आ गयी मिठास बढ़ गयी, जवानी आ गयी तुम्हारी नज़र पड़ते ही  पत्ते पत्ते की सांसें लौट आयी उदास, हताश और अवसाद-ग्रस्त लम्हों को मिल गए जी उठने के अपरिभाष

कूट-युद्ध के ढोल

  नवगीत :  * आगे मौन है, पीछे उसके दुनिया भर के झोल। लपझप के  अनगिन झांसों में सांसें फंसी हुई हैं। ज़रूरतों के  जंगल में सब गैलें गंसी हुई हैं।  खरपतवार, मकड़जालों के पथ ने पहने चोल। बाज़ारों में  सजा-सजा रख बिकनेवाली चीज़।  लोगों का दिल लुभा सके जो लकदक, गर्म, लज़ीज़। दो कौड़ी की  बकवासों को कह अद्भुत, अनमोल। टोली, दल, जत्था, समूह हैं गठबन्धन के नाम। हामीवाला- दक्ष, कुशल है; अकुशल वो जो वाम। विश्व समूचा  बजा रहा है कूट-युद्ध के ढोल। @कुमार, १ दिसम्बर २१

दो अपेक्षित कविताएं

 दो अपेक्षित कविताएं कविता : 1 -------- उठो देवता! उठो देवता! विषधर सहसफनों के नीचे रहकर सुखी न समझो, छोड़ो यह विश्राम कोलाहल है बहुत समुद्री इन लहरों में लहरें, यही इकाई हैं सागर के विस्तृत फैलावों की देख रही हैं रोज़ अंदर अंदर क्या चलता है मधुआरे का जाल बड़ा होता जाता है बड़ी मछलियां जैसे उसकी हैं बिचौलिया जो मछली जालों से बचकर दूर निकलती बड़ी मछलियां जो दलाल हैं मछुआरे की उस पर हमला कर देती हैं उठो देवता! सागर का कोलाहल भुगतो अपना भी अब पक्ष बताओ बोलो किसके साथ खड़े हो दुष्टों के, मध्यस्थों के या कुटनीतियाँ झेल रहे साधारण जन के? उठो देवता! कहा था तुमने सज्जन जब जब पीर सहेगा उल्टे सीधे मनमाने नियमों के आगे सर न झुकेगा समझदार भुक्तभोगी का उसका आकर त्रास हरोगे उठो देवता! कहा था तुमने खलजन का तुम शमन करोगे नीतिवान को मुक्त करोगे सारे दुख से वचन निभाओ फिर पवित्र तुलसी को ब्याहो उठो देवता! कोलाहल को शांति बनाओ! (१५.११.२०२१, ११.११ प्रातः) ००० 0 कविता : 2 कुछ कर दिखाओ ! * साहस का जुआ खेलो, जान की बाज़ी लगाओ, देखो मत किनारे पर खड़े रहकर तेज़ धार में बहते

मैनपाट में बहता है उल्टा पानी

मैनपाट में बहता है उल्टा पानी : दृष्टिभ्रम या चमत्कार । जानिए पर्यटन स्थल की सच्चाई। 0 चमत्कार, जादू या करामात को वैज्ञानिक सोच के समझदार लोग आंख का धोखा या दृष्टिभ्रम, हाथ की सफाई, आदि कहा करते हैं। कई ऐसे प्राकृतिक स्थल हैं जो अनेक विचित्रताओं से भरे हुए हैं। कहीं गर्म पानी और ठंडे पानी के अगल बगल बने कुंड, कहीं पहाड़ी में बने कुएं के अंदर से आती हवाएं, कहीं कोई अद्भुत दलदल जो बरसात के बाद सुख जाता है लेकिन दीपावली के आसपास उसमें पानी निकलता है और ज़मीन दलदल की तरह धंसने और हिलने लगती है। इनके पीछे बहु गर्भीय कारण हो सकते हैं जिस पर भू-गर्भ शास्त्रियों के अतिरिक्त कौन सरदर्द मोल ले? ऐसा ही एक स्थान है छत्तीसगढ़ का पर्यटन स्थल कहलानेवाला मैनपाट। यह स्थल खूबसूरत वादियों के साथ आश्चर्य से भर देनेवाले 'उल्टा बहने वाले पानी' के लिए विख्यात है। यह ऐसा स्थान है जहाँ पानी का बहाव ऊँचाई की ओर है। इसे देखने लोग दूर दूर से आते हैं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में 'मैनपाट' विसरपानी गाँव में स्थित है। यह स्थान पिछले कुछ वर्षों से लोगों के बीच 'उल्टा पानी' काफी ज्यादा चर्चित

