Skip to main content

हर मन भूखा

हरमन भूखा
रह जाता है,
खाता नहीं दलाली।

जनसंख्या का गणित
संगठित लूट-मार में भागी।
एक दूसरे के पहुंचे से,
पहुंचे घर-घर दागी।
बिना-मोल बिक गयी जवानी
बिना तुले निष्ठाएं,
द्वेष, झूठ, मद, घृणा पागती
राजनीति बड़भागी।
सुप्त-कोश बन गए युवाओं
ने शक्तियां उछाली।
(किन्तु ....)
हरमन भूखा
रह जाता है,
खाता नहीं दलाली।

सारे न्यायशास्त्र के मानक
पिछलग्गू हैं उनके।
कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं,
तन गेंहू, मन घुन के।
उनका 'कृत्रिम' भी 'सच्चा' है
उनका 'छल' भी 'सद' है,
'सरल-सत्य शुभ' के पीछे
रखते वे गुहचर चुनके।
बाट-बाट बटमार उन्हीं के,
कदम कदम कुतवाली
(किन्तु ....)
हरमन भूखा
रह जाता है,
खाता नहीं दलाली।

यह उनका विज्ञान, एक को दाबें,
सौ दब जाएं।
उनका मंत्र, 'प्रणाम लाख के,
मात्र एक को जाएं।'
उनकी रेखा वक्र रहे, पर
सुगम-सरल कहलाये,
प्रकृति उनके साथ है, उनके
पत्थर भी तिर जाएं।
उनको अमृत-सिंधु मिला है,
यद्यपि रेत खंगाली!
(किन्तु ....)
हरमन भूखा
रह जाता है,
खाता नहीं दलाली।

हरमन अब भी भूखी-बस्ती में
मुरझाया रहता।
मरती मां के अंतिम दिन का
सर पर साया रहता।
फेंक गए कुछ दानवीर
आँगन में कल के सपने,
वह बुदधू अनुभवी आज पर ही
भरमाया रहता।
अच्छे दिन से
उसने कब से
दूरी बहुत बना ली।
(जी हां ....)
हरमन भूखा
रह जाता है,
खाता नहीं दलाली।
****
डॉ. रा. रामकुमार,
१४-२९.०५.२०१९
(६ बजे, १० बजे)

Comments

Popular posts from this blog

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।...

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब...

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि...