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नए दिन की बधाई

एक कविता *# किंतु ..* फैली हुई धूप बहती हुई हवा हिलती हुई डालियां खिले हुए रंग बिरंगे फूल मैं सबको नए दिन की  बधाई देना चाहता हूं किंतु... प्रातः भ्रमण में निकले बुज़ुर्ग दौड़ते हुए युवा खेलते हुए बच्चे भागती हुई भीड़ आँचल को कमर में दबोचकर कचरा फेंकने निकली गृहणियां मैं सबको नए दिन की  बधाई देना चाहता हूं किंतु... काम पर निकले मज़दूर ऑटो दौड़ाते ऑटोचालक अल्पसंख्यक लुप्त प्राय  साईकल रिक्शा के पैडलों पर पूरी ताक़त झौंकते रिक्शा-चालकों विश्व के सबसे धनी  किंतु अ-दानी के देश में भीख मांगने निकले बच्चे, बूढ़े, औरतें और निराश पुरुष भिखारियों को मैं नए दिन की  बधाई देना चाहता हूं किंतु... किसी के पास फुर्सत नहीं है न इतनी जगह जहां वे इस बधाई जैसे मुफ़्त में बांटे गए पम्पलेट को रख सके फिर भी  ऊपर की सूची में से  आप जो भी हो मैं आपको भी नए दिन की  बधाई देना चाहता हूं किंतु... आप रखते हैं क्या याद ऐसी बधाइयां इनकी क़ीमत लगाते हैं क्या आपके जीवन के ख़ालीपन से लबालब भरे दिल में शेष है क्या कोई जगह? फिर भी.... मैं सबको नए दिन की  बधाई देना चाहता हूं हां, फायदा क्...
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एक नवगीत: चिट्ठी आई है।

  चिट्ठी आई है। गांवों में सब हरा भरा है चिट्ठी आयी है। इस सबूत के लिए एक  फ़ोटो चिपकायी है। ज़ीने के सर से ऊपर तक ऊंचा हुआ पपीता। पके हुए फल पायदान से तोडूं, हुआ सुभीता। उसी पपीते ने कद्दू की बेल चढ़ाई है। इस सबूत के लिए.... नींबू के झरबरे पेड़ पर सेमी की मालाएं। तोड़ रहीं हैं जात-पांत की सड़ी गली सीमाएं। सदा साग में स्वाद अनोखा, भरे खटाई है। इस सबूत के लिए.... नन्हे लाल भेजरे ऊपर, तले चने के बिरवे। अमरूदों पर झूल रहे हैं हरे करेले कड़वे। उधर तुअर के बीच घनी,  मैथी छ्तराई है। इस सबूत के लिए.... गांवों में सब हरा भरा है चिट्ठी आयी है।  इस सबूत के लिए एक  फ़ोटो चिपकायी है।         @ कुमार, १६.१०.२४, एकादशी, अपरान्ह १४.३५

कृत्रिम-बौद्धिकता (A.I.)की भागमभाग में वास्तविकता (Reality) के दो जीवंत पल

  कृत्रिम-बौद्धिकता (A.I.)की भागमभाग में वास्तविकता (Reality) के दो जीवंत पल     दीपावली मिलन की आकुल अधीरता किसी न किसी कारण से विवशता के दड़बे में बंधी पड़ी थी। बंधन में कौन नहीं है? कोई नौकरी के बंधन में है, कोई व्यवसाय के? किसी की कलाई में पढ़ाई की हथकड़ी है तो किसी को बिगड़ते मौसम ने दबोच रखा है। गोवर्धन-संक्रांति और भाई-दूज के जाने के बाद परिवार विदाई के रोमनामचे लिखने में लगा हुआ था। कोई पल ऐसा नहीं था जिसे सांस लेने की फुर्सत हो।      अंततः वही काम आया जिसे निरर्थक बदनाम किया जाता रहा है। शनिश्चर यानी शनिवार अथवा संक्षिप्त में शनि। जो विज्ञानवादी हैं , वे तो चलो, वाम-मार्गी हैं, उनकी बात छोड़ दें तो हम सकारात्मक दृष्टिकोण रखनेवाले भद्रजनों की ही बात कर लें; जो ये कहते हैं कि शनि किसी को हानि नहीं पहुंचाता, किसी की बाधा नहीं बनता, वह तो तुम्हारे हौसले और धैर्य की परीक्षा लेता है। यानी चित (head) भी उसकी और पट (tail) भी उसी का।         रविवार को हर व्यक्ति कहीं न कहीं जानेवाला होता है या कोई न कोई हिलगन्ट/फसौअल/मज़बूरी आ ही जाती है। ...

कबीर के निंदक और साबुन की शोध-गाथा

कबीर के निंदक और साबुन की शोध-गाथा ० हम निरन्तर जटिल से जटिलतम समाज में परिवर्तित होते रहते हैं। यह हमें वरदान भी है और अभिशाप भी। हम अमेरिका के भी दोस्त हैं और रूस के भी। सऊदी अरब से भी हमारे अच्छे संबंध हैं और ग्रेट ब्रिटेन से भी। हम तीसरे विश्व के सबसे विश्वसनीय राष्ट्र हैं जिसके अपने ही अंदर से निकले पाकिस्तान से अच्छे संबंध नहीं हैं। जैसे रूस के सम्बंध उसकी कोख से जन्मे यूक्रेन से नहीं हैं। जैसे फिलिस्तीन की अपनी पसली गाज़ा से रिश्ते अच्छे नहीं हैं। यह हमारे विकास का परिणाम है। ज्यों ज्यों हम विकसित होते जाते हैं वैसे वैसे हम दूसरे का अस्तित्व और प्रगति बर्दास्त नहीं कर पाते। दूसरे की प्रगति से हमारा कोई नुकसान नहीं है, लेकिन फिर भी हम सहन नहीं कर पा रहे। यह हमारा अंदरूनी मामला है। बाहर तो हमारा विकास दिखाई दे रहा है, मगर अंदर की जंग, अंदर की रस्ट (rust) बढ़ी जा रही है। हमने आभासी तौर पर मान लिया है कि हम बहुत विद्वान, बहुत ज्ञानवान हो गए हैं, लेकिन एक पुरानी परखी के  आईने में देखते ही हमारी पोल खुल जाती है। अतीत कहता है कि 'या विद्या सा मुक्तये', अर्थात वही विद्या है जो ...