छंद असंबाधा

 3. असम्बाधा : असम्बाधा को प्रो. मौला बक्श ने  छंदोमंजरी में 41 वें छंद क्रम में लिया है। 14 वर्ण या अक्षरों या गण मर्यादा में 22 मात्राओं के इस छंद को वे निम्नानुसार व्यक्त करते हैं - अक्षर 14, गण म त न स गा गा, मात्रा स्वरूप 222, 221,111,112, 22, कुल मात्रा 22, छंद के उदाहरण संस्कृत, हिंदी, मराठी, गुजराती में प्रस्तुत करने के पूर्व  प्रो. बख्श उदाहरण माला के ऊपर ही असंबाधा छंद के गायन के लिए राग, जाति, ताल और गति का विवरण इस रूप में दे देते हैं... राग: आरभी, ताल : चतुश्र, जाति: भानुमति, मात्रा 11 विलंबकाल. ० उदाहरणमाला 1. संस्कृत : वीर्य्याग्नौ येन ज्वलति रण वशात क्षिप्ते। दैत्येन्द्रेजाता धरणि रियमसम्बाधा।। धर्मस्थित्यर्थं प्रकटित तनु संबंध:। साधूनां बाधां प्रशनमयतु स कंसारी:।। { यही  संस्कृत उदाहरण छंदोर्णव पिङ्गल (1929) के रचयिता भिखारीदास पद १८०, पृ. ४६ में यथावत प्रकाशित करते हैं।) 2. हिंदी : रात्यो द्यो वा नाम जपत अति वै तापे। तू ताही को नाम कहति मत ले मौ पे।। पापी पीड़ावंत जग तज सुनू राधा। ज्या के ध्याये हॉट अकलुष असंबाधा।। 3. मराठी मोठे दाते ते तनुधनसह गेले कीं ॥ स्वर्गा त्यां

अमृतध्वनि छंद या वृत्त

 2. अमृतध्वनि छंद या वृत्त  पिछले अंक में संस्कृत वृत्त या छंद 'अनुष्टुप' के सौंदर्य और रस का आनंद लेने के बाद हिंदी वर्णमाला के स्वरक्रम में आनेवाला छंद 'अमृतध्वनि' है। हालांकि 'छंदोमंजरी' के रचयिता संगीताचार्य मौला बख़्श घीसा खान ने अपनी अनुक्रमणिका में इसे 53 वां स्थान दिया है, किन्तु हम वर्णमाला के अनुक्रम का पालन करते हुए हम (राम-छंद-शाला के रसज्ञ जन) इसे दूसरे स्थान पर ले रहे हैं।   सर्वप्रथम छंदोमंजरी में 'अमृतध्वनि' के बारे में दी गयी निम्न जानकारियों से अवगत कराना चाहूंगा और इसी के साथ हम आगे बढ़ते जाएंगे।  ० ग्रंथ : संगीतानुसार छंदोमंजरी, ५३. अमृतध्वनि चरण अक्षर २२, त भ य ज स र न गा, मात्रा स्वरूप २२१ २११ १२२ १२१ ११२ २१२ १११ २ = ३२, राग : भैरव, ताल: खंड चौताल, मात्रा : विलंबकाळ.  (भैरव थाट/ राग भैरव - सम्पूर्ण सम्पूर्ण :   रि ध  कोमल, शेष शुद्ध)  ० स्वरलिपि:  ध-प-मग-रिगरि.म-ग-रिस-रिनिस. स-ग-मप-धमप. गम। ग-म-पध-पधनि.नि-स-रिस-रिनिस.ग-म-गरि-रिसनि.स-। रि-ग-रिस-रिसनि.ध-स-निध-पमग.स-नि-धप-पमग.गम। ध-प-मग-रिगरि.म-ग-रिस-रिनिस. स-ग-मपध-मप. गम। ० १.संस्कृत : 

