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हर कृति अनुकृति है (?)

हर कृति अनुकृति है (?)


        अरस्तू ने अपने अनुकरण के सिद्धांत  में कहा है कि कोई भी काव्य या कलाकृति, रचना या चित्र, गीत या ग़ज़ल कभी मौलिक रचना नहीं होती, उसमें कहीं न कहीं अनुकरण ही होता है।  

कुछ दार्शनिक कहते हैं कि प्रकृति में समस्त कृतियां पूर्वात्य हैं। कलाकार जब भी कोई शिल्प गढ़ता है तो वह मात्र धूल अलग करता है।
भारत में भी जिन्हें सांस्कृतिक कवि या कलाकार कहा जाता है उनकी काव्य-कृति या चित्र या शिल्प भारतीय पुराणों में वर्णित है। गीता को ऐसा ग्रंथ माना जाता है जो मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं का मूल स्रोत है।
     इसी प्रसंग में कालिदास उज्जयिनी के जिस राजदरबार के नवरत्न थे वह राजा भर्तृहरि का ही दरबार था। भर्तृहरि के छोटे भाई  विक्रमादित्य  के  राजदरबार के कालिदास सहित अन्य नौ रत्न थे। स्वयं भर्तृहरि संस्कृत के समर्थ कवि थे। उन्होंने शतक त्रय के ‘नीतिशतक’  में नीचे लिखा प्रसिद्ध और ऐतिहासिक मुक्तक रचा जो प्रकारांतर से पश्चातवर्ती कवियों की प्रेरणा बनता रहा। वह श्लोक यह रहा...

यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः।
अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिदन्या, धिक्तां च तं च मदनं च इमां च मां च

{अर्थात मैं निरन्तर जिसके बारेमें सोचता रहता हूं, मुझसे वही विरक्त/आसक्तिरहित है।  वह किसी अन्य व्यक्ति को चाहती है और जिसे वह चाहती है, वह व्यक्ति किसी अन्य पर आसक्त है।  मेरा सारा किया हुआ सूख गया, नष्ट हो गया तो किसी और के चित्त का क्या कहें? धिक्कार है तुझे और काम-भाव को और इन सबको और मुझे भी। (धिक्कार है, धिक्कार है, धिक्कार है।)}

 इस नीति श्लोक के पीछे विद्वान यह कथा बताते हैं कि सम्राट भतृहरि को किसी साधु ने एक ऐसा फल दिया जिसे खाकर अमर हो सकते थे। साधु ने राजा को लोकोपकार के लिए आवश्यक मानते हुए वह फल दिया था जिससे जनता सुखी रहे। राजा भृतिहार रानी को बहुत चाहते थे। वह रानी के बिना अमर होकर क्या करते, इसलिए वह फल उन्होंने रानी को दे दिया। कहा जाता है कि रानी किसी सेनापति को चाहती थी तो वह फल उसने उसे दे दिया। सेनापति नगर की गणिका को चाहता था, वह फल गणिका को मिल गया। गणिका राजा भर्तृहरि के गुणों पर मोहित थी। उसने वह फल राजा को दे दिया। राजा उस फल को देखकर दहल गए। उन्होंने पूरे मामले की जांच करवाई और उनका मोहभंग हुआ। इस तरह वह कोमल चित्त कवि और राजा संन्यासी हो गया। इस श्लोक में यही कथा गुम्फित है। 

