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अच्छा लगता है, क्यों लगता है?

       यह सब अच्छा लगता है कि किसी को साहित्य का पुरस्कार मिला। अपने प्रिय गीतकार लेखक साहित्यकार को मिलनेवाले ये पुरस्कार हमें ख़ुशी के सिवाय और क्या देते हैं? वास्तव में हम उनसे चाहते भी क्या हैं? फिर क्यों अच्छा लगता है? हम तो सिर्फ़ एक साधारण पाठक हैं या उस क्षेत्र के प्रति रुचिवान लोग हैं। उसे जानते नहीं, वह हमें नहीं जानता। फिर क्यों होती है यह प्रसन्नता? इसकी क्या सार्थकता है हमारे जीवन में? जिसे मिला है उसके जीवन में इसकी सार्थकता हो सकती है। उसका उसे लाभ होगा, उसकी प्रतिष्ठा होगी। हमारा क्या? बैठे बिठाए की यह निरर्थकता किसलिए?
यह इसलिए क्योंकि यह हमारे जीवन के उस रुझान की प्रसन्नता है, जिससे जुड़कर या जुड़े रहकर हमें प्रसन्नता होती है। इसी प्रसन्नता के लिए अथवा इसी प्रसन्नता के भरोसे तो जीवन में गतिशीलता आती है, सक्रियता आती है, जीवन हल्का बना रहता है। यही इस प्रसन्नता की सार्थकता है। एक अदृश्य, अनदेखी, अनाकार, अभौतिक मात्र आत्मिक अस्तित्व रखनेवाली यह प्रसन्नता इसलिए भी सार्थक है क्योंकि जो कुछ भी भौतिक मिलता है उसकी सार्थकता भी तो अंततः प्रसन्नता ही है।
दरअसल यही प्रसन्नता हमारी सामाजिकता का आधार है। इसी पसन्नता की तलाश में इसे बनाए रखने के प्रयास में हम लोगों से जुड़ते हैं। ऐसे लोगों से भी जुड़ते हैं जिन्हें हमने पहले कभी नहीं देखा। जो हमारे संबंध क्षेत्र के भी नहीं। बस उन्हें देखकर, उनके कामों से, उनकी प्रसिद्धि से हमें प्रसन्नता होने लगती है। उनसे कभी मिल ही नहीं पाते, सुदूर बैठा कोई हमें प्रसन्न कर रहा है। हमें जिस कारण वह प्रसन्न करता है, उसका उसे पुरस्कार मिलता है। यही उसकी भी सार्थकता है और हमारी भी।इस प्रसन्नता का सम्मान करना चाहिए। यह ऐसे कि जब वह सम्मानित हो रहा हो तो हम अपनी प्रसन्नता के सम्मान में खड़े हो जाएं। यह प्रसन्नता विश्व की सबसे अमूल्य वस्तु है, इसका जीवन पर्यंत सम्मान करना चाहिए। अगर यह जीवन से गई...ओह, ऐसा किसी के जीवन में न हो। 
आज सुबह समाचार मिला कि प्रिय लेखक, निर्देशक, निर्माता और किसी परिचय के मोहताज़ नहीं, ऐसे 'परिचय'  के निर्माता गुलज़ार जी को भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान, ५८ वां ज्ञानपीठ पुरस्कार उनके काम के लिए, हुनर के लिए मिला। ९० वर्ष के इस अद्भुत कल्पनाशील कवि को अस्वस्थता के कारण उनके निवास 'बोस्कयाना' सबअर्बन बांद्रा में जाकर भारतीय ज्ञानपीठ के न्यासी, पूर्व सचिव और प्रबन्धक सहित तीन प्रतिनिधियों ने दिया। भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार ११ लाख रुपए, वाग्देवी सरस्वती की कांस्य प्रतिमा, अंगवस्त्र(शॉल) तथा अभिनंदन पत्र के साथ दिया जाता है। 
गुलज़ार उपनाम से प्रख्यात संपूरन सिंग कालरा को मैं जानकर नहीं, सुनकर पसंद करता रहा हूं। अधिकांश गीत और फिल्में ऐसी हैं, जो बचपन से मैं पसंद करता रहा हूं। पहले कृतियां पसंद आईं, फिर उनके कर्ता के बारे में पता चला। चूंकि कृत्यों ने हमें प्रसन्न किया, कृतियों को हम प्यार करने लगे तो उसके कर्ता से भी प्यार करने लगे। 
मैंने आकाशवाणी में एक गीत युवावस्था में सुना। मैं उसकी बुनावट पर मुग्ध हो गया। उससे प्यार का बैठा। गीत में नए बिंब थे, नई भावभूमि थी, नए रूपक थे। गीत के भाव कुछ ऐसे थे कि कवि हवाओं को पत्र बनाकर हवाओं के नाम एक संदेश भेज रहा है। संदेश क्या है - नमस्ते जी! और भेजनेवाले का नाम लिख रहा है- अनजान परदेशी। असल में 'अनजान परदेशियों का सलाम' है। अर्थात् पत्र व्यक्तिगत नहीं है, सामूहिक है। कवि ने उन सबकी ओर से पूरी प्रकृति को पत्र लिखा है - हवाओं के नाम हैं,  सुरीले पंछी हैं, डालियां हैं, धूप है, छांव है, सुबह है, शाम है, पानी है, राह है, मासूम चेहरे हैं, उनके प्यारे प्यारे नाम हैं। कुलमिलाकर कवि का संदेश व्यक्तिगत नहीं है, समस्त यायावरों की ओर से है और पाने वाले भी एक नहीं है, पूरी बस्ती, पूरा प्रकृति नगर है। 
