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एक अनमोल पार्सल

एक_मूल्यवान_पार्सल


अपने मित्र हिमांशु याज्ञिक ने राजनांदगाँव की चर्चित कवियों और गद्यकारों की वे कृतियां भेजी जो लगभग लुप्तप्राय है। ये हैं ख्यातिलब्ध एवं अनेक सम्मानों से सम्मानित, 'सवेरा संकेत' के नींव-नियामक( शरद कोठारी के समग्र साथी) #रमेश_याज्ञिक (बाबूजी, हिमांशु के पिताजी), प्रखर और प्रचंड कवि #नन्दूलाल_चोटिया ( शरद कोठारी, मुक्तिबोध और रमेश याज्ञिक के मंडल के मुखर सदस्य), प्रमुख प्रगतिशील कवि #मलय ( शिवकुमार शर्मा 'मलय', मुक्तिबोध के स्थानापन्न, हरिशंकर परसाई के अनुज, प्रगतिलेखक संघ राजनांदगाँव  के संस्थापक महासचिव, मेरे गुरु और सचेतक), प्रगतिशील लेखक संघ राजनांदगाँव के संस्थापक सचिव #प्रो_पुन्नी_सिंह_यादव (प्रमुख प्रगतिशील कथाकार और उपन्यासकार,), #प्रो_शरद_गुप्ता ( हिमांशु और मेरे दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक, मुक्तिबोध के विपात्र के एक पात्र, मेरे हिंदी विभागाध्यक्ष गुरु, प्रख्यात लेखक #डॉ_गणेश_खरे, के सहयोगी और शोधार्थी छात्र)।


यथासंभव यथासमय  इन पर 'राजनांदगांव की साहित्यिक विरासत' के अंतर्गत चर्चा करेंगे। 

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काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।...

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( चींचीं चूहे से रेटसन जैरी तक ) मेरे प्रिय बालसखा , बचपन के दोस्त , चींचीं ! कैसे हो ? तुम तो खैर हमेशा मज़े में रहते हो। तुम्हें मैंने कभी उदास ,हताश और निराश नहीं देखा। जो तुमने ठान लिया वो तुम करके ही दम लेते हो। दम भी कहां लेते हों। एक काम खतम तो दूसरा शुरू कर देते हो। करते ही रहते हो। चाहे दीवार की सेंध हो ,चाहे कपड़ों का कुतरना हो , बाथरूम से साबुन लेकर भागना हो। साबुन चाहे स्त्री की हो या पुरुष की, तुमको चुराने में एक सा मज़ा आता है। सलवार भी तुम उतने ही प्यार से कुतरते हो , जितनी मुहब्बत से पतलून काटते हो। तुम एक सच्चे साम्यवादी हो। साम्यवादी से मेरा मतलब समतावादी है, ममतावादी है। यार, इधर राजनीति ने शब्दों को नई नई टोपियां पहना दी हैं तो ज़रा सावधान रहना पड़ता है। टोपी से याद आया। बचपन में मेरे लिए तीन शर्ट अलग अलग कलर की आई थीं। तब तो तुम कुछ पहनते नहीं थे। इसलिए तुम बिल से मुझे टुकुर टुकुर ताकते रहे। मैं हंस हंस कर अपनी शर्ट पहनकर आइने के सामने आगे पीछे का मुआइना करता रहा। ‘आइने के सामने मुआइना’ , अच्छी तुकबंदी है न! तुम्हें याद है ,तुम्हारी एक तुकबंद कविता किताबों में छप...