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शहरी और जंगली मदनमस्त

एक चरण और, प्रकृति की ओर....
मदनमस्त की भोर                                                  
  



एक

एक कवि की विवशता और लाचारी देखिए, लिखता है-
लिपटकर उसके आंचल में न आंचल को समझ पाया।
पड़े रहकर भी पांवों में न पायल को समझ पाया।
वो दिल थी और धड़कन थी मेरी रग-रग में बहती थी,
सदी थी मां  मैं' ही उसके न इक पल को समझ पाया।
                                (10.08.25, रविवार, भाद्र प्रतिपदा)
यही हम सबका क़िस्सा हैं। हम जिसके जितने निकट होते हैं उसे उतना ही नहीं समझ पाते। मां की आंखें, मां की थपकी, मां का लाड़, प्यार, दुलार, उसका माथा सहलाना, पीठ थपथपाना, उससे लिपट जाना, कितनी नज़दीकी है मां से, पर हम उसके हाथ की रेखाएं भी कभी नहीं देख पाते। उसकी आंखों में ही कितना झांक पाते है? हमने उसकी उंगलियों की गठाने और उसके पांव के छाले कहां देखें है। उसकी हंसी में इतना जादू होता है कि हम उसी में सम्मेहित होकर रह जाते हैं। उसे पढ़ ही नहीं पाते। यह सम्मोहन उसे प्रकृति द्वारा प्रदत्त शक्ति है कि जिस पर हमारा वश नहीं चलता। उसकी सूक्ष्मदर्शी आंयों हमारा अणु अणु देख लेती है और हम उसके मोटे मोटे आंसू उसका दुख दर्द नहीं देख पाते। इतना मातृ-सम्मोहन?
         प्रकृति भी तो मां है। ऊपर की सारी बातें उस पर भी तो लागू होती हैं। जिसका ले लेकर हम कई जनमों के लिए ऋणी हो गए हैं, उसको सात जनम में नहीं लौटा सकते। फिर भी समय निकाल कर उसकी सेवा तो कर सकते हैं। उसके हाथ-पांव दबा कर, उसका माथा चूमकर, उसके तलवे मलकर कुछ तो उसकी सुश्रुषा कर सकते हैं। हज़ारवां अंश ही सही, उसको कुछ तो प्रतिदान कर ही सकते हैं।
            पर्यावरण से प्यार, जल संरक्षण, पौधारोपण आदि आदि हमारी तुच्छ सुश्रुषाएं हैं जो प्रकृति को बड़ा आराम देंगी, बड़ा सुकून पहुंचाएंगी।
       कुछ ऐसा ही सोचकर नगर के संभ्रांत और प्रतिष्ठित नागरिकों ने ‘एक क़दम और, प्रकृति की ओर’ के विजन को लेकर ‘प्रति रविवार पौधारोपण’ का अभियान छेड़ रखा है। इस अभियान में नगर के सफल और लोकप्रिय सर्वरोग चिकित्सक, हृदयरोग विशेषज्ञ, स्त्रीरोग विशेषज्ञ, वनस्पति-विज्ञ प्राध्यापक, विभिन्न विषयों के प्राध्यापक, भाषा विद, आयकर अधिकारी, क्रीड़ा अधिकारी, अनेक सामाजिक कार्यकर्त्ता, व्यवसायी, उद्यमी, आदि जुड़े हुए हैं।  
       इस रविवार को मैंने भी इस अभियान में हिस्सेदारी की। मेरे साथ विद्यालय के एक व्याख्याता और एक व्यवसायी सपत्नीक जुडे़। शिक्षण कार्य से जुड़े लोग उपस्थिति के प्रति व्यवस्थित रहते हैं तो हम दो नए शिक्षण-वृत्ति-जन ही अभियान में उपस्थित हुए।
         किसी मान्यवर का आज जन्मदिन था, उन्होंने सार्वजनिक आमंत्रण वाट्सएप समूह में दिया तो था किन्तु किसी आवश्यक कार्य में व्यस्त होने से वे आ नहीं सके। 
           कहने को रविवार छुट्टी का दिन है, लेकिन इसी दिन सर्वाधिक व्यस्तता रहती है। जो काम कार्यदिवसों की धक्का मुक्की में टल जाते हैं या टाल दिए जाते हैं, उन्हें रविवार को समय देना पड़ता है। ऐसे ही किसी काम में उलझ जाने से वे नहीं आ सके, किन्तु किसी अन्य महिला सदस्य का जन्मदिन था, वे पौधा रोपण करने सामने आईं। यही परम्परा है कि जिस किसी का रविवार को जन्मदिन पड़ जाता है, पौधा लगाने में पहला हाथ उसका होता है। एक जन्मदिन प्रतिगीत गाया जाता है। गीत सुन्दर है।


