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पैमाना और परीक्षा

 

पैमाना और परीक्षा

जो शीशा जानकर तोड़ें
तो पत्थर टूट जाते हैं,
ये सुख ही हैं जो दुख में
हाथ मलते हैं।
धूप को धूप समझिए तो
बदन जलते हैं।


ये तीन पंक्तियों की कविता थी, जो लकड़ी के एक फुटिया पीले पैमाने पर नीले बॉल-पेन से उर्दू में लिखी हुई थी। यह पैमाना महाविद्यालय के प्राचार्य और परीक्षा-महा-अधीक्षक आचार्य मेघनाथ कन्नौजे के सामने गवाही के तौर पर मुझसे पढ़वाया जा रहा था। जैसे ही मैंने तीसरी पंक्ति पढ़ी, आसपास सेनापतियों की तरह खड़े प्राध्यापकों के मुंह से वाह वाह निकल पड़ा। आचार्य मेघनाद कन्नोजे जो हिंदी के विद्वान प्राध्यापक थे, मुस्कुराने लगे। अपनी  'यथानाम तथा गुण' गहरी और भारी मेघवाणी में उन्होंने पूछा :" क्या तुमने ही इस पैमाने पर ये पंक्तियां लिखीं? यह किस शायर का शेर है?"
"जी मैंने ही परीक्षा में सारे उत्तर लिखने के बाद, आखिर के ख़ाली समय में बैठे-बैठे ऐसे ही बना दिया?"
"पैमाने पर क्यों लिखा?"
"कुछ और नहीं था सर लिखने के लिए।"
"और यह पैमाना इनके पास कैसे आया?"
अब 'इनके' की तरफ़ मैंने देखा। वह मेरा सहपाठी और गहरा दोस्त बहादुर अली था। परीक्षा के दौरान उसके पास से वह पैमाना बरामद हुआ था। वह अपराधी की भांति मेरे पास ही खड़ा था और आसपास वे सारे शिक्षक थे, जिन्हें मैं तो विद्यार्थी की हैसियत से जानूंगा ही, पर एक्स्ट्रा क्यूरिकुलर एक्टिविटीज के कारण वे भी मुझे बेहतर जानते थे। मैंने बयान देना शुरू किया : "जी, सुबह मेरा पेपर था अंग्रेजी का। पेपर देकर मैं अपने घर के लिए रेलवे कॉलोनी जाते समय, इनके घर जूनी-हटरी में रुका, जैसा कि मैं अक्सर करता हूं।  शाम को यानी इस पाली में इनका इकोनॉमिक्स का पेपर था। इन्होंने मुझसे स्केल ले ली। और..." मैं "और" के बाद क्या कहता? वह "और" तो खड़ा है सबके सामने एग्जाम सुपरिन्टेंडेंट के आगे.. एक मुलजिम बनके और दूसरा गवाही देते।
मेरे जवाब के बाद मुस्कुराती हुई फुसफुसाहट फिर शुरू हुई।  प्रिंसिपल भी मुस्कुराए। उन्होंने कहा :"इसे एक पेपर दो .."  'इसे' यानी मुझे।
मुझे एक प्लेन पेपर दिया गया और प्रिंसिपल साहब ने कहा "मेरे सामने, पैमाने पर जो कुछ लिखा है, वह यथावत इस पेपर पर लिखो।  फिर उसे हिंदी में लिखो और यह भी लिखो कि कब और कैसे क्या क्या हुआ.. यानी वह सब जो अभी तुमने बताया।नीचे अपना नाम, कक्षा और रोल नंबर लिखकर हस्ताक्षर कर के दो।"
मैंने सब लिखकर प्रिंसिपल साहब को दे दिया।
प्रिंसिपल साहब ने मुझसे कहा: "देखो रामकुमार, तुम एक प्रतिभाशाली और अच्छे लड़के हो। तुम्हारी कविता भी प्रेरणादायक है .. क्या है वह अंतिम पंक्ति .. धूप को धूप समझिए तो बदन जलता है .. सही है, सुविधाएं ही मनुष्य को आलसी बनाती हैं। लेकिन कभी कभी धूप को धूप समझना पड़ता है नहीं तो लू लगने का खतरा होता है .. जैसे अभी लगी न तुम लोगों को लू .. जब नियम है कि किसी भी प्रकार की लिखित सामग्री परीक्षा कक्ष में नहीं लाना है ..तुम लेकर आये। यहीं नही, उत्तर पुस्तिका के अतिरिक्त प्रश्नपत्र भी कुछ नहीं लिखना है ..लेकिन तुमने लिखा...हां, नियमानुसार प्रश्न पत्र पर केवल रोलनंबर लिख सकते हो? समझे? " 
मैं समझ गया और शर्म से मेरा सर झुक गया।
अब बहादुर की बारी थी। प्रिंसिपल साहब ने उससे कहा :" और बहादुर! लिखित सामग्री परीक्षा कक्ष में लाना वर्जित है। तो गलती तो तुमसे हुई। यह प्रकरण तो हम यूनिवर्सिटी भेजेंगे। ताकि तुम सावधान रहो। हम यह ज़रूर लिख देंगे कि यह सामग्री विषय से संबंधित नहीं है। तुम्हारे साथ रियायत हो भी सकती है और नहीं भी। ठीक? अब  तुम लोग जा सकते हो।"
हम दोनों गुनहगारों ने एक दूसरे की तरफ़ हवा निकले हुए गुब्बारों की तरह देखा और बाहर निकल आए।

क्रमशः 

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