संस्कृत छंद अनुष्टुप का हिंदी-उर्दू में प्रयोग

1. संस्कृत छंद अनुष्टुप का हिंदी-उर्दू में प्रयोग अनुष्टुप छन्द  संस्कृत काव्य में सर्वाधिक प्रयुक्त छन्द है। वेदों सहित रामायण, महाभारत तथा गीता के अधिकांश श्लोक अनुष्टुप छन्द में निबद्ध हैं।संस्कृत में अनुष्टुप वृत्त की लोकप्रियता और सरलता की तुल्य दृष्टि से हिन्दी में दोहा को समतुल्य कहा जा सकता है। आदिकवि बाल्मिकी द्वारा उच्चरित प्रथम श्लोक अनुष्टुप छन्द में ही है।  इसी प्रकार उज्जयिनी के राजा भर्तृहरि (विक्रमादित्य के अग्रज) के 'शतक-त्रयं' में कुल 37 अनुष्टुप वृत्त या छंद हैं। 'शतक-त्रयम्' के पहले शतक "नीतिशतक" का पहला मंगलाचरण श्लोक ही अनुष्टुप छंद/वृत्त में है। देखें- दिक्कलाद्य नवच्छिन्नानंतचिन्मात्रमूर्तये। स्वानुभूत्येक साराय नमः शान्ताय तेजसे। ।      ।।नी. श. भ. मंगलाचरण: प्रथम श्लोक।। 'शतक-त्रयम्' के भाष्यकार डॉ. ददन उपाध्याय ने 'नीति शतक' के मंगलाचरण की टीका करते हुए छंद या वृत्त की चर्चा भी की है और इसमें निबद्ध 'अनुष्टुप छंद' का लक्षणवृत्त भी प्रस्तुत किया है। अस्तु, अनुष्टुप वृत्त का गण-सूत्र या लक्षण-श्लोक इस प्

हिंदी ग़ज़ल

 एक हिन्दी ग़ज़ल (२२१ १२२२ ×२) ० जीवन के कठिन रस्ते हमने यूं संभाले हैं। कुछ देर ठहर कांटे पैरों के निकाले हैं। कुछ मान नये लेकर, देखा है गुणा करके, भोगे हुए सुख दुख के, परिणाम निराले हैं। पलकों में दबा, की हैं कुछ नर्म, कड़ी तल्खी, कुछ सूख गए लम्हे,  दिल में ही उबाले हैं।  किस ओर चढ़ाई है, फिसलन है कि खाई है,  हर मोड़ पे हिम्मत ने, ये प्रश्न उछाले हैं।  कुछ कह रहे गहरे हैं, कुछ कह रहे उथले हैं, अनुभव के सभी सागर, ख़ुद डूब खंगाले हैं।  @कुमार, ०८.०९.२१

ग़ज़ल आजकल

  ग़ज़ल आजकल हो गया काबुल पे कब्ज़ा फिर से तालीबान का पढ़ रहा है यह ख़बर इक शख़्स हिंदोस्तान का यह तलब की वहशतें हैं या हुकूमत का नशा गोलियों में भुन रहा है हौसला इन्सान का दहशतें हैं औरतों के जिस्म चीथे जाएंगे सर उछाला जायेगा अब तेग़ पर अफ़ग़ान का हर तरफ़ बंदूक गोले और बारूदी सुरंग जद में तोपों के खड़ा हर शख़्स अब इमरान का एक पलड़े मौत दूजी ओर बदतर ज़िंदगी देखिए क्या फ़ैसला हो वक़त पर मीजान का दीमकें मज़हब उसूलों दीन को चट कर गईं क्या ख़ुदा किरदार बन रह पाएगा बुन्यान का इम्तहां पर इम्तहां ही इस सदी के नाम हैं इक तरफ़ ईमां का पर्चा इक तरफ़ औसान का शब्दार्थ: क़ब्ज़ा : किसी वस्तु पर अधिकार, तेग़ : तलवार, अफ़्ग़ान : अफ़्ग़ानिस्तानी, काबुली, जद :   नोंक, निशाना, इमरान : जनसंख्या, आबादी, मीजान :  तराज़ू, योगफल, तौल का नतीज़ा, किरदार : चरित्र, पात्र, बुन्यान :  नींव, बुनियाद, ईमान  : धर्म पर दृढ़ विश्वास, आस्था, पर्चा : प्रश्न पत्र, औसान :  त्वरित बुद्धि, विवेक, विज्ञान, ० @कुमार ज़ाहिद, 17.08.2021,

