Skip to main content

Posts

Showing posts from December, 2023

साल के अंतिम दिन की ग़ज़ल

  साल के अंतिम दिन (३१.दिसंबर २०२३) की एक ग़ज़ल (हिंदी ग़ज़ल/संपूर्णिका) ० कितने बरस हुए हैं मिले, हम वहीं खड़े। इस राह से गुज़र गए, जो लोग थे बड़े। गर्दिश की उबालों में गले, सीधे सादे लोग, कमबख़्त संग ही न गले, रह गए कड़े। पन्ना उदासियों का, आख़िरी था, पढ़ लिया, दिन उम्र के रहेंगे, इसके बाद चिड़चिड़े। सुनते हैं आनेवाले नए दिन भी हैं नए, उनका भवन नया है, नए रंग हैं पड़े। ये लोग कौन हैं जो नई बात से पहले, गिरकर उखाड़ते हैं क्यों मुर्दे कई गड़े ०                     @डॉ. रा.रामकुमार, ३०दिसंबर, २०२३, प्रात: ९.३०, शनिवार, ग्रा नवेगांव, पो गोंगलई, ज़ि बालाघाट. (बहर-ए-मुज़ारे'अ मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़, अरकान : मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ाइलुन वजन: २२१ २१२१ १२२१ २१२)

पांच दोहे : IIT U द्वारा दोहा मापनाम्

  पांच दोहे : (IIT U द्वारा दोहा मापनाम) १. उस घर जाना व्यर्थ है, जहां नहीं हो मान। अपने निश्चित लक्ष्य का, कर्म सहित हो ज्ञान।। (नर लगा माप )*         २ . जोड़ तोड़ गठजोड़ का, जहां हो रहा खेल। व्यर्थ वहां है ढूंढना, सच्चे मन का मेल।।  (म र्कट लगा माप )*                ३ . सरल समर्पित समर्थन, संबल सहित सनेह। जिससे मिलता है हमें, उस पर क्या संदेह।।   (चलबल लगा माप )*         ४. अनुचित आग्रह, अपेक्षा,  अभिलाषा, अधिकार। अन्याश्रित के भाग में, आता है धिक्कार।। (करभ लगा माप )*             ५.       नग्न खड़ी है द्वार पर, दुर्बल पीली धूप। फटक रही करुणा दया, हिला हिला कर-सूप।।   (हंस लगा माप )*           @कुमार, २९.१२.२३,शुक्रवार, ४.१५-५.१५, *(कोष्टक में नामकरण आई...

मधुमक्खियां

  मधुमक्खियों का ज्योतिर्गमय मंत्र   सघन कालिख पुती मधुमक्खियों को तम नहीं भाता।  उजालों से 'सुमन-रस की सहेली' का सरस नाता।  सहस्रों पुष्प से मकरंद की चुनकर मिठासों को- मधुर मधु-कुंड भरतीं वे, मनुज उसको चुरा लाता।                                                             @कुमार,                                             २८.१२.२३, १३.५०,                                                 नवेगांव-बालाघाट.          पूरी कॉलोनी के बीचोंबीच एकमात्र बहुमंजिला इमारत के एक अपार्टमेंट में हम रहते हैं। हमारे प्रवेश के साथ हमारे अपार्टमेंट में मधुमक्खियों के छत्ते ...

सफ़र मांग लिया

  सफ़र मांग लिया एक तन्हा था तो बस एक सिफ़र मांग लिया कौन सा मैने किसी शख़्स का सर मांग लिया बस इनायत भरी नज़रों में बसाहट मांगी कोई बतलाए किसी का कहां घर मांग लिया बोल दो मीठे मुहब्बत के ही मांगे मैंने शोर ऐसा है कि जैसे बड़ा ज़र* मांग लिया लोग पत्थर लिए निकले कि मिटा दें मुझको मैंने क्या उनके इलाक़े में असर मांग लिया सिर्फ़ आकाश से एक टूटा सितारा मांगा ख़ल्क़* नाराज़ कि ज्यों शम्सोक़मर* मांग लिया सैकड़ों बार जिन्हें कुतरा जहां वालों ने मांगना तो नहीं था मैंने तो पर* मांग लिया ख़ार पत्थर से भरा खाइयों  ख़तरों से भरा है गला काट सफ़र फिर भी सफ़र मांग लिया ० @ डॉ. रा.रामकुमार, २४.१२.२३, २०.१५, रविवार। शब्दार्थ : (* अंकित) सिफ़र : शून्य।  ज़र : धन, ख़ज़ाना। ख़ल्क़ : जनता, अवाम, दुनिया के लोग। शम्सो क़मर : सूर्य और चंद्र। पर : पंख। 