दो

     आज मदनमस्त का पौधा लगाया गया। मदनमस्त नाम सुनकर ही मन मस्त हो जाता है। मैंने मदनमस्त नाम बहुत सुना है। देखा अभी तक नहीं है। सत्तराधिक वर्ष मस्त बीत गए, मदन-मस्त के दर्शन आज तक नहीं हुए। 
    एक दिन प्रातः-भ्रमण के दौरान विवेकानंद नगर से नर्मदा नगर मार्ग से मोती उद्यान जाते हुए, शिवमंदिर चौराहे में मन मस्त सुगंध नासारंध्र में घुसकर मुझे विचलित कर गई। सुगंधें मुझे हमेशा विचलित करती हैं। चाहे वह पुष्प की सुगंध हो या फिर चरित्र की। 
         मैं ठिठककर खड़ा हो गया और सावधान होकर उस दिशा को सूंघने लगा जिधर से वह सुगंध आ रही थी। और स्वल्प प्रयास से मैंने सूंघ लिया कि सुगंध कहां से आ रही थी। मैं मोती उद्यान से लौट विवेकानंद नगर की ओर लौट रहा था और इस दशा में बाईं दिशा में जो बंगला था उसके मुख्यद्वार पर ही एक घना छतनार मौलश्री या रसाल के कद्दावर वृक्ष के सफेद छोटे पुष्ट फूलों से वह खुशबू किसी चंचल बालिका की तरह खेल खेल में हर किसी राहगीर से टकरा रही थी। मैं अभी तक सुगंधविहीन मार्ग या कहीं कहीं एकत्र कचरे के ढेर से उड़ती दुर्गंध से नाक ढंकते आया था। इस प्रकार खुशबू के बादल फटने से मैं जैसे उसमें दब ही गया। मैं पेड़ के नीचे जाकर खड़ा हो गया। यह सुगंध मोंगरे की परिवारिक सुगंध से बड़ा मीठा मेल रखती थी। मोंगरे हमारे आंगन में ऊगे हमारे स्वजन ही थे। उन्हें मैं न जानूं यह संभव नहीें। यह सुगंध कुछ नई थी। अब किससे पूछूं यह वृक्ष किस पुष्पवंश का है? मुझे कभी मालती नाम याद आ रहा था, कभी मदनमस्त। मुश्किल यह थी कि मैं दोनों में से एक से भी परिचित नहीं था। विवश होकर  केवल सुगंध फेंफड़ों में भरता हुआ मैं किसी अपरिचित मुख्यद्वार के सामने पेड़ के नीचे खड़ा रहा।
         लेकिन पराए घर के द्वार पर आप यूं कब तक खड़े रह सकते हैं? चल देने की शराफ़त सूझते ही बिछड़ने के भाव से मैंने आंख उठाकर पेड़ की तरफ़ उदासी से देखा। मुझे अचानक ऐसा लगा कि एक डाली बढ़ाकर पेड़ ने मुझे ढांढस बंधाने की कोशिश की हो। यह एक फूलों भरी डाल थी जो बाहर की ओर लटकी हुई थी। मन ने कहा थाम लो इन हाथों को। किसी शायर की एक पंक्ति भी गूंज उठी-
              कुछ यादगारे शह्रे सितमगर ही ले चलें।
             आए हैं इस शह्र में तो पत्थर ही ले चले।
        उस अपरिचित पुष्प की छुअन को साथ ले चलने के भाव से मैंने उस फूलों भरी डाल की ओर हाथ बढ़ाकर उसे छू लिया। खुशबू की एक लहर मेरे बदन में उतर गई। इसी समय मन में एक दूसरी पंक्ति गूंजी-
              राज़ जो कुछ हो इशारों में बता भी देना।
              हाथ जब उससे मिलाओ तो दबा भी देना।।
        इन बहकानेवाली पंक्तियों के याद आते ही मेरा लोभी मन उच्छ्रंखल हो गया और ‘मत चूके चौहान’ की प्रेरणा से मैंने वह अनैतिक काम कर ही लिया कि कुछ महकते हुए फूल अपने मुट्ठी में भर ही लिए। मेरे बेईमान मन ने मेरी पीठ ठोंककर कहा: ‘शाबाश, डरो मत। यह डाली घर के बाहर लटक रही थी। कोई टोके तो उसे समझा देना कि तुमने अतिक्रमण नहीं किया और आईपीसी की धारा तुम पर लागू नहीं होती। तुम बरी हो।’
         मैं तेज़ी से घर की तरफ़ बढ़ने लगा। घर जाकर पत्नी से विमर्श करेंगे कि मैं किस मूल्यवान पुष्प को घर महकाने ले आया हूं। कुछ परिणाम तो निकला था, पर अब बहुत दिन हो गये, याद नहीं है कि हम किस निष्कर्ष पर पंहुचे थे।
      
