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गुलशेर खां शानी : शालवनों का द्वीप

 गुलशेर खां शानी: शालवनों का द्वीप



गुलशेर खां शानी

            ज़िद आख़िर ज़िद होती है। कुछ मिले न मिले, बात लग जाये तो फिर पहाड़ खोद कर रास्ते निकालना मुश्किल नहीं होता। अब चाहे फरहाद हो या दशरथ मांझी, या मुझे भी इस फेहरिस्त में शामिल होने में कोई शर्म या झिझक नहीं।

           बड़ी निराशा, व्यथा और पीड़ा की बात है कि बहुत ही ज़रूरी और महत्व की मूल्यवान पुस्तकें अब न दुकानों में मिलती न ऑन लाइन विक्रेताओं के पास। पीडीएफ तक नहीं। कहाँ गयी किताबें? कैसी साजिशों और किसकी साजिशों का शिकार हो गईं ये?

             पिछले दशकों में, शायद नब्बे के दशक से बस्तर, नक्सल, सलवा जुडूम, एस पी ओ, आदि बहुत चर्चित हुए हैं। जंगल सत्याग्रह, जल, जंगल और ज़मीन, आदिवासी विमर्श, और बस्तर का असंतोष बड़ी चरचा में हैं। जंगल काटकर उद्योग स्थापित करना या इमारती लकड़ियां स्मगल करना एक परम्परा की तरह अंग्रेजों के समय से चला आ रहा। वनवासियों का शोषण बेगारी, विस्थापन सब आम बात की तरह हर सरकार का अघोषित एजेंडा रहा है। वन कर्मियों और पुलिस कर्मियों के क़िस्सों से अख़बार भरे पड़े हैं।

          ऐसी स्थिति में जिज्ञासा वृत्ति का बेचैन होना भी स्वाभाविक है।     

         गुलशेर खां शानी, लाला जगदलपुरी और हरिहर वैष्णव, ने बस्तर के जन जीवन पर बहुत लिखा है। कुछ शोधकर्ताओं की भी किताबें आयी हैं। बस्तर या दंडकारण्य का सांस्कृतिक इतिहास, गुंडा धुर की तलाश, जैसी अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। पर ज़िद है कि जो नहीं मिल रहा, वह चाहिये। 

       शानी की कुछ किताबें हैं। फ़ातिहा या कालाजल, शालवनों का द्वीप, मेरी बस्तर की कहानियां आदि। काला जल और मेरी बस्तर की कहानियां तो डाक से आ गईं। पर शालवनों का द्वीप न ऑन लाइन विक्रेताओं के पास मिली न पीडीएफ ही मिला।

       एक दिन शानी के शालवनों के द्वीप पर एक समीक्षा पढ़ी जो शायद शानी स्मृति पर हुए किसी कार्यक्रम में पढ़ी गयी थी। लेखक से सम्पर्क किया कि उक्त पुस्तक कैसे मिल सकती है। पता चला कि उन्हें भी उस पुस्तक की फोटोकॉपी या pdf किसी ने मुहैया कराई थी। शानी रचनावली के खंड 5 का वह हिस्सा थी। वह pdf मुझे मिला।

       पीडीएफ पढ़ने के बाद उस पर कुछ लिखने का मन हुआ जिसे फिर कभी फुरसत में कहकर आगे बढ़ा।

        फुर्सत मिली तो फिर पीडीएफ की खोज की। वह किसी फ़ाइल में नही मिला। डिलीट हो गया था।

       मैं बहुत परेशान हुआ। खूब खोजने पर भी जब नहीं मिली तो दोबारा उन्हीं लेखक से संपर्क किया। वे एक स्कूल के शिक्षा अधिकारी थे, व्यस्त थे। उन्होंने टका सा जवाब दे दिया।

       गनीमत थी कि मेरे pdf से वह संस्मरण मेरे एक मित्र ने प्रिंट निकलवा लिया था। एक दिन बातों बातों में उसने मेरी परेशानी सुनी और आश्वस्त किया कि प्रिंट की फोटोकॉपी मिल जाएगी। मिली।

         पर अब मेरी जिद यह कि इसके वर्ड संस्करण और pdf दोनों तैयार किये जायें ताकि यदि कोई जिज्ञासु चाहे तो उपलब्ध कराए जा सकें।

         आज वह कोशिश कामयाब हो गयी। इस सप्ताह उसके प्रूफ इत्यादि देखकर pdf बनवा लूंगा ताकि मांगने पर कभी भी उपलब्ध करा सकूं।

         मुझे ऐसा कोई मुग़ालता नहीं है कि प्राध्यापक था कि प्रिंसिपल था कि फलां श्रेणी का राजपत्रित अधिकारी था। विद्यार्थी हूँ और पढ़ने लिखनेवालों के साथ ज़मीन पर बैठ सकता हूं।

सोचा बता दूं! शुभ रात्रि!💐


@ कुमार दानी, १७.०९.२५


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