जुड़वा छन्द : द्वादशी-दशी छन्द

    बचपन : उड़ियाना छंद ० नतमस्तक है जीवन, बचपन के आगे। लौटे सबका बचपन, बचपन के आगे।। छोड़ सयानापन सब, तुतलाते दादा, घुटनों रेंगे यौवन, बचपन के आगे।।    मां घुटनों की पीड़ा, भूल बने हिरनी, करती नानी नर्तन, बचपन के आगे।। राजा बेटा कहकर, सब जन दुलराते, राजभवन घर-आंगन, बचपन के आगे।। कोई ग़ुस्सा-वुस्सा ठहर नहीं पाता, हँस पड़ती है अनबन, बचपन के आगे।। गुल्लक की पूंजी भी, बढ़ने लगती है, करने लगती खनखन, बचपन के आगे।। सम्राटों के उतरें  मुकुट, कृपाण गिरें, हारें सब रण भट्जन, बचपन के आगे।। ० @डॉ. रा. रामकुमार, १७.१२.२०२३, ०८.३०, रविवार, पोस्ट : गोंगलइ, ग्राम: नवेगांव, ज़िला : बालाघाट. ०  जुड़वा छन्द : द्वादशी-दशी छन्द ० हिंदी के अनेक मात्रिक छंदों में मात्रा की दृष्टि से समानता है। मात्रिक छंदों में प्रति-पंक्ति मात्रा की गणना की जाती है। किंतु केवल मात्रा की गणना से छन्द परिपूर्ण नहीं हो जाता। छन्द में गति और यति का महत्व है। गति अर्थात् लघु गुरु मात्राओं के लयात्मक संयोजन से है। इसी से प्रवाह आता है। गण की भी अपनी विशिष्ट भूमिका है। द्विकल, त्रिकल, चतुष्कल भी गति के कुशल स...

मन की बात

  मन की बात            वृद्ध, अनुभवी, दर्शनशास्त्री, आयुर्वेद आचार्य, तंत्रिका तंत्र से जुड़े शरीर-शास्त्री और मनोचिकित्सक इस बात पर हमेशा ज़ोर देते रहे हैं कि 'मन की सुनो', 'मन को समझो', 'मन की करो'। 'सुनो सबकी, करो मन की' कहावत भी यही कहती है। मनोवैज्ञानिकों और दिशा-दर्शकों का भी यही कहना है कि आपका मन जिस वस्तु या विद्या में 'लगाव' अनुभव करता है, उसे ही चुनें, क्योंकि केवल उसे ही पूरे 'मनोयोग' से व्यक्ति कर पाता है। व्यावहारिक- ज्ञान और दिशा-दर्शन या मार्ग-दर्शन केवल 'विकल्प' के लिए दिए जाते हैं, विवश करने के लिए नहीं।         बाज़ार-वाद के दौर में यह अवश्य है कि किसी वस्तु, खाद्य सामग्री, पेय आदि जीवनोपयोगी आवश्यकताओं का विज्ञापन मुनाफ़े के लिए किया जाता है और उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उसके उन गुणों का बखान किया जाता है, जो बाद में बदल जाते है। अनाज, तेल(कच्ची घानी), साग-सब्ज़ियां, प्लास्टिक, तांबा, एल्युमिनियम आदि के स्वास्थ्य पर प्रभाव का बाज़ार-वादी चिकित्सा शास्त्र अद्भुत है।...

बहरेकामिल उर्फ़ संपूर्णिका/दक्षिका

बहरेकामिल उर्फ़ संपूर्णिका/दक्षिका    हिंदी साहित्य वर्ग में जब  'ग़ज़ल' 'हिंदी ग़ज़ल' के नाम से  प्रतिष्ठित हो गयी तो फिर ग़ज़ल के हिंदी नामकरण की होड़ लग गयी। कुछ हिंदी गीत और ग़ज़ल के कवियों ने ग़ज़ल के छंदशास्त्र पर किताबें लिखीं तो ग़ज़ल के अवयवों और ग़ज़ल के छंदों के हिंदी नाम भी दिए ताकि वे लोग जो हिंदी में, चाहे जिस नाम से ग़ज़ल-हज़ल लिखें, ग़ज़ल के छंदों के प्रकार को हिंदी में जान और समझ सकें। हिंदी के लोकप्रिय गीतकार और ग़ज़लकार डॉ. कुंवर बेचैन ने ग़ज़ल के व्याकरण में और  ग़ज़ल के व्याकरण के अन्य लेखक डॉ. ललित सिंह ने  इस दिशा में बहुत सुंदर काम किया। ग़ज़ल की मूल या फ़र्द अथवा मुफ़रद और अमिश्रित बह्र या छंदों के अर्थ सहित उनके हिंदी नाम दिए हैं। उर्दू की सात मुफ़रद या मूल अपरिवर्तित बह्र अथवा छंदों में एक बह्र है - बहरे कामिल। मुहम्मद मुस्तफ़ा खां 'मद्दाह' के संकलन  'उर्दू हिंदी शब्दकोश' के पृष्ठ नं 118 में अरबी शब्द कामिल का अर्थ पूरा,समूचा, संपूर्ण, बिल्कुल, मुकम्मल, सर्वांगपूर्ण, निपुण, दक्ष, होशियार, चमत्कारी, साधु, फ़क़ीर किया है। यहीं इसे एक बह्र और उर्दू का एक छंद...