       कोई गीत जब आपके अपनी सोचों के अनुकूल हो जाता है तो अच्छा लगता है, पसंद आता है, आप उसे प्यार करने लगते हैं। 
      मेरा सारा जीवन यायावरी में गया। अभिभावकों के रेलवे में होने से जगहें बदलती रही। नदी, नाले, पेड़, हवा, पानी, पर्वत, लोग बदलते रहे। इसलिए यह गीत मेरी अनुभूतियों का गीत हो गया। गांव, पांव, महावर, पायल, गली, घर, बाग़, बगीचे, खेत, जंगल, जाने कितनी वस्तुएं जो अपना प्रभाव छोड़ती हैं और बिंब बनकर विचारों में घुलती रहती हैं। गुलज़ार के गीतों में हजारों लाखों लोगों की अनुभूतियां कुलबुलाती रहती हैं इसलिए गुलज़ार मिलेनियम पोएट हो जाते हैं। 
     दिल की बातें करनेवाले ही दिलरुबा हो जाते हैं, दिलबर और दिल के प्यारे हो जाते हैं। गुलज़ार उनमें से एक हैं। 
बाद में जब गुलज़ार को जानने लगे, उनके कृतित्व को समझने लगे तो उनके इसी गीत को  श्वेत श्याम में वीडियो के रूप में देखा। शेक्सपियर के परिस्थितियों के कारण गड़बड़झाले को प्रस्तुत करनेवाले नाटक 'कॉमेडी ऑफ एरर' का बंगाली अनुवाद ईश्वरचंद्र विद्यालंकार ने 'भ्रांतिबिलास' किया। इस 'भ्रांति बिलास' पर उत्तमकुमार ने अपने दल के साथ 'भ्रांति बिलास' बंगाली फिल्म बनाई। इसे बिमल रॉय ने हिंदी में किशोरकुमार को लेकर 'दो दूनी चार बनाई'। इसमें गुलज़ार सहायक थे, गीत और पटकथा उन्हीं की थी। उनके ही गीत को बिमल रॉय ने अपने दृष्टि-चित्र से प्रस्तुत किया था। (यह 1978 में इसी 'दो दूनी चार' को पूर्ण स्वतंत्रता के साथ गुलज़ार द्वारा 'अंगूर' बनाने के पहले की बात है।)
'दो दूनी चार' में के जिस फ्रेम या ब्लॉक (रूपक) में उन्होंने वनदेवी (भ्रम बालिका) की कल्पना की थी, वह सभी के दिल दिल में बैठ गई होगी, ऐसा मुझे अपने अनुभव से लगता है। 
गीत का पहला पद जिस पर यह खूबसूरत ब्लॉक बना, यह है-
         शाख़ पर जब, धूप आई, हाथ छूने के लिए। 
         छाँव छम से, नीचे कूदी, हँसके बोली आईये। 
                    यहाँ सुबह से, खेला करती है शाम।।
      इसमें छांव के छम से नीचे कूदने का मानवीयकरण करते हुए एक बच्ची को नीचे कूदते हुए चित्रित किया गया है। छः सात साल की यह बच्ची दिल में अब तक उसी भोलेपन के साथ कूद रही है। दरअसल गीत को जीवित करनेवाला बिंब फिल्म में हमें लुभाने का ज़रिया बन गया। यह चित्र बिमल रॉय और गुलज़ार की मिल-जुली कसरत रही होगी। हमने पहले इस चलते चित्र को प्यार किया और बाद में बिमल, गुलज़ार, किशोर और सोनिया को जाना। सोनिया वही वनदेवी बच्ची है जो बड़ी होकर नीतूसिंह हो गई। 
          और आगे कभी चर्चा के लिए आनंद बख़्शी की इन पंक्तियों के साथ प्रभाव की इस यात्रा को यहीं समाप्त करते हैं -
              ऐसे नाता तोड़ गए हैं, हमसे ये सुख सारे।
              जैसे जलती आग किसी बन में, छोड़ गए बंजारे। 
          आप बंजारों की इस आग को तापिए, तब तक मैं देखकर आता हूं कि जंगल में और कहां-कहां आग लगी है। 

परिशिष्ट : (चर्चित गीत)
 हवाओं पे लिख दो हवाओं के नाम।
हम अनजान परदेसियों का सलाम।।
ये किसके लिए है, बता किसके नाम।
ओ पंछी सुरीला ये तेरा सलाम।।

शाख़ पर जब धूप आई, हाथ छू ने के लिए। 
छाँव छम से नीचे कूदी हँसके बोली आईये। 
यहाँ सुबह से खेला करती है शाम।।

चुलबुला ये पानी अपनी राह बहना भूलकर। 
लेटे लेटे आईना चमका रहा है फूल पर।
 ये भोले से चेहरे हैं मासूम नाम। 

                                      -तुहिन निरक्षर, २६.०५.२५

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