Skip to main content

मधुमक्खियां

 मधुमक्खियों का ज्योतिर्गमय मंत्र 



सघन कालिख पुती मधुमक्खियों को तम नहीं भाता। 
उजालों से 'सुमन-रस की सहेली' का सरस नाता। 
सहस्रों पुष्प से मकरंद की चुनकर मिठासों को-
मधुर मधु-कुंड भरतीं वे, मनुज उसको चुरा लाता। 
                                                           @कुमार, 
                                           २८.१२.२३, १३.५०, 
                                               नवेगांव-बालाघाट. 

        पूरी कॉलोनी के बीचोंबीच एकमात्र बहुमंजिला इमारत के एक अपार्टमेंट में हम रहते हैं। हमारे प्रवेश के साथ हमारे अपार्टमेंट में मधुमक्खियों के छत्ते लगने शुरू हो गए। एक समय में आठ छत्ते केवल हमारे अपार्टमेंट में उन वातायनों के छज्जे में लटके थे जिनपर सूरज की रोशनी दिनभर पड़ा करती है। 
            आए दिन मधुमक्खियां उड़ा करती थीं। सुना था अगर वे भड़क जाएं तो झूम पड़ती हैं और पीड़ित के लिए वह सामूहिक हमला घातक होता है। कई बार जानलेवा भी। पर हमारे बहुमंजिला इमारत या आसपास के बंगलों पर ऐसा हमला कभी नहीं हुआ। इस इलाक़े में केवल मनुष्य भड़कते हैं, मधुमक्खियां नहीं।
            मैंने देखा है कि मधुमक्खियां दिन के उजाले में बगीचे में, आंगन बाड़ी में, जंगल झाड़ी में जाती हुई दिख जाती हैं, आसपास भिनभिनाती रहती हैं लेकिन घरों के अंदर गाहे बगाहे आती हैं। उन्हें बड़ी आसानी से हम खिड़की या खुले दरवाजे से जुगत लगाकर बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। आदमी की जुगत के आगे कीड़े मकोड़े की क्या औकात?
                लेकिन रात में मधुमक्खियां रोशनी की तरफ़ ही आकर्षित होती हैं। रात में पता नहीं और कैसे वे उड़ती हैं और कॉरिडोर में, बेसमेंट में, हेलोजन के आसपास सैकड़ों की संख्या में मरी हुई या तड़पती हुई मिलती हैं। मैं अक्सर सोचता हूं कि जो मधुमक्खियां मधु एकत्र करने कई मीलों की उड़ान भरती हैं, वे कॉरिडोर में या बेसमेंट में थककर तो मर नहीं सकती। तो क्या वे उजालों के प्रेम में जलते हुए बल्बों से जा लिपटती हैं और बल्ब के ताप से जल मरती हैं। मैंने जलते हुए बल्बों को कई बार उतारने की कोशिश की है और हाथ जलाया है। चालीस वॉट की जगह ज़ीरो लगाने की हीरोपंथी में कइयों के हाथ जले होंगे। 
            बात मधुमक्खियों की चल रही थी कि रोशनी के प्रेम में वे बल्बों से जा लिपटती हैं। तो क्या मधुमक्खियां उन पतंगों की कुछ लगती हैं जो शमा के इश्क में जल मरते हैं? जनानियों के शमा पे आकर मरने का कोई तुक समझ नहीं आता? कहीं ये नर मधुमकोड़े तो नहीं, जिन्हें शायरों ने पतंगा कहा। पर मैंने पतंगे देखे हैं। उनके रंग ढंग ही अलग होते हैं। सैकड़ों हज़ारों की संख्या में उनकी लाशों को कहां कहां नहीं देखा। उत्तरप्रदेश और हरियाणा में जिन्हे ऑनर किलिंग का शिकार होते देखा है वो कुछ अलग बात है। पतंगों को तो शमा ही मौत के घाट उतार देती है। कैसी पत्थर दिल जनानी है? ज़रा भी दिल नहीं पसीजता उसका। पर शमा भी क्या करे? हजारों फैंस एकसाथ टूट पड़ें तो सामूहिक नर संहार ही एक उपाय है। मैंने हजा़रों यू ट्यूबर्स को जिम से निकलती हुई शम्आओं को मेम मेम कहकर मिमियाते देखा है। मेमें बिना ध्यान दिए निकल जाती हैं। ये यू ट्यूबर मर नहीं जाते, यह अलग बात है।
             कुलमिलाकर, मधुमक्खियां, चाहे स्त्री हों या नर, वे रोशनी को अर्थात् ज्योति को चाहती हैं। वे अंधेरे की तरफ़ नहीं जाती। इन्हे देखकर ही किसी ऋषि को यह समझ आयी होगी कि उजाले की ओर भागो। और  वह यह कहकर उठा होगा कि तमसो मा ज्योतिर्गमय और ज्योति की तरफ़ भागा होगा। 
             ऊपर जो मुक्तक है वह इन प्रेरणादायक मधुमक्खियों की कुबानियों का कसीदा है। प्रार्थना है कि उन्हें रोशनी मिले, ज्योति से उनका सुखद मिलन हो ताकि सुमन- सुमन मकरंद वे चुन सकें। तभी तो हमे मधु मिलेगा। 
                   //इति मधुमक्खी वार्त्ता://

Comments

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि