Skip to main content

Posts

Showing posts from June, 2021

वंदे मातरम् : आज 27 जून है!

  वंदे मातरम्  : आज 27 जून है! भारतीय साहित्य और राजनीति के इतिहास में राय बहादुर बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का नाम भारतीय गणतंत्र के ध्वज के साथ गरिमापूर्वक फहरा रहा है। प्रत्येक राष्ट्रीय पर्व में सम्मानपूर्वक खड़े होकर हर भारतीय (?) उनका संस्कृत और बंगाली में विरचित राष्ट्रगीत 'वंदेमातरम' गाता है। यह राष्ट्र-गीत तब तक गाया जाता रहेगा जब तक प्रजातांत्रिक भारतीय गणराज्य बना रहेगा। लगभग प्रत्येक भारतीय नागरिक को भारत पर, भारत के राष्ट्र-गीत पर गर्व  है।  हम भारत के लोग, जो भारत के प्रजातांत्रिक गणराज्य के अधिकांशतः जन्मजात नागरिक हैं। 'अधिकांशतः जन्मजात नागरिक' कहने का अर्थ यह है कि जो 26 जनवरी 1950 को भारत के स्वतंत्र सार्वभौमिक गणराज्य बनने के बाद पैदा हुए और जन्म से ही यहां के नागरिक कहलाने लगे। 15 अगस्त 1947 के पहले तो सभी ब्रिटिश भारत के वासिंदे थे, रियाया थे, अवाम थे। ब्रिटिश भारत को चलाने में लगान या क़र्ज़ देने के अलावा उनका कोई उपयोग नहीं था। ऐसे ब्रिटिश-भारत में  २७ जून १८३८ को बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय   (বঙ্কিমচন্দ্র চট্টোপাধ্যায়) का जन्म उत्तरी चौबीस परगना के

एक_राष्ट्रीय_प्रेम_गीत

 एक_राष्ट्रीय_प्रेम_गीत  __________________ #ज़िन्दगी_और_मुहब्बत  (चित्र देखें फिर पढ़ें तो गहराई में उतर जाएंगे) 👍 बांटने मुहब्बत हम, गांव-गांव जाते हैं। चल कभी तेरे घर का, कार्यक्रम बनाते हैं।  नेवता नहीं लेते, हम कभी मुरीदों से।  बस पुकार सुनते ही, जा मिलें फ़रीदों से।  याद पांव खुजलाए, तब ही दौड़ जाते हैं।  मुश्किलों में अपने ही, काम आयें अपनों के।  खोल आशियां बैठे, हाट-हाट सपनों के।  दाम कुछ नहीं लेते, मुफ़्त बांट आते हैं।  मजहबों की दीवारें, ऊंच-नीच की खाई।  दूरियां बढ़ाने अब, इक नई वबा आई। आ कहीं मिलें जाकर, योजना बनाते हैं।  हैं डरे हुए सारे, घर हुए हैं छावनियां।  नूपुरें हुईं बंदी, लापता हैं लावनियां।  अब बिना मिले मित्रगण, दर से लौट जाते हैं।  दर्दनाक क़िस्से भी, रोज़गार बन जाते।  संसदें उछल पड़तीं, मंत्रिपद निकल आते।  हादसों की क़ीमत हो, अधिनियम ये लाते हैं। शोक पर गिरें आंसू, बाढ़ पर उड़ें आंखें।  आपदा प्रबंधन भी, खोलता नई शाखें। फिर जघन्य कृत्यों की, जांच भी कराते हैं।  @कुमार, १६.०६.२१, बुधवार।  सरल शब्दों के सरलार्थ : मुहब्बत مُحَبَّت (अरबी; संज्ञा, स्त्रीलिंग,): सामाजिकों का सामान

आज की ग़ज़ल

 आज की  ग़ज़ल  0 2122 2122 2122 212 बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़ फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन काफ़िया : ऊ स्वर  रदीफ़     : आ सके #0@ नीम के पेड़ों से भी चंदन की ख़ुशबू आ सके। दिल बड़ा करके अगर वो मेरे बाज़ू आ सके।।  हो रही है जंग सारी ज़र ज़मीनों के लिए  शांति करुणा प्रेम क़ायम हो अगर तू आ सके  क्यों उन्हीं लोगों के दस्तर-ख़्वान हैं मेवों भरे काश मुफ़लिस के कटोरों में भी काजू आ सके  राजधानी जाएंगी सद्भावना की गाडियां कोशिशें हों एक अफ़ज़ल एक घीसू आ सके  हो ज़रा इंसानियत सबके ज़मीरों को अता  देखकर बद-हालियाँ आंखों में आंसू आ सके                           @कुमार, १३/१४.०६.२१  #प्रयुक्त_शब्द : बाज़ू   بازُو    : बगल, बायीं या दायीं तरफ़,  ज़र      زَر     : स्वर्ण, धन, संपत्ति, सम्पदा      कायम قائم :  स्थिर स्थापित, मज़बूत दस्तर-ख़्वान دَسْتَرخوان  : भोजन लगाने के लिए बिछने वाला कपड़ा, भोजन की थाली रखने का चादर, अफ़ज़ल  اَفْضَل  : सबसे उत्कृष्ट, उत्तम, बेहतरीन, एक मुस्लिम नाम,  घीसू   : प्रेमचंद की कथा (कफ़न) का पात्र, एक पासी/दलित नाम,   ज़मीर ضَمیر  : विवेक, सही ग़लत को समझने की बुद्धि, अता  عَطا     : प्रद

रामरती का बायाँ पाँव और पुल पर खड़ा कवि :

  रामरती का बायाँ पाँव और पुल पर खड़ा कवि :    (संदर्भ : सुधांशु उपध्य्याय के दस नवगीत ) विशिष्ट वैचारिक संपन्नता के कवि सुधांशु जी के दस नवगीतों से गुजरते हुए उनके पत्रकार की समाज में फैली विद्रूपताओं पर गड़ी नज़रें हमें दिखाई देने लगती हैं। वे बने बनाये छंदों, बिंबों और रूपकों के शिकंजों से मुक्त होकर अपनी अलग लीक बनाते दिखते हैं। अपनी ही  इस मान्यता के साथ कि " समय को स्वर देने के लिए हर कविता अपना शिल्प और स्वाद स्वयं गढ़ती है। वह अपना एकांत खोने और सम्पर्क पाने के लिए छंद से बाहर आती है और नए छंद भी रचती है।" अपने पहले ही गीत में छंदों के उस इंद्रजाल पर प्रहार करते हुए दिखाई देते हैं जो पिछले कुछ दशकों में मूल मुद्दों से भटकाने वाले छंद आंदोलन के रूप में उभरा है। वे कहते हैं (1) बंधु! तुम तो छंद में, उलझे रहे हो, जिंदगी की उलझनों को छोड़कर। क्रांति कोई, महज इतने से नहीं होती, आस्तीनों को उलट कर- मोड़ कर! + एक मात्रा क्या गिरी कि.... गिर पड़ा ये आसमां हम मिलेंगे कैसे मुमकिन तुम कहांँ औ' हम कहांँ? उनकी बात यहीं ख़त्म नहीं होती। वे निष्कर्ष रूप में कहते कि पु