तीन

  आज मदनमस्त के पौधे से परिचय हुआ। मेरे बगल में वनस्पति-विद आचार्य खड़े थे। महाविद्यालय में भी हमारे विभाग साना-बा-साना (अगल बगल) थे। उन्होंने बताया - 
           वे: सर, यह जो रोपा जा रहा है, वह मदनमस्त है।
           मैं: ओह,  बहुत नाम सुना था इसका। आज देख रहा हूं।
         मैं झुककर उसकी पत्तियां देखने लगा। अभी पत्तियां ही दिखेंगी। क्योंकि वह शिशु पौधा है। ‘शिशु यानी होनहार, होनहार वह जिसे होना है अभी। जिसकी पत्तियां चिकनी हैं।’ मेरे अंदर कहावत ने फुसफुसाकर कहा-‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात।’
        अब बात निकली तो दूर तक जाने के लिए उसने कमर कस ली। हिन्दी में ‘मदन-मस्त’ का अर्थ है-मदन अर्थात कामदेव, मस्त यानी मुग्ध, मगन, अपने में खोया हुआ।            नामकरण यह है। 
        वास्तु की दृष्टि से मदनमस्त घर की सीमा में अत्यन्त शुभ माना जाता है। मदनमस्त की कई प्रजातियां हैं। इसलिए उनके अलग अलग वानस्पतिक (बाटनीकल) नाम हैें। इंडियाना यलंग यलंग, वाइन टेल ग्रेप्स, हरी चंपा, कंथाली चंपा, हिरवा चंपा, मनोरंगिनी या मनोरंजिनी, मनरंजितम, आर्टाबोटिस हेक्सापेटालस, साइकस ट्री, साइकस सरसीनेलिस।
        क़द में यह एक पौधा है, पेड़ नहीं है। पौधों की ऊंचाई भी पौधों जितनी। तीन फुट या चार फुट। बहुत हुआ तो पांच फिट। एक तरह से झाड़ी कह लीजिए।
        कुछ आठ दस फिट भी बढ़ जाते हैं। इनके रूप-रंग में कोई ठिकाना नहीं। इसलिए इन्हें बहुरूपिया कहते हैं।
       इसके फूल हरे होते हैं इसलिए इसे हरी चंपा कहते हैं। इसकी गंध कटहल या सीताफल की तरह होती है। बहुत तेज और मादक। इसके फूलों से उत्तेजक पेय और इत्र बनाए जाते हैं। मदनमस्त नाम से एक इत्र (अत्तर) भी बाजार में उपलब्ध है जो पूरी तरह अल्कोहल से मुक्त है।
        अब जो बहुत लोकप्रिय हो जाए तो उसके नाम से किंवदंतियां या अफ़्वाह (उड़ाई हुई बातें, झूठी ख़बर) फैल ही जाती हैं। कोई कहता है कि डरावने सपने आएं तो इसे सिरहाने रखकर सोने से नहीे आते। इसके फूल से ऐसा अर्क बनता है जो 'मनरंजन' यानी 'मनमस्त' करने के काम आता है। उत्तेजक से यही आशय है। बंगाली में इसीलिए इसे ‘मोनोरोन्जित’ (मनरंजित) कहते हैं।
         इसी का एक जंगली रूप भी है-क्वीन सागो। क्वीन सागो के फूलों का चूर्ण या पाउडर सिरदर्द, माइग्रेन, चक्कर, उल्टी, गले में खराश और दांत विकारों के इलाज के लिए उपयोगी माना जाता है। घाव, सूजन, पेट फूलना और ट्यूमर को ठीक करने के लिए भी इसका उपयोग लंबे समय से औषधीय रूप में किया जा रहा है। इसे साइकस सिरसीनेलस कहते हैं।
           
         पौधारोपण आधा पौन घंटे में समाप्त हो गया और रोपण उत्सव में शामिल सभी जन धीरे धीरे अपने अपने घरों को चले गए।

     मैं भी अपने घर आया तो सरकार ने पूछा -‘कुछ हुआ? क्या क्या हुआ।’

       मैंने अपनी कै़फ़ियत इन शब्दों से देनी शुरू की -‘आज एक पौधा जमीन पर रोपा गया लेकिन बहुत से बीज मेरे मन में गोड़ दिए गए हैं..यह रही रिपोर्ट......’

वही रिपोर्ट यथावत आपके समक्ष प्रस्तुत है।

डॉ. रा. रामकुमारलीजिए

 कुछ आठ दस फिट भी बढ़ जाते हैं। इनके रूप-रंग में कोई ठिकाना नहीं  और ट्यूमर को ठीक करने के लिए भी इसका उपयोग लंबे समय से औषधीय रूप में किया जा रहा है। इसे साइकस सिरसीनेलस कहते हैं।
पौधारोपण आधा पौन घंटे में समाप्त हो गया और रोप उत्सव में शामिल सभी जन धीरे धीरे अपने अपने घरों को चले गए।

मैं भी अपने घर आया तो सरकार ने पूछा -‘कुछ हुआ? क्या क्या हुआ।’

मैंने अपनी कै़फ़ियत इन शब्दों से देनी शुरू की -‘आज एक पौधा जमीन पर रोपा गया लेकिन बहुत से बीज मेरे मन में गोड़ दिए गए हैं..यह रही रिपोर्ट।’

वही रिपोर्ट यथावत आपके समक्ष प्रस्तुत है।

डॉ. रा. 

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