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Showing posts from June, 2009

आग लगी आकाश में

और बिन पानी सब सून आकाश में सूखे की संभावनाएं ,बेपानी बादल और आग उगलता सूरज ,आखिर किस असंतोष को प्रदर्शित कर रहे हैं। बिजली बेमियादी और बेमुद्दत हो गई है। दिन में केवल तीन चार घंटे और वह भी किश्तों में । कभी एक घंटे, कभी पंद्रह मिनट ,कभी दो मिनट भी नहीं। इन्वर्टर पूरी खुराक़ के अभाव में चीखने लगे हैं। उनकी प्लेटों पर ‘खट’ जमने लगी है। ‘खट’ को थोड़ी देर के लिए खटास ही मान लें। बिजली का काम करनेवाला कम पढ़ालिखा लड़का उसका केमिकल नाम नहीं जानता । हम जानते हैं तो क्या कर लेंगे। पानी बदलकर एसिड डालकर तो उसे ही धोना है। हम उसी पर निर्भर हैं। नगरपालिका ने नोटिस पर दस्तखत ले लिए हैं कि अब कटौती को बढ़ाकर एक दिन के आड़ में पानी देंगे। पानी का भंडारण भी सूख रहा है। पानी ही नहीं हैं। आसमान सूना ,जमीन सूखी ,बिजली गायब ..... हम जो अब तक आदी हो गए थे बिजली के बहुआयामी उपयोगों के और प्राकृतिक आबोहवा से दूर हो गए थे , प्रकृति की तमाम सहजावस्था के नज़दीक आ गए हैं। टीवी-कम्प्यूटर ने हमें बांध लिया था और अपनों के साथ दो घड़ी बैठ पाने के लिए हमारे पास समय नही था । सूखे ने जैसे उन कंुभलाए हुए संबंधों और भावन

आगरा बाज़ार की वह रंगीन पतंग:

यानी ‘‘ हबीब तनवीर ‘‘ 1972-73 की वह एक गुलाबी शाम थी जो अपने रूमानी अहसास को सीधे मेरे जिस्म के साथ जोड़कर चल रही थी। ठीक गाय के उस बछड़े की तरह जो जानबूझकर मां के जिस्म से टिककर घास में मुंह चलाने की मुहिम ज़ारी रखता है। मैंने इस शीतल अहसास को स्वेटर से रोकने कभी कोशिश भी नहीं की। जहां मेरे कैशौर्य में ठंड को पीने की मस्तीभरी शक्ति मौज़ूद थी वहीं आंखों में सारे विश्व के कौतुहल को जान लेने की जिज्ञासा लालायित थी। तभी स्टेट स्कूल के ग्राउंड में आगरा बाज़ार के प्रदर्षन की जानकारी मुझे मिली। रात होते ही मैं रंगप्रेमी दर्शकों के बीच में मैं उपस्थित था। बल्कि और पहले से। दो ट्रकों के डालों (कैरेज ट्राली) को जोड़कर स्टेज बनाने के रंगप्रबंधन को मैंने देखा ,जाना और सीखा। दोनों कैबिनों को अलग अलग तरीकें से अटारियों ,छज्जों और छतों में तब्दील किया गया था। दोनों ट्रकों के डालों को बाज़ार का विस्तार और विविधता प्रदान की गई। रात होते ही जब नाटक शुरु हुआ ,वहां आगरा बाज़ार के पतंग फ़रोश , खोंमचेवाले ,बाजीगर ,मदारी ,चनाज़ोर ...जाने कितने विभिन्न रंग-व्यापारों ने गतिशीलता भर दी। यह निर्देशक हबीब तनवीर के अन

बहुत दर्द जागे तो .......

न चिल्लाऊं ,चीखूं ,न दुखड़े सुनाऊं । बहुत दर्द जागे तो चुपके से गाऊं ।। जहां भी मिले कथनी करनी में अंतर , वहां प्यार के मैं उड़ाता कबूतर । जहां विषधरों से नहीं भूमि ख़ाली , मैं निकला लिए हाथ में दूध प्याली । जो काटें मुझे ,उनको अमृत पिलाऊं । बहुत दर्द जागे तो चुपके से गाऊं ।। ये हिंसा ,ये बंटवारे ,धरती गगन के , ये इतिहास हैं ,आदमी की जलन के । पुकारोगे किसको ,सभी अंधे बहरे ! मुखौटों में सबके छुपे अस्ल चेहरे । नशा सबको मीठा है ,किसको जगाऊं ? बहुत दर्द जागे तो चुपके से गाऊं । पुकारूं चलो ऐसी दुनिया बसाएं , जहां मिलके झूमें ,जहां मिलके गाएं । न मंदिर ,न मस्ज़िद ,न मठ हों ,न गिरजे , जहां शुद्ध मन हो ,वो नव-विश्व सिरजंे । जहां आके मैं सारे दुख भूल जाऊं । बहुत दर्द जागे तो चुपके से गाऊं ।। 13092000

मैं क्या जानूं ?

नए वक्त की नयी रवायत , मैं क्या जानूं ? नए अदब आदाब अदावत , मैं क्या जानूं ? चेहरों का साहित्य गूढ़ लिपियोंवाला है , आंखों की अनबूझ इबारत मैं क्या जानूं ? इस नकारखाने में हैं क़ानून ही ढलते , है संसद या सिर्फ इमारत , मैं क्या जानूं ? दंगों और फ़सादों में ज़ब्तोखामोशी , मज़हब में क्यों घुसी सियासत ,मैं क्या जानूं ? सीधे-सादे हर सवाल के टेढ़े उत्तर , क्यों विकृत हो गई ज़हानत , मैं क्या जानूं ? क्यों प्रपंच कुत्साएं हर पल हंसती रहतीं , क्यों निष्ठा को मिले नदामत ,मैं क्या जानूं ? कष्ट कसौटी ,सुख का सोना घिसा जा रहा , यह कैसी बेमेल शरारत , मैं क्या जानूं ? 050509/060509.