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बहरेकामिल उर्फ़ संपूर्णिका/दक्षिका

बहरेकामिल उर्फ़ संपूर्णिका/दक्षिका




   हिंदी साहित्य वर्ग में जब  'ग़ज़ल' 'हिंदी ग़ज़ल' के नाम से  प्रतिष्ठित हो गयी तो फिर ग़ज़ल के हिंदी नामकरण की होड़ लग गयी। कुछ हिंदी गीत और ग़ज़ल के कवियों ने ग़ज़ल के छंदशास्त्र पर किताबें लिखीं तो ग़ज़ल के अवयवों और ग़ज़ल के छंदों के हिंदी नाम भी दिए ताकि वे लोग जो हिंदी में, चाहे जिस नाम से ग़ज़ल-हज़ल लिखें, ग़ज़ल के छंदों के प्रकार को हिंदी में जान और समझ सकें।
हिंदी के लोकप्रिय गीतकार और ग़ज़लकार डॉ. कुंवर बेचैन ने ग़ज़ल के व्याकरण में और  ग़ज़ल के व्याकरण के अन्य लेखक डॉ. ललित सिंह ने  इस दिशा में बहुत सुंदर काम किया। ग़ज़ल की मूल या फ़र्द अथवा मुफ़रद और अमिश्रित बह्र या छंदों के अर्थ सहित उनके हिंदी नाम दिए हैं।
उर्दू की सात मुफ़रद या मूल अपरिवर्तित बह्र अथवा छंदों में एक बह्र है - बहरे कामिल।
मुहम्मद मुस्तफ़ा खां 'मद्दाह' के संकलन  'उर्दू हिंदी शब्दकोश' के पृष्ठ नं 118 में अरबी शब्द कामिल का अर्थ पूरा,समूचा, संपूर्ण, बिल्कुल, मुकम्मल, सर्वांगपूर्ण, निपुण, दक्ष, होशियार, चमत्कारी, साधु, फ़क़ीर किया है। यहीं इसे एक बह्र और उर्दू का एक छंद भी कहा है। 
डॉ. कुंवर बेचैन ने अपनी पुस्तक के पृष्ठ 110 में उपर्युक्त सभी अर्थ बताकर अपना निर्णय सुनाया कि "इन सभी शब्दों में निपुण शब्द अच्छा लगा। अतः इसी अर्थ के आधार पर इसका नाम 'निपुणिका छंद' रख रहे हैं। उन्होंने इसको सातवां क्रम दिया और ज्यादा चर्चा नहीं की।
डॉ.ललित सिंह ने सप्तछंदांगी ग़ज़ल की बह्र 'कामिल' को तीसरा क्रम दिया। पृष्ठ क्रमांक 154 में अरबी भाषा के शब्द 'कामिल' के अर्थ वही बताए जो मद्दाह ने बताए और डॉ. कुंवर ने दोहराए, किंतु अपना कोई मन्तव्य नहीं रखा। इतना ज़रूर कहा कि 'चंद महान शायरों ने इस बह्र पर हाथ आजमाया है।' इसके बाद ही उन्होंने हकीम मोमिन का एक प्रसिद्ध शेर इस बह्र के उदाहरण के रूप में दिया...
'वो जो हममें तुममें क़रार था...' यह ग़ज़ल मोमिन खां मोमिन के नाम से रेख़्ता में उपलब्ध है। यही नहीं उन्होंने इन काबिल शायरों के शेर भी रखे -- मोमिन खां मोमिन, राशिद, इकबाल, मजरूह, साहिर, बशीर बद्र आदि। सचमुच सभी ने कामिल छन्द में बहुत कमाल की ग़ज़ल लिखी हैं, जो आज भी शौक से सुनी जाती हैं।

