अंतर्ध्वनि
शब्दों का ध्वन्यार्थ-विचलन और सम्वेदनाओं का संश्लेषण शब्दों की अपनी अंतर्ध्वनि होती है। श्रुतियों के गव्हर में उसकी अनुगूंज यथावत भी हो सकती है और तथागत भी। तथागत अर्थात जो ग्राही जैसा है, उसी के अनुरूप। स्मृतियों की रंगभूमि तक आते आते यह अनुगूंज जिस प्रतिध्वनि में बदल जाती है, वह अन्तरानुभूति से विरेचित होकर अपना मूल स्वरूप खो भी सकती है। इसलिए प्रायः अच्छी स्मृति और बुरी स्मृति की चर्चाएं होती रहती हैं। श्रुतियों और स्मृतियों का चरित्र शब्दों की अंतर्ध्वनि में शताब्दियों से विचलन के ही उत्पाद देता रहा है। अंतर्बोध और युगबोध ने शब्दों को श्रुतियों और स्मृतियों के खलबट्टे में कूटकर बड़े उपद्रव किये हैं। जिन्हें श्रुतियों और स्मृतियों का संस्करण कहा जाता है वह वास्तव में अपने मूल का विचलन ही है। एक बहुचर्चित शब्द है- यथार्थ, उसका अपना ही एक अर्थ है। वह वस्तुगत है, अन्य शब्दों में वास्तविक है। साधारण लोक में इसका अर्थ सत्य के पर्यायवाची के रूप में दैनिक और भौतिक हो गया है। अर्थ-साम्य की अवस्था या स्थिति में जब अनुभूतियां गुंजित होती हैं तो शब्द का समर्थन-मूल्य 'यथार्थ है, यथार्थ है' की अनुगूंज में परिवर्तित हो जाता है। किंतु यह यथार्थ क्या वास्तव में यथावत है? यथार्थ भी अपने स्थान पर ३६० डिग्री घूमकर आया हुआ होता है तब इस घूर्णन में उसके क्षरित अथवा समृद्ध होने की संभावना को कैसे अस्वीकृत किया जा सकता है। दूसरा शब्द है शाश्वत या सनातन (सनायतन)। यह शब्द-ब्रह्म की कल्पना करनेवाले लोगों का निर्मित शब्द है। शब्द को ब्रह्म कहनेवालों ने ब्रह्म शब्द का अनुसंधान और आविष्कार शाश्वत शब्द के टेका या तकिये के रूप में किया। फिर इसे अलौकिक बताकर न केवल लोकार्पित किया बल्कि बलपूर्वक उसे लौकिक अर्थात लोकमान्य बनाने का तंत्रगत अभियान भी चलाया। जो कृत्रिम है वह शाश्वत कैसे हो सकता है। शब्द प्राकृतिक या नैसर्गिक नहीं है, वह निर्मित अतः कृत्रिम है। ब्रह्म भी एक शब्द है जिसे आदि-अनादि कहकर शाश्वत भी कहा जाता है। भाषा के आविष्कार के कारण आनेवाला कोई भी शब्द शाश्वत नहीं है। भाषा का एक प्रयोजन है, शब्द प्रायोजित हैं। इस प्रयोजन मूलक विश्व में कुछ भी शाश्वत और सनातन नहीं है। यह शब्द अभियान-जनित है, जिसकी प्रतिष्ठा और स्थापना के लिए बार-बार संयोजन और आयोजन होते रहते हैं। यह भी एक लोकांकी है, नौटंकी की एक शैली है, इसमें जिसे जो लोग अलौकिक कहते हैं, उसे ही दण्डतंत्र के बल पर लौकिक बनाने पर तुले हुए हैं? यह बली-चेष्टा (वस्तुतः कुचेष्टा) ही यथार्थ शब्द का निहितार्थ है। किसी योजना के अंतर्गत होने वाली यह चेष्टा भी शब्द की पोल खोलती है। भाषा के निहितार्थी आविष्कार के काल से ही शब्द अनुभूतियों की यात्रा करता हुआ अपने स्वरूप को परिवर्तित किये बिना अलग-अलग अर्थों में जिये चले आ रहा है। अर्थ एक प्रकार का रस है। यह रस-वंशी है। एक ही शब्द अपने रसानुकूल आत्म-तत्व अर्थात रस में भीगकर सानुकूल अर्थ अभिव्यंजित करने लगता है। अनुभूतियां इसी रसात्मक धाराओं में डूबता उतराता हुआ अभिव्यक्ति के विभन्न तटों तक पहुंचता है। इसे शब्द की पहुंच कहना भूल ही है, वास्तव में शब्द की काया में प्रविष्ट होकर रसवंशी अर्थ ने यह यात्रा की है। वस्तुतः यह अर्थ-यात्रा है। शब्द तो टट्टू है, वह कहीं यात्रा नहीं करता, अर्थ ही शहसवार है, अश्वारोही है, जो उस पर चढ़कर यात्रा करता है। मज़ेदार बात यह है कि यात्रा करता हुआ शब्द ही यात्री नहीं है। वह साधन-मात्र है। 