'तृण पुष्पों का संचय': डॉ. रवींद्र सोनवाने
डॉ. रवींद्र सोनवाने मेरे महावियालीन साथी रहे हैं। गणित के प्राध्यापक होने के साथ साथ वे साहित्य, इतिहास, समाजविज्ञान के भी गम्भीर अध्येता हैं। सामाजिक सरोकार के क्षेत्र में भी उनका पर्याप्त योगदान है। लगातार उनसे विचार विमर्श होते रहता है। कुछ दिन पूर्व ही उन्होंने बताया कि उनका तीसरा स्वतंत्र काव्य संकलन प्रकाशनाधीन है। वे चाहते हैं कि कोई टिप्पणी, भूमिका या समीक्षा उस पर लिख दूँ, ताकि रचना का एक दृष्टि से मूल्यांकन हो जाये।
मैं द्विविधा में पड़ गया।
घनिष्ठ रचनाकार के लेखन पर लिखित रूप से कुछ व्यक्त करने की अपनी सुविधाएं भी हैं और दुविधाएं भी। सुविधा यह कि रचना कर्म की सूक्ष्मतर जानकारी आपको उपलब्ध रहती है और दुरूहता या अस्पष्टता की स्थिति में चर्चा कर हल निकाला जा सकता है।
दुविधा मतभेद की स्थिति में होती है। चिंतन, विचारधारा, परिस्थियों के प्रति अपने अपने दृष्टिकोण, मान्यताएं, आग्रह दुराग्रह आदि स्वाभाविक मानवीय द्वंद्व हैं।
लेखन में इससे ऊपर और हटकर भी मतभेद स्वाभाविक है। भाषा, बिम्ब, प्रतीक, शैली, शिल्प, विषयवस्तु, आदि। यद्यपि ये सारे बिंदु कवि की अपनी मौलिक और नितांत व्यक्तिगत संपत्ति होते हैं, इस पर केवल सहमति या असहमति हो सकती है, लेकिन काव्य में एक ऐसी स्थिति है जहां कवि शास्त्रीय विधानों से बंध जाता है। जैसे भाषा और शिल्प। कवि प्रायः इन दोनों स्थानों में अतिचार और अतिक्रमण करता है तो वैयाकर्णिकों के न्याय क्षेत्र में आ जाता है।
डॉ. सोनवाने दुरूह भाषा के उत्कृष्ट लेखक हैं, यह विचार उनके आसपास की दुनिया में बना हुआ है। दुरूह भाषा और शैली की यही सुविधा है कि वह संप्रेषित न हो पाने पर भी उत्कृष्ट कहला जाता है। डॉ. सोनवाने संस्कृत-निष्ठ और तत्सम शब्दावलियों में अपनी काव्य रचना करते हैं। छायावादी काल में और उसके आगे पीछे हरिऔध, निराला, पंत, प्रसाद, अज्ञेय, मुक्तिबोध आदि की रचनाओं में ऐसी भाषा बहुतायत में उपलब्ध है और ये सभी उत्कृष्ट रचनाकार के रूप में साहित्य जगत में विख्यात हैं। डॉ. सोनवाने के कवि कर्म पर उसी उत्कृष्टता की छाया है।
वे अभिव्यक्ति के क्षेत्र में रुच्यानुकूल नव्य शब्दावली गढ़ने में भी कवि-स्वातंत्र्य का लाभ ले लेते हैं। रचनाशैली से वे विशेषत: अध्यापक अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की कृति 'प्रिय प्रवास' से प्रभावित हैं। किंतु हरिऔध ने प्रिय प्रवास में अतुकांत या भिन्न तुकांतता का प्रयोग किया तो है, मगर संस्कृत वृत्तों / वर्णिक छंदों की परम्परा का भी निर्वाह किया है। यथा (वृत्त द्रुत विलंबित)
अतसि-पुष्प अलंकृतकारिणी।
शरद नील-सरोरुह रजिनी।
नवल-सुन्दर-श्याम-शरीर की।
सजल-नीरद सी कल-कान्ति थी।।
(१६,प्रि.प्र.,ह.,प्रथम सर्ग)
युवा मन पर जिस काव्य का गहरा प्रभाव पड़ता है वह जाने या अनजाने हमारी चेतना और अभिव्यक्ति का आधार बन जाता है। वृत्त या छन्द के अनुशासन की फिर परवाह नहीं रहती। इस संग्रह की अधिकांश रचनाएं डॉ. सोनवाने के युवाकाल की है। आलोच्य कृति से 'उदधि सुधा' का पद उद्धृत है..