पैमाना और परीक्षा

  पैमाना और परीक्षा जो शीशा जानकर तोड़ें तो पत्थर टूट जाते हैं, ये सुख ही हैं जो दुख में हाथ मलते हैं। धूप को धूप समझिए तो बदन जलते हैं। ये तीन पंक्तियों की कविता थी, जो लकड़ी के एक फुटिया पीले पैमाने पर नीले बॉल-पेन से उर्दू में लिखी हुई थी। यह पैमाना महाविद्यालय के प्राचार्य और परीक्षा-महा-अधीक्षक आचार्य मेघनाथ कन्नौजे के सामने गवाही के तौर पर मुझसे पढ़वाया जा रहा था। जैसे ही मैंने तीसरी पंक्ति पढ़ी, आसपास सेनापतियों की तरह खड़े प्राध्यापकों के मुंह से वाह वाह निकल पड़ा। आचार्य मेघनाद कन्नोजे जो हिंदी के विद्वान प्राध्यापक थे, मुस्कुराने लगे। अपनी  'यथानाम तथा गुण' गहरी और भारी मेघवाणी में उन्होंने पूछा :" क्या तुमने ही इस पैमाने पर ये पंक्तियां लिखीं? यह किस शायर का शेर है?" "जी मैंने ही परीक्षा में सारे उत्तर लिखने के बाद, आखिर के ख़ाली समय में बैठे-बैठे ऐसे ही बना दिया?" "पैमाने पर क्यों लिखा?" "कुछ और नहीं था सर लिखने के लिए।" "और यह पैमाना इनके पास कैसे आया?" अब 'इनके' की तरफ़ मैंने देखा। वह मेरा सहपाठी और गहरा दो

राष्ट्रीय वैराग्य-गीत

  एक राष्ट्रीय वैराग्य-गीत मत कर मेरा-मेरा, इक दिन- कुछ न रहेगा तेरा। चतुर लुटेरे ले जाएंगे, भैंसी सहित बछेरा। इक दिन, कुछ स्वर्ग-भूमि कश्मीर वणिक को, मिट्टी मोल निछावर।  हुए लेह-लदाख भी जैसे,  एंड़ी लगे महावर। दरक रहे हैं शिखर, बर्फ़ का उजड़ रहा है डेरा। इक दिन, कुछ राजकोष बनियों का होगा, राजमार्ग', नभ-पथ'' तक'''। अंटीलिया* से ट्रेनें उनकी, जाएंगी जन-पथ^ तक^^। सोने की चिड़िया° के पर°° पर°°°,उनका बने बसेरा। इक दिन, कुछ बहन-भाई*° मिलकर बदलेंगे, भारत की पहचान। लट्ठ, लठैत, लड़ाईवाला, मेरा देश महान। जनता घण्टा'° हो जाएगी, शासक क्रूर कसेरा^°। इक दिन, कुछ @कुमार, २९-३०-३१.०७.२१, ००००० शब्द शिविर /शब्दार्थ : राजमार्ग ' = सड़क सेवा, (रोड वेज़), नभ-पथ''= वायु मार्ग(एयर वेज़), उड्डयन साम्राज्य, हवाई सेवा, तक ''' = भी, सहित, ( जैसे उसने खेत, जेवर और घर तक गिरवी रख दिया। ) अंटीलिया : फैंटम आइलैंड (प्रेतात्मा द्वीप) के नाम से अटलांटिक सागर  में स्थित द्वीप का नाम है, जहां काल्पनिक कार्टून फैंटम के नायक फैंटम {भूतनाथ, (ऐसा प्रेत, जो जीवि