'काव्य की आत्मा रस है' यह कहनेवालों ने इस रस-यात्रा में, अश्वारोहियों के इस अर्थवादी जुलूस में निश्चित रूप से भाग लिया होगा। निष्कर्षतः, काव्य-यात्रा शब्द-यात्रा से अधिक रस-यात्रा है। काव्य का अर्थ यहां गद्य और पद्य दोनों है। आशय की आसक्ति तो अभिव्यक्ति से है। इस रस-सिक्त अभिव्यक्ति का अपना श्रुति-संसार होता है और वह अपना स्मृति संसार रचता है। इसी स्मृति संसार में एक ही शब्द से अनेक चिपचिपे रस निकलते हैं जो स्मृति में दृढ़ता से चिपक जाते हैं। शब्द में रस-निर्माण मधुमखियों की तरह श्रुतियों के छत्ते में ही होता है, वहीं से रसलिप्त होकर वह स्मृति के कोटर में चिपक जाता है और रसानुकूल धारणा को जन्म देता है। कई पीढियां इस धारणा-कुण्ड में डूबी रहकर गुज़र जाती हैं। एक शब्द है शिरोधार्य। इसका वस्तुगत अर्थ है सिर पर धारण किया हुआ। सिर पर धारण यह वस्तु क्या है? कोई गठरी है, कोई बोझ है, कोई भरा हुआ या ख़ाली घड़ा है, पानी भरा हुआ है कि घी भरा है, अमृतघट तो गपोड़ियों का घड़ा है जो केवल दर्शनशास्त्र में संभव है, लौकिक लोगों के लिए वह व्यर्थ है। इस घड़े में दिशाबोध भी है और द्रव्य बोध भी है। ख़ाली घड़ा है तो एक बार जाने का बोध होता है कि पानी लेने पनघट जा रहा है। दूसरी बार ख़ाली यह दिशाबोध देता है कि वस्तु बेचकर घर लौट रहा है। ख़ाली घड़ा भी मात्र ख़ालीपन का बोध नहीं कराता। वह भी करने जाने य्या कर गुज़रने का बोध है, प्रतीक है। ख़ाली दिमाग़ को शैतान का घर कहनेवाले दिमाग़ के नकारा होने को क्यों स्वीकार करते हैं, यह विचारणीय है। हम शिरोधार्य की बात कर रहे थे। सिर पर घड़ा के बाद गठरी की बात थी और बोझ की भी। गठरी भी यात्रा का पाथेय हो सकती है। मूल्यवान वस्तु का पुलिंदा हो सकती है जिसे बेचने जाने या खरीदकर आने का बोध हो। किसी प्रिय के पास जाने पर यही मूल्यवान गठरी हल्की लगेगी और पलायन या विस्थापन में यह बोझ लग सकती है। प्रिय बोझ नहीं होते, अप्रिय बोझ होते हैं। अभाव में जिम्मेदारियों को बोझ समझना या बताना भी समय ने देखा है। शब्द के हाथ में कुछ नहीं है, स्थान और अवस्थाएं उसे अर्थ दे रही हैं। शिरोधार्य का एक अर्थ स्वीकार्य भी होता। कोई वस्तु भी स्वीकार करने योग्य होती है। कोई फल या पुरस्कार आप स्वीकार करेंगे तो सिर पर नहीं लेंगे, हाथों में लेंगे और संस्कार या सम्मानवश उसे सर से माथे से मात्र स्पर्श करेंगे और 'शिरोधार्य है'। यह कहकर भी वस्तु रहेगी हाथ में ही। सम्मान ही सर पर चढ़ जाएगा। चूंकि वह वस्तु नहीं है तो दिखेगा भी नहीं। तब वह हावभाव में दिखेगा। भाषा में दिखेगा। वहां फिर शब्द-भाषा अवकाश ले लेगी और कायिक भाषा स्थानापन्न हो जाएगी। अंग्रेजीवाली आधुनिक भाषा-पीढ़ी इस स्पेशल बॉडी लैंग्वेज से मन के भाव समझ जाती है। क्रमशः
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