Skip to main content

भारतीय स्वर्ग कश्मीर ?

 भारतीय स्वर्ग कश्मीर ?


मैं एक महीने से योजना बना रहा था कि आपसे '15 मार्च की ख़ासियत' को लेकर चर्चा करूंगा। लेकिन 11 मार्च को कश्मीर पर बनी फ़िल्म को लेकर सोशल मीडिया में चक्रवात आ गया। विभिन्न अभिकरणों और अभिकर्ताओं ने फ़िल्म देखने की पुरज़ोर अपील शुरू कर दी ताकि जलियांवालाबाग़ तथा सैकड़ों नरसंहार की तरह कश्मीर में हुए नरसंहार की तश्वीरें देखी जा सकें, ताकि क्रूरता के जघन्न और घिनौने दृश्य हमें पीड़ितों के क़रीब पहुंचा सकें, ताकि उनके प्रति सहानुभूति पैदा कर सकें।(?)

 सोमवार 15 मार्च तक मीडिया में यह खबर आई  कि 250 भारतीय सैनिकों पर आतंकी हमले से हुए नरसंहार के प्रतिशोध स्वरूप जो सर्जिकल स्ट्राइक हुई, उसकी रोमांचित और उत्तेजित करनेवाली फ़िल्म 'उरी' को कई करोड़ पीछे छोड़ते हुए, 'कश्मीर-फाइल्स' केवल तीन दिन में साढ़े पंद्रह करोड़ का बिसिनेस करनेवाली फ़िल्म बनी। फ़िल्म के लेखक, निर्देशक और निर्माता विवेक रंजन अग्निहोत्री अपनी सहनिर्मात्री और अभिनेत्री पत्नी के साथ प्रधानमंत्री से भी मिल आये। अब दूसरी कंपनियों और अभिकरणों की भांति प्रधानमंत्री ने सभी से अपील की है कि इस फ़िल्म को देखें। कई राज्यों ने फ़िल्म को टैक्स फ्री कर दिया। टैक्स फ्री होने से सरकार को राजस्व नहीं मिलता और सारा लाभ निर्माता और थिएटर के पास जाता है। टैक्स फ्री होने से ज्यादा लोग बॉक्स ऑफिस में जुट जाते हैं। इस व्यवस्था से, निर्माता और निर्देशक ने बॉक्स आफिस से अकूत धन के साथ-साथ साधारण लोगों की भरपूर प्रशंसा बटोर ली है। लेकिन जिन कश्मीरी लोगों के नरसंहार, विस्थापन और बर्बादी पर यह फ़िल्म इतना पैसा बटोरकर दे रही है, और अभी और देगी, उस निर्माता की ओर से, विस्थापित कश्मीरियों के पुनर्वास एवं सहायतार्थ कोई राशि अभी तक घोषित नहीं की गयी है। उल्लेखनीय है कि फ़िल्म को पूरी तरह कश्मीरी पंडितों पर हुए नृशंस-घात पर आधारित कर चित्रित किया गया है और अनुपम खेर जैसे कश्मीरी पंडित ने इसमें केंद्रीय भूमिका करते हुए, हमेशा की तरह उत्कृष्ट अभिनय किया है। विवेक रंजन अग्निहोत्री और उनकी निर्माता पत्नी पल्लवी जोशी दोनों पंडित हैं। कश्मीरी विस्थापित नागरिकों में 90 प्रतिशत कश्मीरी पंडित थे, ऐसी स्थिति में अग्निहोत्री दम्पति को कश्मीरी पंडितों के लिए अपने लाभ का कम से कम 25 प्रतिशत तो अवश्य प्रधानमंत्री कोष में देना चाहिए। बाक़ी जो 10 प्रतिशत हैं गुर्जर, दलित आदि उसके लिए तो केंद्र सरकार निश्चित रूप से करेगी। केंद्रीय सरकारों के प्रयासों से, 2008 से लेकर अब तक 2000 के आसपास कश्मीरियों को पुनर्वासित किया गया है। 2022 के अंत तक कश्मीर के लगभग 10 इलाकों में घर बनाकर उनको पुनर्वासित किया जा सकेगा ऐसी खबरें हैं।