ग़ज़लिका

ग़ज़लिका दि. 05.07. 2021, विषम संख्यांक दिवस, सोमवार, (17 पद), (मात्रात्मक यति नियति 16, 10) 0 अंतर्जाली-युग मन का कुछ, हाल नहीं पाता।। वह गुल्लक में सुख का सिक्का, डाल नहीं पाता।। अपनी-अपनी थीं प्रवृत्तियां, हुईं काल-कवलित, किसी काल को मैं 'कालों का काल' नहीं पाता।। सीधे मुंह बातें करने का, समय नहीं हैं मित्र! वह पिछड़े, जो ख़ुद को इसमें,  ढाल नहीं पाता।। बच्चे उठकर खड़े हो गये, तनकर बड़े हुए, अब उनमें मैं पहले जैसी, चाल नहीं पाता।। सिर सहला दूं, पीठ ठोंक दूं, शाबाशी दे दूं, जिसे स्नेह से थपक सकूं वह गाल नहीं पाता। अपने क़द का पा चिढ़ जाते, कवि, नेता, विद्वान, जो ख़ुश हो, ऐसा माई का लाल नहीं पाता।। नाकों चने चबाकर पाई, है रूखी-सूखी, पल भर में गल जाये ऐसी, दाल नहीं पाता।। लूट-पाट करनेवालों के, घर में भरे पड़े, श्रमिक ज़िन्दगी-भर सोने का, थाल नहीं पाता।। साल-गिरह चुभती कांटे सी, दिल में सालों से , किसी साल को मन-माफ़िक मैं,  साल नहीं पाता।। राजभवन में राजनीति कर, पाऊँ ' पदम-सिरी', ऐसे ऊंचे धांसूं भ्रम मैं, पाल नहीं पाता।। क़लम और अभिव्यक्ति बनी हैं, जिस दिन

वंदे मातरम् : आज 27 जून है!

  वंदे मातरम्  : आज 27 जून है! भारतीय साहित्य और राजनीति के इतिहास में राय बहादुर बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का नाम भारतीय गणतंत्र के ध्वज के साथ गरिमापूर्वक फहरा रहा है। प्रत्येक राष्ट्रीय पर्व में सम्मानपूर्वक खड़े होकर हर भारतीय (?) उनका संस्कृत और बंगाली में विरचित राष्ट्रगीत 'वंदेमातरम' गाता है। यह राष्ट्र-गीत तब तक गाया जाता रहेगा जब तक प्रजातांत्रिक भारतीय गणराज्य बना रहेगा। लगभग प्रत्येक भारतीय नागरिक को भारत पर, भारत के राष्ट्र-गीत पर गर्व  है।  हम भारत के लोग, जो भारत के प्रजातांत्रिक गणराज्य के अधिकांशतः जन्मजात नागरिक हैं। 'अधिकांशतः जन्मजात नागरिक' कहने का अर्थ यह है कि जो 26 जनवरी 1950 को भारत के स्वतंत्र सार्वभौमिक गणराज्य बनने के बाद पैदा हुए और जन्म से ही यहां के नागरिक कहलाने लगे। 15 अगस्त 1947 के पहले तो सभी ब्रिटिश भारत के वासिंदे थे, रियाया थे, अवाम थे। ब्रिटिश भारत को चलाने में लगान या क़र्ज़ देने के अलावा उनका कोई उपयोग नहीं था। ऐसे ब्रिटिश-भारत में  २७ जून १८३८ को बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय   (বঙ্কিমচন্দ্র চট্টোপাধ্যায়) का जन्म उत्तरी चौबीस परगना के

