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Showing posts from August, 2020

हिमाद्रि उर्फ़ पंच-चामर छन्द के छः पंच

सुलक्ष्यवान की अलक्ष्य साधना मनुष्य में निजत्व की सदा रहे गवेषणा। सदाम काम नाम की अदृश्य दृश्य एषणा। अवृत्ति-वृत्ति की प्रवृत्ति प्राण में बसी रहे।  सुमिष्ट-तिक्त स्वाद-भोग में सदा रसी रहे।  यहां वहां जहां तहां कहां कहां पुकारता। जमीन आसमान में, समुद्र में निहारता।  मिले अयत्न चाह यह सदैव व्यक्ति चाहता। अशेष स्नेह से भरा हृदय, अशुष्य स्निग्धता। विनम्रता, सहिष्णुता, सुग्राह्यता, उदारता। मिले सदा, मिले नहीं कभी कुटिल मदांधता। मरुप्रदेश में ममत्व कुंज मैं तलाशता। पहुँच गया वहां जहां वितृष्ण थी विलासिता। सहज, सलज, सरल, अमल मनुष्य; मूल्यहीन है। प्रवंचकों के विश्व में छली-बली प्रवीण है।  जगत अतीत वर्तमान में भविष्य देखता। अनूप, दिव्य, भव्य, नव्य प्राप्य में विशेषता। सुसंगठित वही जिन्हें पता है लाभ हानि का। विकास ह्रास त्रास का विनाश क्षोभ ग्लानि का।  सतत सुदृढ़ प्रतिज्ञ को, थकान क्या, विराम क्या। स्वयं गिरे उठे चले, सहायकों का काम क्या। अतः अभय अशंक आत्म आधरित बने चलो। अशक्त भाव की समस्त क्षीणता हने चलो। सुलक्ष्यवान की अलक्ष्य साधना सुगम रहे। अदाम नाम-कामना-विरक्तता में रम रहे। @कुमार,  १७,१८

इसीलिए अकेला रह गया मैं

इसीलिए अकेला रह गया मैं 0 वह व्यक्ति मिलना चाहता है मुझसे देख रहा है मेरी तरफ किसी जिज्ञासा या कौतूहल से पहचानने की छटपटाहट में मुस्कुरा भी नहीं पा रहा कोई अभिलाषा उसके होंठ चबा रही है कोई बस इतना बस इतना सा मेरी उंगली और अंगूठे को देखो कितनी ज़रा सी जगह छोड़ी है अगूंठे ने उंगली पर बस इत्ता सा सोच भी ले कोई कि मिलना है मुझसे उसके मनस तंत्र के रसायन शास्त्र को उसकी आँखों में पढ़कर मैं भौतिकशास्त्र के चुम्बकत्व में बंधा बढ़कर मिल ही लेता हूँ मिलने में क्या जाता है बल्कि कुछ मिल ही जाता है जैसे न्यूटन को बल का सिद्धांत जैसे आर्कमिडीज को आपेक्षिक घनत्व मिलने में होता ही क्या है कुछ मिलता नहीं तो कुछ खोता भी नहीं सिर्फ थोड़ी सी अपेक्षा दरकती है कभी कभी एक बात मानकर चलो मन के सिक्के के दो पहलू हैं अपेक्षा और उपेक्षा मिलोगे किसी से तो सिक्का उछलेगा और गिरेगा तुम्हारी ही हथेली पर कोई एक ही पहलू आएगा एक बार और तुम को करना होगा स्वीकार आत्मसंघर्ष का यही निचोड़ लेकर चल पड़ता हूं मैं हर बार दुनिया बहुत बड़ी है क्योंकि तुम सब से मिल नहीं सकते सब से मिल लोगे

पेट के भूगोल पर आकाश छूते बुत (ग़ज़ल)

 वज़्न : 2122 2122 2122 212 काफ़िया : अर रदीफ़ : न बन * रहगुज़र उलझी हुई हैं बेसबब रहबर न बन। इन पहाड़ों पर बहुत पत्थर हैं' तू पत्थर न बन। क्यों महज लटका हुआ फानूस बन छत पर रहे रोशनी जब कर नहीं सकता तो फिर अख़्तर न बन। ईंट सोने की बने बुनियाद मंदिर की तो' फिर, उस नुमाइशगाह की दीवार का गौहर न बन। पेट के भूगोल पर आकाश छूते बुत खड़े, भूलकर भी इनके आगे जो झुके वो सर न बन। नफ़रतों की, ख़ून की तारीख़ की तहरीर का, पीढ़ियों की बेबसी का, बदनुमा आखर न बन। सैंकड़ों मायूस मीलें रौंद घर आया मगर, मौत के सन्नाटे की बस्ती में मुर्दाघर न बन। क्यों दवाख़ाने यकायक आग में जलने लगे, ये बिमारी भी है शैतानी तू चारागर न बन। @कुमार ज़ाहिद, ०९.०८.२०२०, प्रातः ०९.३०

नवगीत : #बस_कुछ_दिन_तक

#बस_कुछ_दिन_तक बस कुछ दिन तक  याद बने फिर 'कोई था' में निपट गए।  मैदानों में जंगल जैसे परम स्वतंत्र पेड़ होते थे। बचकाने दिन उनमें चढ़कर कूद-कूद खाते गोते थे। कहां गये वो खुले खेल-घर रिश्तों जैसे सिमट गए। हम ही थे जिनकी बल्ली पर धुले पलों ने धूपें सेंकीं। लक्ष्य साधकर घुमा गोंफने टिड्डी-दल पर गुटियाँ फेंकीं। वो हम ही थे  जिनसे बेखटक बच्चे-बूढ़े लिपट गए। जब बीती बातें चलती हैं 'हम थे' याद दिलाना पड़ता। पहचानों के पड़-पोतों को खींच-खींच दुलराना पड़ता। उम्र दौड़कर  जब निकली हम लदबद्दू से घिसट गए। @कुमार, ०७.०८.२०२०

ग़ज़ल : खुशबू के बहाने

 वज़्न : 2122 2122 2122 212 अरकान : फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन ख़्वाब टूटे, सामने लँगड़ी गृहस्थी आ गयी। हाथ में सामान की बदहाल पर्ची आ गयी। बाग़ से गुज़रे तो ख़ुशबू के बहाने रुक गए, पर तभी चूल्हे की उड़कर राख ठंडी आ गयी।  शह्र के दंगे फ़सादों को न लेकर घर गए, पर न जाने किस तरह घर में उदासी आ गयी। फिर हमारे नाम पर उठने लगे तीखे सवाल् फिर हमारे लब पै शायद बात सच्ची आ गयी। मैं मुकर जाता सियासतदान हो जाता अगर, क्या करूँ, आंखों के' आगे जलती' बस्ती आ गयी।  @कुमार,