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अपनी सोच, अपनी अभिव्यक्ति

अपनी सोच, अपनी अभिव्यक्ति

हर किसी की अपनी सोच, अपनी फ़ितरत, अपना स्वभाव, अपनी प्रकृति-प्रवृत्ति, अपने अनुभव-प्रभाव, अपना चेतन-अवचेतन, अपना व्यावहारिक मानस मंडल होता है। उसी के अनुरोध-बल पर किसी बात के व्यक्ति अपने अर्थ लेता है, अपनी व्याख्या करता है।
जोश मलीहाबादी की एक ग़ज़ल है -
नक्शे ख़याल दिल से मिटाया नहीं हुनूज़। 
बेदर्द मैंने तुझको भुलाया नहीं हुनूज़।।

रेख़्ता और कविता कोश में यह ग़ज़ल मिलती है। उस्ताद मेंहदी हसन ने इसे बहुत दिलकश अंदाज़ में गाया है। इस गाई हुई ग़ज़ल में एक अलग शे'र  है, जो दोनों स्रोतों में नहीं मिलता। वह यह है -

तेरी ही जुल्फ़ेनाज़ का अब तक असीर हूं,
यानी किसी के काम में आया नहीं हुनूज़।

जुल्फ़ेनाज़ : ज़ुल्फ़ के नखरे, नखरीली ज़ुल्फ़।
असीर : गिरफ़्तार, मुब्तिला।।
हुनूज़ : अब तक, अभी तक।

अर्थात तेरे जुल्फ़ों के नखरों का यानी लटों के तरह तरह से बनाने और उनको बनाकर इतराने में ही इतना गिरफ़्तार हो चुका हूं, उनका ऐसा प्रभाव हुआ है कि मन वितृष्णा, ऊब से भर गया। अब किसी की जुल्फों की जानबूझकर लटकाई गई लटों को देखकर मन मितलाता है। मेहनत कर के बिखरी छोड़ी गई लटों के हम काम न आ सके यानी उनके शिकार न हुए। 

अब यह अपनी तरह का अर्थ है। हो सकता है शायर यह कहना चाह रहा हो कि तुम्हारी नाज़ से बनाई लटों के हम ऐसे दीवाने हुए कि अब तक किसी और के प्रभाव में नहीं आ सके। 

यानी सबका अपना आशय होता है, मगर उसे कौन कैसा गृहण करता है, यह गृहण करनेवाले की मानसिकता पर है। इन दोनों व्याख्याओं के अलावा कुछ और भी इस शे'र की व्याख्याएं हो सकती हैं। 

उम्मीद है, यह उदाहरण अनेक संदर्भों में काम आयेगा। हालांकि कोई उम्मीद भी नहीं है। 

फिर भी संवाद होते रहना चाहिए।

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