एक और ग़ज़ल है जो समकालीन शायर की है जो सातवे आठवें दशक में बहुत मक़बूल हुई और आज भी ताज़ातरीन है। यह ग़ज़ल है आज के शायर सलीम कौसर की जो पैदा तो पानीपत भारत में 1945 में हुए लेकिन भारत विभाजन के बाद इस दो साल के बालक को लेकर 
पाकिस्तान चले गए। ख़ैर उनकी ग़ज़ल कामिल में निम्न लिखित है...
मैं ख़्याल हूँ किसी और का, मुझे सोचता कोई और है,
सरे-आईना मेरा अक्स है, पसे-आइना कोई और है।
डॉ. अतुल  सिंह  ने कामिल ( दक्षिका, निपुणिका, संपूर्णिका, साध्वी,) बिना हिंदी-नामकरण के प्रथम स्थान पर रखा और विस्तार से इसके उर्दू-नामकरण पर चर्चा की।
उदाहरण स्वरूप मोमिन खां मोमिन की पूरी ग़ज़ल (वो जो हम में तुम में क़रार था) भी दी।
इस बहर - कामिल मुसम्मन सालिम की ख़ास बातें।
इस बह्र या छंद के नाम में तीन शब्द हैं।
1. कामिल 2. मुसम्मन और 3. सामिन
1. कामिल : सप्त शाखीय ग़ज़ल की यह एक    शाखा है जिसका नाम कामिल  है।
2. मुसम्मिन :  किसी भी छन्द का नाम उसके रुक्न (घटक) के कारण पड़ता है। मुसम्मन इसके रुक्न की संख्या है। इस बह्र के एक मिसरे में चार रुक्न (घटक) होते है। चूंकि एक शेर में दो मिसरे होते हैं तो दोनों मिसरे मिलाकर आठ रुक्न (घटक) हो गए। इसीलिए विद्वान इसे आठ रुक्नी (अष्ट घटकीय) बह्र भी कहते हैं जिसे छंद शास्त्र(अरुज) में मुसम्मन कहते हैं।
3. सामिन : सामिन कहते हैं मूल को, ख़ालिस को। फ़र्द या मुफ़रद भी कहते हैं और छन्द शास्त्र में कहते हैं सामिन। यह शब्द मूल और अपरिवर्तित बह्र के साथ लगाया जाता है। परिवर्तित बह्र में उन परिवर्तित घटकों (रुक्न) के नाम आ जाते हैं।
कुछ और बातें:
क.  रुक्न की संख्या अनुसार यह बहर सबसे लंबी सालिम बहरों में से एक है।
ख.  लघु हर्फ़ के अधिक इस्तेमाल के कारण अन्य बहरों के मुक़ाबले ग़ज़ल लिखने में बहुत आसानी होती है।
ग. यह अरूज़ की एकमात्र ऐसी बहर है, जिसमें सालिम रुक्नों पर ही शेर कहे गए हैं।
घ. इसकी तीन मुज़ाहिफ़ रुक्न (परिवर्तित घटक) हैं जो प्रायः  प्रचलित नहीं हैं क्योंकि इसके अस्ल अरकान पर ही शायरों ने बड़े कमाल के अश'आर कहे हैं।
श्री अतुल  सिंह  के अनुसार : 'इस बहर का नाम जितना आसान है, लिखना भी उतना ही आसान है। ऐसा इसलिए कि इस बहर में ग़ज़ल लिखते वक़्त हमें काफ़ी शब्दों के वज़्न गिराने की छूट मिल जाती है, इसलिए इस बहर में ग़ज़ल लिखना थोड़ा आसान हो जाता है।
तो प्रस्तुत है एक आसान सी ग़ज़ल इस आसान बह्र 'कामिल या दक्षिका या निपुणिका' में
अरकान : मुतफ़ाइलुन-मुतफ़ाइलुन-मुतफ़ाइलुन-मुतफ़ाइलुन।
वज़्न : 11212-11212-11212-11212
बह्र : बहर-ए-कामिल मुसम्मन सालिम
वृत्त :   अष्टघटकी मूल दक्षिका वृत्त (छंद)

अग्र लेख :
ग़ज़ल की बह्र पर हिंदी में ग़ज़ल लिखनेवाले हर युग में हुए। बीसवीं सदी और इक्कीसवीं सदी में ग़ज़ल के कई ऐसे नाम सामने आए जिसमें उर्दू मापनियों के स्थान पर हिंदी मापनियों का उपयोग मनचाहे नियमों के साथ होने लगा और उसे अपना आविष्कार मानकर लोग अपने अपने जनकत्व और पितृत्व को बढ़-चढ़ कर घोषित करने लगे। यहां तक कि जो नाम वे अपने मानसिक मनोराज्य में देते रहे, उनसे अनेक हिंदी और उर्दू के छंदों की हत्या तक हुई। इसका एक अलग अध्याय 'ग़ज़ल के नामकरण की मनमानियां' में विस्तार से किया गया है।
ख़ैर, प्रस्तुत है हिंदी ग़ज़ल की  बहरे क़ामिल अर्थात् संपूर्णिका, दक्षिका, निपुणिका आदि की हिंदी-उर्दू में 'गंगा-जमुनी परिमापिनी, (मात्रा गणना) के साथ हिंदी ग़ज़ल का 'कामिल छंद' जिसे मैं 'दक्षिका' कहता हूं, (क्यों कहता हूं इसकी चर्चा 'दक्षिका अंक' में करेंगे।
गण   : सलगालगा सलगालगा सलगालगा सलगालगा  
मात्रा : 11212 11212 11212 11212
वृत्त   :   अष्टघटकी मूल दक्षिका वृत्त (छंद)

बड़ी बेख़याली का दौर है   सदी ना-उम्मीद निराश है।
जो था मार्गदर्शी वो भ्रांत हैं  जो महाबली था हताश है।

हुआ क्या ये रद्दोबदल हुआ  जो रफ़ीक़ था वो रक़ीब है।
सभी तुलसियां हुई नीम हैं  तो क्या नागफणि ही पलाश है?

कहां घर है कुछ भी पता नहीं  कहां जाएं ये भी नहीं पता,
जिन्हें एक राह मिली नहीं  उन्हें मंजिलों की तलाश है।

है नए ज़माने की सभ्यता   बड़ी गूढ़ और रहस्यमय,
कोई रोशनी को ही ले उड़ा  कहीं तम का नाम प्रकाश है।

सदा झूठ सच है लगा किया  सदा सच को विष ही मिला किया,
वो जो मर गया चलो मर गया  जो बचा है क्या अविनाश है?
@ कुमार
, १३.१२.२३, बुधवार,

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