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दिल्ली है गुलज़ार






शब्द वेध/भेद के अंतर्गत 40 दोहे 

6. कुछ तो है षड्यंत्र

अनुभव ने अनुभूति से, चुगली की दो चार।
सपनों में आने लगे, भगदड़ हाहाकार।।

नदियां रूठी देखकर, खेतों में भूचाल।
बांध तोड़ने चल पड़े, हँसिया और कुदाल।।

जंगल छोटे पड़ गए, चले तेंदुए गांव।
शायद गौशाला बने, उनका अगला ठाँव।।

बाघ-तेंदुए मर रहे, कुछ तो है षड्यंत्र।
फिर शिकार की भूमिका, बना रहा है तंत्र।।

भेड़-बकरियां हो गए, दो कौड़ी के लोग।
उधर ख़ास-दरबार में, पकते छप्पन भोग।।

@ कुमार,  ०३.०१.२०२३


0

5. आनेवाले साल को .....

जुल्फ़ों आंखों शक्ल पर, पड़ी समय की मार।
हाथ पांव के रूठते, गिरी जिस्म सरकार।।१

शब्द निरक्षर हो गए, वाक्य खो चुके अर्थ।
ग्रंथालय के ग्रंथ सब, हुए आजकल व्यर्थ।।२

बोलो तो शातिर बनो, मौन रहो तो घाघ।
जीभ लपलपाकर हुए, वो जंगल में बाघ।।३

आंखों से विश्वास का, सूखा सारा नीर।
ठहरे आता साल अब, किस दरिया के तीर?।४

हाथ उठाये चल रहा, अपराधी सा वक़्त।
आनेवाले साल को, मिली सजाएं सख़्त।।५

@रा रा कुमार, ३१.१२.२२.
०००
4. सच के दावेदार

सारा क्रोध, विरोध सब, आंके गए भड़ास।
धुँधयाती कुंठा बची, शब्द-वीर के पास।।१

पट्टेवाले श्वान ही, भौंकें तो हैं शेर।
मुतिया, झबरू, कालिया, नहीं किसी की ख़ैर।। २

कहना एकाकी हुआ, सुनना भी एकांत।
सच के दावेदार सब, पड़े हुए हैं शांत।।३

सिर्फ़ इकाई रह गए, लश्कर के सरदार।
पानी पड़ते गल गयी, काग़ज़ की तलवार।।४

चोरों के बाज़ार में, हार जीत व्यापार।
काले धन से चल रही, धोकों की सरकार।।५

@रा रा कुमार, ३१.१२.२२, शनिवार,

3. पांच दोहे
0
सर्दी बढ़ते ही बढ़ी, वही गांवड़ी याद।
परछी पड़ा बिछावना, सौंधा पैरइ स्वाद।।१
~
गया गांव को छोड़कर, पढ़ा लिखा मनधीर।
महानगर की थी ख़बर, मुफ़्त बंट रही खीर।।२
~
गैल, बाग, बाड़ी चरे, चरे खेत या मेड़।
किसी निठल्ले सांढ़ को, नहीं लगाते एड़।। ३
~
अग्निवीर', 'ठोला', 'पिउन', 'स्वीपर', 'चौकीदार'।
'पोस्ट-ग्रेजुयट' मांगते, कुछ तो दो सरकार।।४
~
दल के दलदल में फँसे, बिगड़े हुए नवाब।
मत, दफ़्तर, पथ, घेरते, पाते चिकन-कबाब।।५
               ०००
@ रा. रा. कुमार, १८.१२.२२,

*
2. दस दोहे

चढ़ती चर्बी ढांपकर, चुप है चौकीदार।
मँहगे कपड़ों से मगर, झांके भ्रष्टाचार।।१

हँसना रोना छोड़कर, चिन्ता बैठी मौन।
कुण्ठाते अवसाद की, करे चिकित्सा कौन।।२

पीटा, छीना ले गए, बौने तक सामान।
चौड़ी छाती गा रही, अधोवस्त्र का गान।।३

गरबा से गुजरात के, दिल्ली है गुलज़ार।
चले अहमदाबाद से, भारत की सरकार।।४

अगर इलाहाबाद को, मिटा कट गए पाप।
नाम अहमदाबाद का, कब बदलेंगे आप?।५

वस्त्र बदलने से अगर, बदले मुख्य-चरित्र।
स्वयं संग परिवार के, बदलो चोले मित्र।।६

रंग, रूप, रस, गंध से, उपवन का है मान।
केसर और गुलाब में, फिर क्यों खिंची कृपान।।७

अपनी मां के साथ में, खिंचवाई तस्वीर।
बिल्किसबानो के लिए, नहीं हृदय में पीर।।८

सत्ता-लोलुप के लिए, दुर्घटनाएं मौज।
मरे ढोर पर आ जुड़ी, कुकुर चील की फौज।९

खिंची पछहत्तर वर्ष में, लोकतंत्र की खाल।
उसे पहन सौ वर्ष का, होगा अमरित-काल।।१०

@रा.रा.कुमार, १७.१२.२२
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1. दस दोहे

दरवाज़े पर फेंककर, गयी सुबह अख़बार।
'जागो, वरना जाओगे, सब लंबे इस बार।।'१

तीन शाप देकर गये, काम, क्रोध वा लोभ।
'जा, जीवन भर भोगना, रोग, शोक, विक्षोभ।'।२

तीनों पर पत्थर पड़े, भाग्य, भरोसा, भात।
सुबह, दोपहर, शाम का, कच्चा चिट्ठा रात।।३

संबंधों की आड़ में, खड़े हुये हैं स्वार्थ।
केवल अपना लाभ ही, एकमात्र परमार्थ।।४

बड़बोले वक्ता बने, युगनायक अधिराज।
जोड़ तोड़ कर कर रहे, खुलकर सब पर राज।५

पूरब-पश्चिम लड़ रहे, उत्तर-दक्षिण क्रुद्ध।
अब विकास का रास्ता, रोज़ मिले अवरुद्ध।। ६

सफल परीक्षण हो गया, अब ब्रह्मास्त्र अजेय। 
अस्त्रों के आश्रित बनें, यही हमारा ध्येय।।७


देशी मुद्रा गिर गयी, मिली नई पहचान।
निर्यातों के नाम पर, बेचेंगे सम्मान।। ८

जीत जीत फिर जीत का, सघन चला अभियान।
हार हारकर हो रही, जनता लहू-लुहान।।९

हारे को हरिनाम है, जीते को यशगान।
भूख और ऐश्वर्य को, अर्थ-हीन व्याख्यान।।१०

@ रा रा कुमार, १६.१२.२२

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