टेनी : एक हिंदी मुक्तिका

 टेनी  : एक हिंदी मुक्तिका 0  गिर पड़े ना? सब बरजते थे कि ऐसा मत करो। नामुरादों! मत उम्मीदों के  पहाड़ों पर चढ़ो।। जब कभी अच्छा करोगे, टांग खींची जाएगी,  क्या ज़रूरत थी जो सन्नाटों से बोले-'कुछ कहो।।' सब परेशां हैं, कहें क्या, और चुप कैसे रहें,  तुमको ही ज़्यादा पड़ी है, मुंह उठाकर बोल दो।। यह भी है अपराध, जब हो शांति चारों ओर तब, ज़ोर से जंभुआई लेकर अंग अपने तोड़ लो।। सोच में डूबा हो कोई तो चिकोटी काटना-  सांढ़ को देना निमंत्रण- 'आओ मुझसे होड़ लो।।' मानते हैं सब, शहद अच्छा है सेहत के लिए, मोल लो, मधु-मक्खियों के छत्ते में मत हाथ दो।।  तुम बड़े अवतार ठहरे लाभ पहुंचाने चले, होम करते हाथ जलते हैं दुबारा सोच लो।। ० @कुमार, ०८.१२.२३, रात्रि ०८. बजे, शुक्रवार।

स्वभाव पर पांच मुक्तक

 'स्वभाव' पर पांच मुक्तक : 0 १. स्वभाव पर मुक्तक-१ . शिकायत के लिफ़ाफ़े पर  लिखा है नाम ग़ैरों का। बने तो काम अपना,  हर बिगड़ता काम ग़ैरों का। कभी तो देखने मिल जाएं  वो मंज़र ज़माने में, ख़ुशी भी जीतकर कह दे  कि यह ईनाम ग़ैरों का। ० @कुमार, ७.१२.२३ ० २. स्वभाव पर मुक्तक-२ . छिड़कना पीठ पर स्याही,  शराफ़त है ज़माने की। उठाना ग़ैर पर उंगली  रवायत है ज़माने की। सबल की गालियां होतीं, शुभाशीषें बुज़ुर्गों की, कराहें निर्बलों की भी- अदावत है ज़माने की।  @कुमार, ८.१२.२३ (अदावत : दुश्मनी, विरोध, प्रतिरोध, प्रतिहिंसा) ० ३. स्वभाव पर मुक्तक-३ . कभी सच बोलने की लोग हिम्मत कर नहीं सकते।  भले अन्याय होता हो  मज़म्मत कर नहीं सकते। भरी है गर्दिशो-बदहालियों ने दिल में बस नफ़रत, किसी से ख़्वाब में भी अब मुहब्बत कर नहीं सकते।   @कुमार, ८.१२.२३  (मज़म्मत : निंदा, भर्त्सना, तिरस्कार)  ० ४.स्वभाव पर मुक्तक-४ (लोकबोली में) . चूस रहा हूँ मैं तल्ख़ी को, मीठे सांठे जैसा।  खट्टे मन को भांह रहा में, निसदिन माँठे जैसा।  कद्दूकस कर कड़ू करेले, मांड़े जी की जौ में,...

गुर्वाष्टकम् हिंदी छन्द-अनुवाद

 आदि शंकराचार्य का *भुजंग प्रयात छन्द* में *'गुर्वाष्टकम्'* का हिंदी में अनुवाद  *(छन्द-भुजंगप्रयात)*. गुर्वाष्टकम् : (वृत्त/छन्द भुजंगप्रयात) 0 शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम् । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥1॥ कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 2 ॥ षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 3 ॥ विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 4 ॥ क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 5 ॥ यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात् जगद्वस्तु सर्वं करे सत्प्रसादात् । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥6॥ न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ न कान्तासुखे नैव व...

गांवों के देश की स्मृतियों का आह्वान!

 गांवों के देश की स्मृतियों का आह्वान!                                                                अंध-गुहा से नील गगन तक, पर फैलाये आ। ० बहुत दूर तक जाना है तो साथ साथ चल आजा। बर्फ़ीले हिमगिरि में ठंडे हाथों को मल आजा।  सांसों से मन की कांगड़िया, फिर दहकाये आ।  ० ये अलाव के दिन हैं आजा,  बैठक तपे अंगीठी। बतकहियों का स्वाद बढ़ाये, कानाफूसी मीठी।  बड़े बड़े मसलों को मसले, हल बतलाए, आ।  ० धन्य धान दे, छूछ पुआलों  ने डेरा डाला है।  बिस्तर बना घरों में, पशु को चारा बन पाला है।  मेरा मन भी ख़ाली होकर, मन भर पाए, आ।  0 @कुमार, ४.१२.२३, सोमवार