आज हजारों कैरोकी और दूसरे मूल अमेरिकन आदिवासियों के त्रासद और कारुणिक विस्थापन को याद करने का दिन भी है, जिसे ओखलाहोमा में बसे उनके वंशज उनकी पीड़ा भरी यादों समर्पित करते हैं।
ओखलाहोमा हम इस पीड़ा में आपके साथ हैं।
प्रस्तुत है एक कविता-
ओखलाहोमा हम इस पीड़ा में आपके साथ हैं।
प्रस्तुत है एक कविता-
आँसुओं की पगडण्डी
०
हजारों हजारों सालों से
हजारों हजारों बार
खदेड़ा गया है उन्हें
अपनी जन्म भूमि से
अपने पुरखों की धरती से
दुनिया के हर कोने से
आक्रमणकारी लुटेरे हमेशा आते हैं
रूप और नाम बदलकर
लूटने और बर्बाद करने
पर किसको?
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हजारों हजारों सालों से
हजारों हजारों बार
खदेड़ा गया है उन्हें
अपनी जन्म भूमि से
अपने पुरखों की धरती से
दुनिया के हर कोने से
आक्रमणकारी लुटेरे हमेशा आते हैं
रूप और नाम बदलकर
लूटने और बर्बाद करने
पर किसको?
लूट से बनाये गए दुर्ग?
शोषण से सजाए गए महल?
रक्षा के विश्वास से बनाये गए
सत्ता के चमकदार तख़्ते ताउस?
नहीं, वे बने रहते हैं।
उन पर काबिज़ होकर
आक्रामक आततायी तने रहते हैं।
लुटती हैं बस्तियां
जो पहले भी लुट रहीं थीं
लूटे और तोड़े जाते हैं मोहब्बतों के घर;
लूटी जाती हैं
मेहनत से उगाई गईं फसलें;
लूटी जाती हैं
दुधारू मवेशी और रस भरी रसोइयां।
जिनके पास जो भी कीमती था
लूट लिया गया
जिसको जो भी प्यारा था
छीन लिया गया
जिसे जान प्यारी थी
छीन ली गयी
जिसे मान प्यारा था
लूट लिया गया
दूध पीते बच्चों से उनकी माएँ छीन ली गईं
सुहाग की दुहाई देने वाली औरतें लूट ली गई
जिन युवतियों की आंखों में पल रहे थे सपने
उन सपनों को रौंद दिया गया
जिन नवजवान भुजाओं में आग थी भरी हुई
उन्हें ख़ून की नदियों में बुझा दिया गया
जान बचाकर भागने के लिये
खुली हुई थीं केवल संकरी पगडण्डियाँ
शर्त थी कि जान बचाकर
भाग सको तो भागो
आंखों में ढेर सा डर का भंडार लेकर
आंसुओं में पिघलता हुआ गुबार लेकर
भाग रहे थे लहूलुहान जिस्म
ख़ून के आंसुओं से लथपथ पगडंडियों पर
फिसलते, गिरते, संभलते!
पीछे छूटा जा रहा समूचा बजूद,
छूट रही थी अपनी बेजान पहचान,
रिसा जा रहा था अपने होने का एहसास।
एक बार नहीं हज़ार बार
दोहराया गया है यही क़िस्सा
हमने तो देखे हैं सिर्फ सैंतालीस,
सत्तर, नब्बे और चौबीस
दबे हुए इतिहास के मोहन जो दाड़ो में
सैकड़ों क़िस्से उन्नीस-बीस
इतिहास फिर खोदेगा हड़प्पा की ज़मीनें
झरनों की तरह फूटेंगे फिर आंसुओं के फ़व्वारे
अवशेष फिर चीखेंगे जुल्मों की इबारतें
वक़्त फिर टटोलेगा उनकी ठंडी नब्ज़ों में
गर्दिशों के सिसकते हुये नक़ूश।
०
@#कुमार, १६.०९.२४, (ट्रेल ऑफ टीयर्स डे को समर्पित)
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