अदम गोंडवी

 'धरती_की_सतह_पर'  खड़ा ज़मीनी कवि : अदम_गोंडवी आज, 22 अक्टूबर को मानवता के दर्द और माटी की बू-बास के कवि अदम गोंडवी की जयंती है। उनके पहले हिंदी ग़ज़ल संग्रह 'धरती की सतह पर' से उनकी एक ग़ज़ल उन्हीं को समर्पित इन शब्दों के साथ-         साहित्य और वैचारिक विमर्शों के पाखंडों और वादों की संकीर्णता पर उनकी पैनी तुतारी भी बेमुरव्वत चली। एक साहित्यिक के दायित्वबोध के अंतर्गत वे मानवता के दर्द, माटी की बू और कालखंड के इतिहास को पाठ्यक्रम के रूप में नियोजित करते रहे। उन्होंने उपेक्षितों और दलितों की करुणा के साथ मुद्राराक्षस और रैदास के साथ स्वर से स्वर मिलाकर लिखने को कवि की निष्ठा और वैचारिक ईमानदारी को मानदंड बनाया। प्रेमचंद और ओशो के अंतर को स्पष्ट करते हुए परम्परा पोषकों और परम्परा भंजकों के बीच की विभाजक रेखा को  चिंहित किया। लगे हाथ उन्होंने कामी और भोगी कवियों की भी खिंचाई की है और उनके द्वारा मांसल-प्रेम को शाश्वत सत्य बताकर, श्रृंगार की कविताओं को सार्थक कहकर, पाठकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व की उपेक्षाकर, मूल्यहीन लोकप्रियता के पीछे भागने के भोगवाद पर ...

एक हिंदुस्तानी गीत

  एक  हिंदुस्तानी गीत जिसकी लाठी भैंस उसी की, है ज़मीन बलवान की। देखी जाती नहीं है मुझसे, हालत हिंदुस्तान की। मंचों पर जो चल निकले वो, कविता चोरी हो जाए। और पकड़ में आ जाए तो सीनाज़ोरी हो जाए।। आज अभी की बात नहीं यह सदियों से होता आया। हमने कविता की लाशों पर कवियों को रोता पाया।। गोद नहीं लेता है कोई, गुप्त अपहरण करता है। दुल्हन को कुछ पता न चलता कौन संवरण करता है।। ऐसे चलती है क्या दुनिया? यही तुम्हारी निष्ठा है? यही कीर्ति कहलाती है क्या? यह सम्मान प्रतिष्ठा है? चिंता नहीं किसी को कोई, अपने स्वाभिमान की। देखी जाती नहीं है मुझसे, हालत हिंदुस्तान की। रूप रंग संभ्रांत, शिष्ट है, कोमल मीठी वाणी है। कौन देखकर नहीं कहेगा सम्मुख सज्जन-प्राणी है। आंख मूंदकर उस पर किसका, नहीं भरोसा हो जाए। वही  आंख का काजल चोरी करके चंपत हो जाए। चेहरा पढ़ लेने का दावा करने वाले हार गए। माथे लिखा नहीं पढ़ पाए, पढ़े ग्रंथ बेकार गए। जीवन एक सराय है लेकिन अनुभव यही बताता है। सच्चा राही वही जो भोजन, स्वयं पकाकर खाता है। क्योंकि हमें ही रक्षा करनी, है अपने सामान की। देखी जाती नहीं है मुझसे, हालत हिंदु...

महाप्राण निराला

  महाप्राण निराला     हिंदी साहित्य के काल-विभाजन में छायावाद एक युगीन पड़ाव है। इस युग की प्रतिभा चतुष्टयी में आयु-क्रम से प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी ये चारों अपनी अपनी नितांत भिन्न प्रवृत्तियों के लिए जाने जाते हैं। प्रसाद अपने इतिहास बोध के लिए, निराला अपने प्रखर यथार्थ बोध के लिए, पंत अपने प्रकृति प्रेम और महादेवी करुणा की अभिव्यक्ति के लिये।            प्रतिभा का द्रवीकरण नहीं होता इसलिए उनका यौगिक नहीं बनता। एक मिश्रण की तरह किसी काल-पात्र में रहकर भी अपने वस्तु-स्वरूप, विचार-रंग और ध्येय-आस्वाद के कारण वे अलग से पहचान में आ जाती हैं।           आज की तिथि/तारीख 15 अक्टूबर को निराला जी की मृत्यु हुई थी। यह एक प्रसंग हो सकता है कि उनकी याद की जाए, उनकी रचनाओं की चर्चा की जाए। लेकिन जिनकी प्रतिभा, लेखन और वैचारिकी ने अपने युग में रचनात्मक क्रांति की है, वे क्या किसी दिन, दिनांक या प्रसंग की प्रतीक्षा करते हैं? न जाने कब कब और किस किस प्रसंग में वे याद आते...