आगे चलकर यही कथा शूद्रक का कथानक बनी। 

 संस्कृत के महाकवि 'भास'  की कृति 'द्ररिद्र चारुदत्त'  का विस्तार करते हुए जब राजा शूद्रक ने 'मृच्छकटिकम्' नाटक की रचना की तो 'दरिद्र चारुदत्त' को नायक बनाकर प्रस्तुत किया। 'दरिद्र चारुदत्त और उज्जयिनी की गणिका बसंतसेना की कथा' में भतृहरि की कथा प्रकारांतर से दोहराई गयी। गणिका बसन्तसेना पर राजा 'पालक' का साले संस्थानक आसक्त है। वह उसे बलात भोगना चाहता है। बसंतसेना उससे घृणा करती है। उससे अपने को बचाती हुई वह अंधेरे में संयोग से दरिद्र चारुदत्त के घर में घुस जाती है। चारुदत्त के गुणों की ख्याति है जिससे बसंतसेना अनभिज्ञ नहीं है। जिन गुणों और उदारता ने चारुदत्त को राजा से रंक बनाया उन्हीं गुणों पर बसंतसेना सहित पूरा राज्य मोहित है। बसंतसेना के सौंदर्य से चारुदत्त प्रभावित है। अकस्मात दोनों एक दूसरे को सामने देखकर भौचक्के हैं। बसंतसेना सुरक्षापूर्वक जाते हुए अपने सारे स्वर्ण-आभूषण चारुदत्त के पास रख जाती है। एक सेंधमार वे स्वर्ण-आभूषण चुरा लेता है। इन स्वर्ण-आभूषणों की चोरी सेंधमार ने अपनी एक प्रेयसी को गणिका-जीवन से छुड़ाने के लिए किया था। उसकी यह प्रेयसी मदनिका बसंतसेना की परिचारिका है। सेंधमार शर्वलक जब मुक्ति के लिए ये आभूषण मदनिका को सौंपता है तो वह इन्हें पहचान जाती है। इन आभूषणों के चोरी हो जाने से ग्लानिर्भूत चारुदत्त इनसे उऋण होने के उपाय सोचने लगता है तब उसकी पत्नी धूता चारुदत्त द्वारा प्रदत्त मंगलहार उसे देती है ताकि आभूषणों का मूल्य चुकाया जा सके। चारुदत्त का मित्र मैत्रेय यह हार लेकर बसंतसेना के यहां जाता है और यह कहता है कि द्यूत में  बसंतसेना के आभूषण हार जाने से यह हार बदले में चारुदत्त ने भेजा है। बसंतसेना दोनों आभूषण लेकर चारुदत्त और धूता के पास आती है। यद्यपि कथा आगे और भी है, तथापि यह 'वस्तु और प्रेमचक्र' यहां सुखांत है।
हम यहां कथानक की समता का पुनर्प्रयोग देख रहे हैं। कह नहीं सकते कि  सलीम कौसर ने राजा भर्तृहरि और चारुदत्त की कथाएँ पढ़ी-सुनी  या नहीं किंतु इन कथानकों के मर्म को उनकी इस पूरी ग़ज़ल में अभिव्यक्ति मिली है। 
      *मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है* 
*सर-ए-आईना मिरा अक्स है पस-ए-आईना कोई और है* (सरे आईना=दर्पण के सामने, पसे =पीछे)

*मैं किसी के दस्त-ए-तलब में हूँ तो किसी के हर्फ़-ए-दुआ में हूँ*( दस्ते तलब = चाहत के हाथों में, हर्फ़े दुआ= प्रार्थना के शब्दों में)
मैं नसीब हूँ किसी और का मुझे माँगता कोई और है 

*अजब ए'तिबार ओ बे-ए'तिबारी के दरमियान है ज़िंदगी* ( एतिबार =विश्वास, बे एतिबार अविश्वास, दरम्यान = बीच में)
*मैं क़रीब हूँ किसी और के मुझे जानता कोई और है*

*मिरी रौशनी तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर* (ख़द्द ओ ख़ाल=चेहरा मोहरा, रंगत, मुख़्तलिफ़ = अलग, भिन्न,)
*तू क़रीब आ तुझे देख लूँ तू वही है या कोई और है *

*तुझे दुश्मनों की ख़बर न थी मुझे दोस्तों का पता नहीं* 
*तिरी दास्ताँ कोई और थी मिरा वाक़िआ कोई और है* (दास्तां=कहानी, वाक़या=घटना, मामला)

*वही मुंसिफ़ों की रिवायतें, वही फ़ैसलों की इबारतें* (मुंसिफ़=न्याय करनेवाले, रिवायत= परम्परा,तरीक़ा) 
मिरा जुर्म तो कोई और था पे मिरी सज़ा कोई और है 

कभी लौट आएँ तो पूछना नहीं देखना उन्हें ग़ौर से 
जिन्हें रास्ते में ख़बर हुई कि ये रास्ता कोई और है 

*जो मिरी रियाज़त-ए-नीम-शब को 'सलीम' सुब्ह न मिल सकी* (रियाज़त ए नीम शब=अर्द्ध रात्रि की तपस्या, श्रम, उद्यम; )
*तो फिर इस के मअ'नी तो ये हुए कि यहाँ ख़ुदा कोई और है* (मअ'नी/मानी=मायने, अर्थ)
इस सूफियाना मिज़ाज की ग़ज़ल के बाद आधुनिक मनोरंजन जगत में धनोपार्जन की दृष्टि से गीतकार अनजान के पुत्र शीतला पांडे समीर ने शायर सलीम क़ौसर  के शेर में ज़रा सा हेर फेर कर अपना प्रसिद्ध गीत लिखा...

तू प्यार है किसी और का तुझे चाहता कोई और है
तू पसन्द है किसी और की तुझे मांगता कोई और है।  ......

कौन अपना है क्या बेगाना है
क्या हक़ीक़त है क्या फ़साना है
ये ज़माने में किसने जाना है
तू नज़र में है किसी और की तुझे देखता कोई और है। 

प्यार में अक्सर ऐसा होता है, 
कोई हँसता है कोई रोता है 
कोई पाता है कोई खोता है
तू जान है किसी और की तुझे जानता कोई और है। 

सोचती हूँ मैं  चुप रहूँ कैसे
दर्द दिल का ये  मैं सहूँ कैसे 
कशमकश में हूँ  ये कहूँ कैसे 
मेरा हमसफ़र बस एक तू नहीं दूसरा कोई और है 

     लगता है गुरुवर अरस्तू का यह सिद्धांत कालजयी कि हर कृति अनुकृति है। 

. रामकुमार,  

(संशोधन एवं परिवर्द्धन दि. २२.०६.२४) 


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