बचपन : उड़ियाना छंद
नतमस्तक है जीवन, बचपन के आगे।
लौटे सबका बचपन, बचपन के आगे।।
छोड़ सयानापन सब, तुतलाते दादा,
घुटनों रेंगे यौवन, बचपन के आगे।।
मां घुटनों की पीड़ा, भूल बने हिरनी,
करती नानी नर्तन, बचपन के आगे।।
राजा बेटा कहकर, सब जन दुलराते,
राजभवन घर-आंगन, बचपन के आगे।।
कोई ग़ुस्सा-वुस्सा ठहर नहीं पाता,
हँस पड़ती है अनबन, बचपन के आगे।।
गुल्लक की पूंजी भी, बढ़ने लगती है,
करने लगती खनखन, बचपन के आगे।।
सम्राटों के उतरें मुकुट, कृपाण गिरें,
हारें सब रण भट्जन, बचपन के आगे।।
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@डॉ. रा. रामकुमार, १७.१२.२०२३, ०८.३०,
रविवार, पोस्ट : गोंगलइ, ग्राम: नवेगांव, ज़िला : बालाघाट.
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जुड़वा छन्द : द्वादशी-दशी छन्द
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हिंदी के अनेक मात्रिक छंदों में मात्रा की दृष्टि से समानता है। मात्रिक छंदों में प्रति-पंक्ति मात्रा की गणना की जाती है। किंतु केवल मात्रा की गणना से छन्द परिपूर्ण नहीं हो जाता। छन्द में गति और यति का महत्व है। गति अर्थात् लघु गुरु मात्राओं के लयात्मक संयोजन से है। इसी से प्रवाह आता है। गण की भी अपनी विशिष्ट भूमिका है। द्विकल, त्रिकल, चतुष्कल भी गति के कुशल संवाहक हैं। यह अभ्यास और मार्गदर्शन से वश में आते हैं। प्रत्येक छन्द की अपनी विशिष्ट गति या चाल होती है। छंद की संगीतात्मकता पर इस लय का निर्धारण और गायन होता है।
गति का अगला महत्वपूर्ण कारक है यति। यति गति का वेग नियंत्रक है। यति से किसी छन्द की लय की पहचान भी होती है और उसमें मधुरता भी आती है। लघु-गुरु निर्धारण, गण व्यवस्था और यति ही छ्न्द का नियोजन और पदस्थापन करती है।
उदाहरणार्थ दोहा और सोरठा को लें। दोनों दो पंक्तियों के छन्द हैं। काव्य शास्त्र के सर्वाधिक लोकप्रिय जुड़वा यही हैं। दोनों की प्रत्येक पंक्ति में 24 मात्राएं होती हैं। फिर दोनों जुड़वा सहोदरों की पहचान कैसे हो? दो प्रकार से ये पहचाने जाते हैं। एक यति और दूसरा 'कल' स्थिति। कल व्यवस्था वास्तव में गण व्यवस्था है। दशाक्षरी सूत्र में लघु और गुरु दो ऐसे गण हैं जो शेष आठ गणों को जीवन देते है। इनकी संयुक्ति से गण अस्तित्व में आते हैं। दोहा और सोरठा में इनकी अवस्थिति से यति को बल मिलता है।
जैसा कि हम जानते हैं दोहा और सोरठा में प्रत्येक पंक्ति में 24 24 मात्राएं होती हैं। जिन्हें सूक्ष्मता से देखने पर ये मात्राएं अपनी गति को तोड़ती हुई, दो सत्रों में यात्रा करती हैं।
दोहे की हर पंक्ति तेरह मात्रा चलकर पहला पड़ाव डालती है, दूसरा पड़ाव ग्यारह मात्रा चलकर डालती है।
सोरठा में यही क्रम उलट जाता है। पहला पड़ाव ग्यारह मात्रा चलकर और दूसरा तेरह मात्रा चलकर। यह यति के कारण होता है। यति जो गतिनियंत्रक है।
किंतु केवल गति के यति-नियन्त्रण से दोहा या सोरठा पूर्णता प्राप्त नहीं करते। इनमें गण बन्धु महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।
प्रत्येक पंक्ति की प्रति यति में ये जुड़वा-गण आगे पीछे होकर गति नियंत्रित करते हैं। अर्थात् दोहा के पहले पड़ाव में लघु-गुरु (12) , और दूसरे पड़ाव में गुरु-लघु (21).
सोरठा में यही गण अपनी स्थिति (पोजीशन) बदल लेते हैं। अर्थात् पहले पड़ाव में गुरु-लघु (21) और दूसरे पड़ाव में लघु-गुरु (12)।
ये जुड़वा विषम छंद हैं। कुछ जुड़वा सम-छन्द भी हैं, जिनमें सम मात्राएं होती हैं। जैसे चौपाई जिसकी प्रत्येक पंक्ति में 16 मात्राएं होती हैं। इसमें यति नहीं होती। कुछ सम छ्न्द दो भागों में यति के कारण बंट जाती हैं।
ऐसा ही एक छन्द है जिनमें एक पंक्ति में 22 मात्राएं होती हैं। ये 22 मात्राएं 12 और 10 के दो खंड में बंट जाती हैं। अंत में गुरु 2 एक या दो होते हैं। यही से इसके दो रूप हो जाते हैं।
यह छंद है कुंडल। इसका गण सूत्र निम्नानुसार है..
कुंडल छंद : यह एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 मात्रा होती हैं, 12,10 पर यति होती है, अंत में 22 आता है।
यदि अंत में एक ही गुरु 2 आता है तो उसे उड़ियाना छंद कहते हैं l कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।
१. कुण्डल का उदाहरण :
गहते जो अम्ब पाद, शब्द के पुजारी,
रचते हैं चारु छंद, रसमय सुखारी।।
देती है माँ प्रसाद, मुक्त हस्त ऐसा,
तुलसी रसखान सूर, पाये हैं जैसा।।
२. उड़ियाना का उदाहरण :
ठुमकि चालत रामचंद्र, बाजत पैंजनियाँ,
धाय मातु गोद लेत, दशरथ की रनियाँ।
तन-मन-धन वारि मंजु, बोलति बचनियाँ,
कमल बदन बोल मधुर, मंद सी’ हँसनियाँ।।
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हालांकि दो मिश्रित छंदों की परंपरा भी है जिसे उपजाति के अंतर्गत परिगणित किया जाता है।
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@डॉ. रा.रामकुमार,
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