अब ज़रूरत है कि कश्मीर में नई आबादी को आतंक से मुक्त वातावरण और सुरक्षा देने की। 10 मार्च को आये चुनावी परिणामों ने केंद्रीय सरकार के हाथ मज़बूत किये हैं। रूस और यूक्रेन के बीच के युद्ध में भारत का क़द बढ़ा है और विश्व में भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र की भूमिका में स्थापित हो गया है। इसलिये अब बेहद ज़रूरी है कि कश्मीर में आतंक का नामोनिशान मिटाया जाए और जो गुंजाइशें आतंकवादी घुसपैठियों को घुसने के लिए बनी रह जाती हैं वे ख़त्म हों। कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि नरसंहार के घिनौने दृश्य को कितने नवयुवकों ने देखकर प्रतिशोध का पाठ पढ़ा, आज ज़रूरी है कि जितने लोगों को पुनर्वासित किया जा रहा है, उन्हें सुरक्षित बनाने के लिए कितने सर्जिकल स्ट्राइक की योजना बनाई जा रही है, कश्मीर की आंतरिक सुरक्षा के लिए क्या किया जा रहा है। 

आज आवश्यक है कि फ़िल्म के प्रमोशन के लिए प्रधान सत्ता को चोंगा या भोंपू सम्हालने की बजाय, फ़िल्म से प्राप्त आय को कश्मीर के उन पीड़ितों के लिए खर्च किया जाए जिनकी पीड़ा का चित्रण संवेदनशील लेखक, निर्देशक और निर्माता ने करते हुए दर्शकों को  न केवल आकर्षित किया है बल्कि उत्तेजित किया है, उन्मादित किया है, भावुक किया है। युवक और स्त्रियां कहने लगी हैं कि ज्यादा से ज्यादा टिकट लेकर फ़िल्म देखी जाए और उस निर्माता को लाभ पहुंचाया जाए, जिसने इतना साहस दिखाया। यही भावुकता बॉक्स ऑफ़िस की जान है और बैलट बॉक्स की भी। मेरा अंत में फिर निवेदन है कि संवेदनशीलता और सहनशीलता, राजनीति और व्यापार की वस्तुएं नहीं हैं, स्थापित करने की चीज़ें हैं। कश्मीर पर फ़िल्म बनाने वाले की मार्केटिंग छोड़कर कश्मीर के भविष्य बनाने पर ध्यान लगाया जाए। 

पुनःच :

इस फ़िल्म को सारा देश एक राजनैतिक दल की प्रायोजित प्रोपेगंडा वाली फ़िल्म कह रहा है। निर्माण, वितरण, मार्केटिंग यानी विज्ञापन या हो-हल्ला आदि में उस राजनैतिक दल का एड़ी से चोटी तक का चुनावी सदस्य लगा हुआ है। निस्संदेह करोड़ों की उन्माद-उगाही का बंटवारा भी फिनांसर और मार्केटिंग दल के बीच होगा ही। 

इस फ़िल्म के बीज की एक झलक एक दृश्य में दिखाई देती है जिससे एक विशेष संगठन, दल और दलीय-परजीवी मीडिया को स्पष्टतः जुड़ा हुआ देखा जा सकता है। 

     फ़िल्म में मुख्य अभिनेता के पिता के नाम का चरित्र अपने चार मित्रों के पास अपने दूसरे लगभग नायक पुत्र को अपने चिता की  राख लेकर जाने और उनके साथ जाकर अपने कश्मीर स्थित घर में छिड़कने के लिए कहता है। ये चार मित्र  हैं एक सेना का अधिकारी, एक जिला प्रशासक, एक डॉक्टर और एक मीडिया मालिक। डॉक्टर एक वार्त्ता के दौरान मीडिया को सरकार की रखैल कहता है और दोनों में झूमा झटकी होती है। 

यही मीडिया कर्मी एक आतंकवादी सरगना से एक छह वाक्यों का साक्षात्कार लेता है और यही साक्षात्कार वह परमाणु बम है जिसने प्रचार का विस्फोट किया। 

साक्षात्कार है --

मीडिया मालिक : आपने कितने लोगों को मारा।

आतंकी सरगना : बीस पच्चीस।

मीडिया मालिक : सतीश (पुष्कर का बेटा) को क्यों मारा?

आतंकी सरगना : क्योंकि वह फलां (एक संगठन जो एक राजनैतिक दल का संचालन कर रहा है और कभी प्रतिबंधित भी था) का सदस्य था। 

मीडिया मालिक : (फलां संगठन को गाढ़ा करता है) अच्छा फलां का सदस्य था इसलिए मार दिया। 

आतंकी सरगना : हां। 


इस छः वाक्य के साक्षात्कार से क्या सिद्ध हुआ? 