शुचि अन्तर का उद्दाम वेग,
सुलगा दे अन्तः दीपक को।
कर दे उर्वर मानस तल को,
अमृत सुधा सा बन जाने में।
शिल्प के मामले में डॉ. सोनवाने छन्द और स्वच्छंद शैली के कवि हैं। वे मात्रिक या वर्णिक छन्द के कवि नहीं हैं। तत्सम शब्दावलियों के साथ साथ अभिव्यक्ति के कौशल की दृष्टि से नए शब्द गढ़ने की कला उनमें है। प्रायः विद्वान कवियों में यह प्राकृतिक रूप से होती है। इस संग्रह में वह कला स्थान स्थान पर देखने मिलेगी।
भाषा, शब्द विन्यास के अतिरिक्त कवि डॉ. सोनवाने एक संवेदनशील, सांस्कृतिक और पारम्परिक कवि होने के साथ साथ प्रकृति और लोक मान्यताओं के कवि हैं। उनके चिंतन और संवेदन का क्षेत्र विस्तृत है। पुष्प उनके आकर्षण के केंद्र हैं तो धूल, घास और ओस भी उनका ध्यान केंद्रित करती है। प्रेम उनका स्थायी भाव है। यह प्रेम स्त्री पुरुष प्रेम ही नहीं है, यह प्रेम अदृश्य रहस्यमय के प्रति भी है, मानव के प्रति भी है, प्रकृति के अंग उपांगों के प्रति भी है, हिंदी के प्रति, राष्ट्र के प्रति, भारत-भूमि के प्रति जिसे वे भारत-माता भी कहते हैं, उनका प्रेम उमड़ता है।
उनके संग्रह को निम्नलिखितानुसार शीर्षकों में बांटकर देखा जा सकता है।
१. मुख्य शीर्षक के कविता शीर्षक
भाव पुष्प उद-वाह. 183, स्वर उपहार. 185, आत्म संवेदना. 194, सृजन पूरणा .195, युग स्वप्न. .189, रस प्राश 201, संचित अभिलाष. ..89, हृदय के तार 129, हृदय किसलय. ..128, अन्तर पराग 84, प्रिय का संदेश. 59, नीरव गीता. ., मृदुल-पुकार. 31, व्यथा कथा. 23, अन्तर अन्वेष .63,
२. कवि की दृष्टि में वस्तु और विषय
सख्य सुमन... 199, अरी! धूल तू.... 190, तृण पुष्पों का संचय. 177, अगर मैं घास हूं. 166, सुख-शांति-न्याय-स्वप्न. .124, धरा विभव. .66, हिंदी. 19.
३. कवि की कथात्मक कविताएं
संत कान्हो पात्रा ..168, संत चोखामेळा. 152, भक्त सावता माली 144, जगत कथा 40.
४. कवि का छाया प्रेम और विरह
चिर अभिलाष. .192, साधक प्रेमवरण. 188, प्रथम मिलन. 127, प्रणय मधुता. 117, नेह विधान. ...162, प्यासे दिन-रैन... ....139, विरह के अवसाद. 38, व्यथित प्रेम. 34,
चिर विरह. 29, प्रेम संदेश. 3, विधवा विरह. 118.
५. कवि का राष्ट्र प्रेम, राष्ट्रवादिता,
जाग मनुज.. 92, मानव तू. 141
६. कवि का प्रकृति प्रेम
रचना संसार. 111, उषा 112, अरुणोदय पथ.. 97, मंगल प्रभात. 134, अरुण स्वरों का प्रात. 35, मृदु वाटिका.. 21,
ओस बिंदु. 14.
७. परम्परावादिता, सांस्कृतिकता या पौराणिकता
हे वीणापाणि 7, चित्त धरो रघुवीर, शंख ध्वनि. 181, शरण वत्सल... 176, तुम जगत जननी ..115, ब्रह्म शक्ति (तीन). .104, राम तत्व. 46, पुण्य भूमि 9, कल्प मानवी. 8,
८. मनोविकरात्मक कविताएं
आत्म वेदना. 20, वेदना 33, भक्ति विधान. 74, आशा जीवन 75, आशा का प्रसाद. 76
९. नारी विमर्श
मातृत्व .16,"बेटी" .68, नारी अमृत की धार... 73, नारी हृदय प्रसाद. 71, नारी चरण .180, प्रणय-प्राण : नारी .70, तेजस्विनी 10
उपर्युक्त विभाजन से डॉ. सोनवाने के इस संग्रह का लगभग समग्र रूप पाठकों के समक्ष आएगा।
एक संवेदनशील कवि की भांति वे निरन्तर लेखन में सक्रिय हैं और अपना प्रशंसा-वर्ग निर्माण करने में सक्षम हैं।
उपसंहारेण, मैं प्रख्यात प्रकृति के कवि भवानी प्रसाद मिश्र जी की निम्नांकित पंक्तियों के साथ उनके इस संकलन के लोकोपकारी होने की कामना करता हूँ।
कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।
०भवानी प्रसाद मिश्र
अंततः गोस्वामी तुलसीदास की इन चौपाइयों को संकलन के कवि और उनके पाठकों को समर्पित कर पूर्ण विराम चिन्हित करता हूँ...
निज कबित्त केहि लाग न नीका।
सरस होउ अथवा अति फीका।।
जे पर-भनिति सुनत हरषाहीं।
ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।।
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० गो. तुलसीदास
@ डॉ. रा. रामकुमार,
साहित्य संदर्भ, ऑरम सिटी, गोंदिया रोड, नवेगांव-बालाघाट
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