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शब्दों में शक्ति होती है, तभी तो..

क्षमा करें इस बार 11 पदों की लंबी कविता 



शब्दों में शक्ति होती है, तभी तो


१.
शब्दों में शक्ति होती है
तभी तो
चिड़ियों के चहचहाते ही
होने लगी है पत्तों में सरसराहट
जबकि
नींद पीकर सोया हुआ सारा शहर
धुत्त है सुविधाओं के लिहाफ़ों में।
२.
शब्दों में शक्ति होती है
तभी तो
भंवरों की गुनगुन से
खिलने लगे हैं फूल
फड़कने लगे हैं
तितलियों के पर
जबकि
बांबियों में छुपे हुए बहरे सांप
गाढ़ा करने में लगे हैं
अपना ज़हर।
३.
शब्दों में शक्ति होती है
तभी तो
हवाओं की सनन सनन से
अंकुराने लगीं हैं
रबी की फसलें
जबकि
बिलों में घुसपैठिये चूहे
रच रहे हैं
जड़ें कुतरने का षड्यंत्र।
४.
शब्दों में शक्ति होती है
तभी तो
झूठ सर चढ़कर बोलने लगा है
जबकि
अपाहिज़ और गूंगा सच
झुककर
तस्मे बांध रहा है
साहब के जूतों के।  
५.
शब्दों में शक्ति होती है
तभी तो
अपराधियों के माथे से पुंछ रहे हैं
बर्बरता के तमाम कलंक
जबकि
अंधी संस्कृति के हाथों ने
उठा रखे हैं
अभिनंदन के हार।
६.
शब्दों में शक्ति होती है
तभी तो
ख़रीदे जाने लगे हैं नक्कार खाने
जबकि
तूतियाँ अब कहीं नहीं बोलतीं
छोड़कर जा रहीं हैं
अपना घर।
७.
शब्दों में शक्ति होती है
तभी तो
गली के उस पार भौंकते ही
एक कुत्ते के
भौंकते हुए निकल आते हैं
गली के तमाम कुत्ते
जबकि
आदमियों में छाई हुई है
आत्मलिप्सा की चुप्पी
गम्भीर कवि होने की भ्रांति
किसी अपने के पक्ष में
आवाज़ न उठाने की मक्कारी।
८.
शब्दों में शक्ति होती है
तभी तो
वे ही बोल रहे हैं ऊल जुलूल
उनके उद्योगपतियों ने खरीद लिए हैं
हवाई जहाज, रेल और कारख़ानों के शोर
जबकि
दुकानों में बिक रहे हैं केवल
अच्छे दिनों के मौन।
९.
शब्दों में शक्ति होती है
तभी तो
शब्दों का हो गया है राष्ट्रीयकरण
जबकि
बिना अनुमति बोलने वालों पर
छापे पड़ रहे हैं
प्रवर्तन निदेशालय के
ज़रूरत से ज्यादा शब्द रखने के जुर्म में
धरी जा रही है
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
गुमनाम जेलों में रखी जा रही है।
१०
शब्दों में शक्ति होती है
तभी तो
केवल कुछ को ही सुनने की
बनाई जा रही है आदत
धीरे-धीरे..  
सिखाया जा रहा है जयघोष..
अन्यथा चुप रहने की तमीज़...
जबकि
ज़्यादातर लोग
ज़्यादा मुआवज़े के प्रलोभन में बेचने को
बांधने लगे हैं
अपने ज़मीर की जायजादें
अपनी अंतरात्मा की आवाज़ें।
११
शब्दों में शक्ति होती है
तभी तो
उसने गढ़ लिये हैं अपने वाक्य, अपने मुहावरे, अपनी भाषा,
बना लिया है अपना परिवार, अपना संघ, अपना समाज,
उसने स्थापित कर लिया अपना प्रान्त,
और अश्वमेध की शक्ति से हो गया है चक्रवर्ती,
व्यक्तिवाद की पुंगी से
करता हुआ 'सर्वजन हिताय' का
राष्ट्रवादी शंखनाद
जबकि
लुंज पुंज लोकतंत्र, गड़े हुये गणतंत्र के साथ
धूल धूसरित धर्मनिरपेक्षता की कथरी ओढ़कर
क्षत-विक्षत भाईचारा और विश्वबंधुत्व के माथे से
पोंछ रहा है
'हम सब एक हैं' कराहता हुआ लहू
'अनेकता में एकता' की धड़कनें मंद हो रहीं हैं

किसी मरते हुए संविधान की  तरह,
सामने खड़े किसी गंडासाधारी विध्वंसक हत्यारे के पैरों में


हजारों सालों की अलगाववादी परंपरा के झंडे तले 
नया हत्यारा
कुचलने के लिये दीन हीन दलितों और अशक्तों के अस्तित्व को 
ठहाके लगाता निरन्तर बढ़ रहा है....

और वो देखो
ऊग रहा है रक्त रंजित आतंकित सवेरा

समुद्री तट से बढ़ रहा है 
हिमालय को पैरों में पहनने के लिये।

शब्द में शक्ति होती है
तभी तो...

@रा रा कुमार वेणु;
दि.(०६.१२.२२/११:१०.१२.२२)


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