एक_राष्ट्रीय_प्रेम_गीत

 एक_राष्ट्रीय_प्रेम_गीत  __________________ #ज़िन्दगी_और_मुहब्बत  (चित्र देखें फिर पढ़ें तो गहराई में उतर जाएंगे) 👍 बांटने मुहब्बत हम, गांव-गांव जाते हैं। चल कभी तेरे घर का, कार्यक्रम बनाते हैं।  नेवता नहीं लेते, हम कभी मुरीदों से।  बस पुकार सुनते ही, जा मिलें फ़रीदों से।  याद पांव खुजलाए, तब ही दौड़ जाते हैं।  मुश्किलों में अपने ही, काम आयें अपनों के।  खोल आशियां बैठे, हाट-हाट सपनों के।  दाम कुछ नहीं लेते, मुफ़्त बांट आते हैं।  मजहबों की दीवारें, ऊंच-नीच की खाई।  दूरियां बढ़ाने अब, इक नई वबा आई। आ कहीं मिलें जाकर, योजना बनाते हैं।  हैं डरे हुए सारे, घर हुए हैं छावनियां।  नूपुरें हुईं बंदी, लापता हैं लावनियां।  अब बिना मिले मित्रगण, दर से लौट जाते हैं।  दर्दनाक क़िस्से भी, रोज़गार बन जाते।  संसदें उछल पड़तीं, मंत्रिपद निकल आते।  हादसों की क़ीमत हो, अधिनियम ये लाते हैं। शोक पर गिरें आंसू, बाढ़ पर उड़ें आंखें।  आपदा प्रबंधन भी, खोलता नई शाखें। फिर जघन्य कृत्यों की, जांच भी कराते हैं।  @कुमार, १६.०६.२१, बुधवार।  सरल शब्दों के सरलार्थ : मुहब्बत مُحَبَّت (अरबी; संज्ञा, स्त्रीलिंग,): सामाजिकों का सामान

आज की ग़ज़ल

 आज की  ग़ज़ल  0 2122 2122 2122 212 बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़ फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन काफ़िया : ऊ स्वर  रदीफ़     : आ सके #0@ नीम के पेड़ों से भी चंदन की ख़ुशबू आ सके। दिल बड़ा करके अगर वो मेरे बाज़ू आ सके।।  हो रही है जंग सारी ज़र ज़मीनों के लिए  शांति करुणा प्रेम क़ायम हो अगर तू आ सके  क्यों उन्हीं लोगों के दस्तर-ख़्वान हैं मेवों भरे काश मुफ़लिस के कटोरों में भी काजू आ सके  राजधानी जाएंगी सद्भावना की गाडियां कोशिशें हों एक अफ़ज़ल एक घीसू आ सके  हो ज़रा इंसानियत सबके ज़मीरों को अता  देखकर बद-हालियाँ आंखों में आंसू आ सके                           @कुमार, १३/१४.०६.२१  #प्रयुक्त_शब्द : बाज़ू   بازُو    : बगल, बायीं या दायीं तरफ़,  ज़र      زَر     : स्वर्ण, धन, संपत्ति, सम्पदा      कायम قائم :  स्थिर स्थापित, मज़बूत दस्तर-ख़्वान دَسْتَرخوان  : भोजन लगाने के लिए बिछने वाला कपड़ा, भोजन की थाली रखने का चादर, अफ़ज़ल  اَفْضَل  : सबसे उत्कृष्ट, उत्तम, बेहतरीन, एक मुस्लिम नाम,  घीसू   : प्रेमचंद की कथा (कफ़न) का पात्र, एक पासी/दलित नाम,   ज़मीर ضَمیر  : विवेक, सही ग़लत को समझने की बुद्धि, अता  عَطا     : प्रद

रामरती का बायाँ पाँव और पुल पर खड़ा कवि :

  रामरती का बायाँ पाँव और पुल पर खड़ा कवि :    (संदर्भ : सुधांशु उपध्य्याय के दस नवगीत ) विशिष्ट वैचारिक संपन्नता के कवि सुधांशु जी के दस नवगीतों से गुजरते हुए उनके पत्रकार की समाज में फैली विद्रूपताओं पर गड़ी नज़रें हमें दिखाई देने लगती हैं। वे बने बनाये छंदों, बिंबों और रूपकों के शिकंजों से मुक्त होकर अपनी अलग लीक बनाते दिखते हैं। अपनी ही  इस मान्यता के साथ कि " समय को स्वर देने के लिए हर कविता अपना शिल्प और स्वाद स्वयं गढ़ती है। वह अपना एकांत खोने और सम्पर्क पाने के लिए छंद से बाहर आती है और नए छंद भी रचती है।" अपने पहले ही गीत में छंदों के उस इंद्रजाल पर प्रहार करते हुए दिखाई देते हैं जो पिछले कुछ दशकों में मूल मुद्दों से भटकाने वाले छंद आंदोलन के रूप में उभरा है। वे कहते हैं (1) बंधु! तुम तो छंद में, उलझे रहे हो, जिंदगी की उलझनों को छोड़कर। क्रांति कोई, महज इतने से नहीं होती, आस्तीनों को उलट कर- मोड़ कर! + एक मात्रा क्या गिरी कि.... गिर पड़ा ये आसमां हम मिलेंगे कैसे मुमकिन तुम कहांँ औ' हम कहांँ? उनकी बात यहीं ख़त्म नहीं होती। वे निष्कर्ष रूप में कहते कि पु