यही कि सारा मामला फलां संगठन और आतंकी संगठन के बीच का है। जिन हिंदुओं ने पलायन किया (पंडित, दलित, व्यापारी एवं अन्य) वे गौण थे। फ़िल्म भी निर्माता निर्देशक और वितरक दल के जातीय लोगों की थी। कश्मीरी पंडितों के नाम का तो सिर्फ दोहन किया जा रहा है। ख़ाली बैठी जनता मनोरंजन के नाम पर इतना समय तो दे ही सकती है।

        मोटी आंखों से विस्थापितों का इसमें कोई भला होनेवाला नहीं दिख रहा है।

    

@ डॉ. आर. रामकुमार,

 

Comments

Popular posts from this blog

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।...

मार्बल सिटी का माडर्न हॉस्पीटल

उर्फ मरना तो है ही एक दिन इन दिनों चिकित्सा से बड़ा मुनाफे़ का उद्योग कोई दूसरा भी हो सकता है, इस समय मैं याद नहीं कर पा रहा हूं। नहीं जानता यह कहना ठीक नहीं। शिक्षा भी आज बहुत बड़ा व्यवसाय है। बिजली, जमीन, शराब, बिग-बाजार आदि भी बड़े व्यवसाय के रूप में स्थापित हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य आदमी की सबसे बड़ी कमजोरियां हैं, इसलिए इनका दोहन भी उतना ही ताकतवर है। हमें जिन्दगी में यह सीखने मिलता है कि बलशाली को दबाने में हम शक्ति या बल का प्रयोग करना निरर्थक समझते हैं, इसलिए नहीं लगाते। दुर्बल को सताने में मज़ा आता है और आत्मबल प्राप्त होता है, इसलिए आत्मतुष्टि के लिए हम पूरी ताकत लगाकर पूरा आनंद प्राप्त करते हैं। मां बाप बच्चों के भविष्य के लिए सबसे मंहगे शैक्षणिक व्यावसायिक केन्द्र में जाते हैं। इसी प्रकार बीमार व्यक्ति को लेकर शुभचिन्तक महंगे चिकित्सालय में जाते हैं ताकि जीवन के मामले में कोई रिस्क न रहे। इसके लिए वे कोई भी कीमत चुकाना चाहते हैं और उनकी इसी कमजोरी को विनम्रता पूर्वक स्वीकार करके चिकित्सा व्यवसायी बड़ी से बड़ी कीमत लेकर उनके लिए चिकित्सा को संतोषजनक बना देते हैं। माडर्न ...

चूहों की प्रयोगशाला

( चींचीं चूहे से रेटसन जैरी तक ) मेरे प्रिय बालसखा , बचपन के दोस्त , चींचीं ! कैसे हो ? तुम तो खैर हमेशा मज़े में रहते हो। तुम्हें मैंने कभी उदास ,हताश और निराश नहीं देखा। जो तुमने ठान लिया वो तुम करके ही दम लेते हो। दम भी कहां लेते हों। एक काम खतम तो दूसरा शुरू कर देते हो। करते ही रहते हो। चाहे दीवार की सेंध हो ,चाहे कपड़ों का कुतरना हो , बाथरूम से साबुन लेकर भागना हो। साबुन चाहे स्त्री की हो या पुरुष की, तुमको चुराने में एक सा मज़ा आता है। सलवार भी तुम उतने ही प्यार से कुतरते हो , जितनी मुहब्बत से पतलून काटते हो। तुम एक सच्चे साम्यवादी हो। साम्यवादी से मेरा मतलब समतावादी है, ममतावादी है। यार, इधर राजनीति ने शब्दों को नई नई टोपियां पहना दी हैं तो ज़रा सावधान रहना पड़ता है। टोपी से याद आया। बचपन में मेरे लिए तीन शर्ट अलग अलग कलर की आई थीं। तब तो तुम कुछ पहनते नहीं थे। इसलिए तुम बिल से मुझे टुकुर टुकुर ताकते रहे। मैं हंस हंस कर अपनी शर्ट पहनकर आइने के सामने आगे पीछे का मुआइना करता रहा। ‘आइने के सामने मुआइना’ , अच्छी तुकबंदी है न! तुम्हें याद है ,तुम्हारी एक तुकबंद कविता किताबों में छप...