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Showing posts from March, 2021

बिना शीर्षक

 छील रहे कंधे दीवारों के अंदर का खालीपन छैनी हथोड़ा है।  सुब्ह फिर दराती सी आयी है हैं उसके हाथों में अंकुड़े सवालों के। खींच रही है सबकी पीठों से भरे हुए बोरे सब पिछले उजालों के।  भगदड़ में दहशत धकेली है राहत के हर पल को छेड़ा, झंझोड़ा है।  पढ़े लिखे होने के दम्भों को, खुलेआम नोंच रही नथुने के बालों सा।  खुजलाती घूम रही औरों को, अपनी ही कुंठा के टीस रहे छालों सा।  क्रांति-भ्रांत अधकचरी पगलट ने अपने ही फोड़ों को खुलकर नकोड़ा है।  सपनीली आंखें अपराधी हैं, बाज़ों ने चिड़ियों पर बंदिश लगाई है।  घोंसलों के अंदर उड़ानें हों सांपों ने पंखों पर उंगली उठाई है।  चौकड़ियाँ वर्जित हैं जंगल में शेरों की नज़रों में हर हिरण भगोड़ा है। @कुमार, 

कोई रचना मौलिक नहीं (?)

अरस्तू ने अपने अनुकरण के सिद्धांत   में कहा है कि कोई भी काव्य या कलाकृति, रचना या चित्र, गीत या ग़ज़ल कभी मौलिक रचना नहीं होती, उसमें कहीं न कहीं अनुकरण ही होता है।   कुछ दार्शनिक कहते हैं कि प्रकृति में समस्त कृतियां पूर्वात्य हैं। कलाकार जब भी कोई शिल्प गढ़ता है तो वह मात्र धूल अलग करता है। भारत में भी जिन्हें सांस्कृतिक कवि या कलाकार कहा जाता है उनकी काव्य-कृति या चित्र या शिल्प भारतीय पुराणों में वर्णित है। गीता को ऐसा ग्रंथ माना जाता है जो मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं का मूल स्रोत है। इसी प्रसंग में कालिदास उज्जयिनी के जिस राजदरबार के नवरत्न थे वह राजा भर्तृहरि का ही दरबार था। भर्तृहरि के छोटे भाई  विक्रमादित्य  के  राजबार के कालिदास सहित अन्य नौ रत्न थे। स्वयं भर्तृहरि संस्कृत के समर्थ कवि थे। उन्होंने शतक त्रय के ‘नीतिशतक’  में नीचे लिखा प्रसिद्ध और ऐतिहासिक मुक्तक रचा जो प्रकारांतर से पश्चातवर्ती कवियों की प्रेरणा बनता रहा। वह श्लोक यह रहा... यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः। अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिदन्या, धिक्तां च तं च मदनं च इमां च मां