रचनाकारों के लिए अनिवार्य सूक्त

किसी भी रचना, गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, कविता, लेख आदि के लिए अनिवार्य नियामक सूक्त : ( *अनुरोध* : कृपया प्रथम दृष्टया पढ़कर न तो धार्मिक हो जाएं  न हंसने लगें।)  दोहा :  *स्नान, ध्यान, चिंतन, मनन, समिधा, वस्तु प्रबंध।*  *फलाहार, उपवास, व्रत, साधक के अनुबंध।*  शब्दार्थ : * स्नान * : अवगाहन, किसी विषय का डूबकर अध्ययन, स्नातक होने की दिशा में चेष्टाएँ।  * ध्यान * : एकाग्रता, अपने कर्त्तव्य के प्रति पूर्ण निष्ठा, आपने उद्देश्य की सतत स्मृति। * चिंतन * : अपनी, अपने परिवार की, अपने परिवेश, प्रान्त और देश की दशा दुर्दशा पर विचार, सतत निरीक्षण, समस्या से मुक्त होने/समाधान की तलाश। * मनन * : किसी भी समस्या की जड़ तक पहुंचने और उसके उन्मूलन का अनुसंधान, अब तक उस विषय में हुए अनुसंधानों का अनुशीलन।  * समिधा * : जिस विषय /विधा के पूरा करने का मानसिक संकल्प लिया है, उसमें सहायक समस्त सामग्रियों के चयन- संचयन  का ईमानदार प्रयास, शिल्प, भाषा,  शब्द सम्पदा, शब्द शक्ति, रस ,छंद, अलंकार, सम्बन्धित विधा या विषय में प्रसिद्ध कृतियों का सिंहावलोकन।  * वस्तु-प्रबंध * : उपयोग में आनेवाली सहायक सामग्री, तथ्यात्मक अनुभ

अकेला चल रे उर्फ 'एकला चॅलो रे'

किसी भी  समूह में उपस्थित साहित्य  के समस्त गुणी जनों को  इस नवगीत का यह शीर्षक चौंका सकता है, क्योंकि मनुष्य समूह में रहता है और साहित्य का सरोकार भी सहित से है, जिससे यह शब्द बना साहित्य । वह अकेला चलने वाली बात कैसे कर सकता है?  फिर भी  'चल अकेला' शीर्षक का यह गीत अवश्य पढ़ें। इसलिए कि इसमें वर्तमान समय की बाह्य और आंतरिक  भयावह स्थितियों का प्रासंगिक चित्रण है। पहले गीत पढ़ें फिर आगे की बात करेंगे।  0 नवगीत : अकेला चल रे। * यदि सुनकर करुण पुकार, न आये कोई तेरे पास साहसी!  रख खुद पर विश्वास,  अकेला चल रे,  चल रे, अकेला चल रे, चल रे, अकेला चल रे  यदि कोई करे ना बात, फेरकर मुंह बैठे। जब भय की कुंडी मार, घरों में ही पैठे। सजग उठ, निज प्राणों को खोल, मुखर हो, मन की पीड़ा बोल,  उद्यमी!  गा, होकर बिंदास, अकेला चल रे,  चल रे अकेला चल रे, चल रे अकेला चल रे  यदि सब हो जाएं दूर, पथिक पथ से तेरे। यदि एकाकी पा तुझे, कठिन बाधा घेरे।  चुभें, जो कांटे, सभी निकाल,  रक्त-रंजित पग, पुनः संभाल, भुलाकर, तन मन के संत्रास, अकेला चल रे। चल रे, अकेला चल रे, चल रे, अकेला चल रे  यदि रखे न कोई दीप,