उड़ती चिड़िया बालाघाट
सतपुड़ा पर्वत-श्रृंखला के घेरदार पर्वतों से घिरे, मैंगनीज़ और तांबा के भंडार बालाघाट का जिक्र आते ही सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला याद आती है। याद आती है- कोल-सिटी छिंदवाड़ा; जहां पहली बार भवानीशंकर मिश्र जी के मुख से उनकी प्रसिद्ध कविता ‘सतपुड़ा के घने जंगल’ सुनी थी। यह अनूठा गीत जिसमें वर्णन तो था ‘नींद में डूबे हुए से, ऊंघते अनमने जंगलों’ का लेकिन जिज्ञासा से भरी युवावस्था की पहली अंगड़ाई भाव-विभोर हो गई थी। आठ पदों के इस भाव भरे गीत में, सात पहाड़ों वाले सतपुड़ा का जितना रोमांचक और व्यापक वर्णन होशंगाबाद (नर्मदापुरम्) के टिकरिया में जन्मे इस अमर कवि ने किया है, उसके बाद कुछ कहने के लिए शब्द सामने नहीं आते। अर्जुन की भांति अस्त्र-शस्त्र छोड़कर समर-वाहन (रथ) में पीछे जाकर बैठ जाते हैं। किन्तु इन्हें प्रोत्साहन देकर उठाए बिना, इन दुर्गम किन्तु सुहावनी पर्वतमालाओं की चढ़ाइयां चढ़ेगा कौन? ‘हमसे न होगा’ तो वे सब कह पड़ेंगे, जिन्होंने सतपुड़ा के विशेष-पर्वत ‘महादेव की चोटी’ पर स्थित ‘चैरागढ़’ चढ़ने का अनुभव चखा है। लेकिन किसी को तो उत्साहों की रणभेरी फूंकनी पड़ेगी। मैकल की चिल्पी घाटी उतरकर सतपुड़ा के घने जंगलों से घिरी ‘गढ़ी’ में घुसकर 52 मोड़वाले चक्करदार गांगुलपारा पहाड़ से उतरकर, ‘मैंगनीज खान’ भरवेली होकर बालाघाट में घुसना पड़ेगा।नागपुर महाराष्ट्र से बालाघाट पहुंचने का एक सीधा रास्ता नागपुर-जबलपुर हाईवे है। नागपुर से क़रीब सौ किलोमीटर पर खवासा है, जहां मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की सीमांत-चैकी भी है और बालाघाट सिवनी संसदीय क्षेत्र का अंतिम पड़ाव भी। खवासा गेट से कोई पांच किलोमीटर चलकर पूर्व की ओर एक सड़क मुड़ती है, जो बालाघाट पहुंचाती है। खवासा में सिवनी और छिंदवाड़ा का पेंच अभयारण्य है, जहां ‘रुडयार्ड किपलिंग’ ने रहकर ‘जंगल बुक’ लिखी, वह यही जंगल है, ‘मोगली वुडलैंड’। रोड से लगा ‘खवासा बफर ज़ोन’ है और पांच किलोमीटर भीतर ‘टुरिया कोर गेट’। चाहें तो ‘पेंच अभ्यारण्य’ में घुसकर मोगली के प्रसिद्ध जंगल का आनंद लें या फिर सीधे पहुंचे-‘मैंगनीज़ सिटी बालाघाट।’
मैंगनीज़ सिटी’ ही क्यों कुछ लोग तो इसे ‘काॅपर सिटी’ भी कहते हैं,
कुछ लोग ‘पोहा नगर’ तो कुछ इसे ‘टाइगर सिटी’ भी कहते हैं। अपने नगर के प्रति आत्मीयता और अभिमान, जो न कहलाए वह थोड़ा है। मगर यह सब ‘कथनौती’ नहीं हैं, इन सब के पीछे ठोस कारण हैं। बालाघाट खनिजों का भंडार है। इस जनपद में मैंगनीज की ही पैंसठ खदानें होने का विवरण विद्वान देते हैं। भारत को लगभग अस्सी प्रतिशत मैंगनीज़ देनेवाले इस ज़िले को तांबा (काॅपर) का देश में सबसे बड़ा भंडार माना जाता है। तांबे की खदान मलाजखंड में है जो बालाघाट की पूर्वी तहसील बैहर से 25 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। मलाजखंड में एक ‘कृत्रिम रेगिस्तान’ भी है, जो रेत और ‘काॅपर ओर’ के उच्छिष्ट से बना है। इसे देखने हजारों पर्यटक मलाजखंड आते हैं। इन दो खनिजों के अतिरिक्त यहां बाक्साइट, केनाइट, डोलोमाइट, चूना पत्थर आदि की कुल मिलाकर 91 खदानें हैं। यहां की चंदन, बैनगंगा, वाबनथड़ी आदि नदियों से बहुत बड़ी मात्रा में रेत का दोहन होता है।
बालाघाट की मुख्य उपज धान है। इसलिए इसे ‘चांवल सिटी’ भी कहा जाता है। लेकिन यह उपाधि गोंदिया को मिल गई है। आप रेलवे के नागपुर-रायपुर पथ पर हों तो गोंदिया में पहुंचते ही आपको ‘ध्वनी सूचना माध्यम’ से एक मीठी सी घोषणा सुनाई देगी-‘चांवल नगरी गोंदिया में आपका स्वागत है।’ वास्तव में गोंदिया और बालाघाट दोनों जिलों में चांवल की मिलें, पोहा मिलें और मुरमुरा की मिलें कार्यरत हैं।
पिछले वर्ष जब भारत में सबसे अधिक बाघ पाए जाने पर मध्यप्रदेश को बाघ-प्रदेश (टाइगर स्टेट) का गौरव मिला, तब बाघों के संरक्षण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बालाघाट को ‘टाइगर सिटी’ से नवाज़ा गया। जंगल में नक्सल मूवमेंट के कारण एक समय में बालाघाट ‘बाघ-शून्य’ था। भारत सरकार के प्रोत्साहन से इसने कान्हा वन क्षेत्र में 28 बाघों के होने की सूचना देकर आश्चर्यचकित कर दिया। अब जब प्रदेश को 785 बाघों की बढ़त पर दूसरी बार बाघ प्रदेश का सम्मान मिला है तो बालाघाट को बल मिला कि वह अपने बाघों को अगली गणना में 40 के आंकड़े तक पहुंचाएगा।
बालाघाट के नामकरण को लेकर आरंभ से कई मिथक प्रचलित रहे हैं। बारहघाट उर्फ बाराघाट बना बालाघाट। बूढ़ा-बूढ़ी घाट से बिगड़कर बालाघाट होने की मानसिक कवायदों के बीच एक और आनंददायक ‘मुखौनी’ प्रसिद्ध है। ‘मुख-कथनी’ यह है कि किसी ‘बाला’ को, बैनगंगा के किसी ‘घाट’ में, घड़ा लेकर बैठे देखकर, किसी समर्थ ‘नामदाता’ ने इसे ‘बाला-घाट’ की संज्ञा दे दी होगी और यह नाम उड़ते-उड़ते सरकारी अभिलेख के पन्ने पर चस्पा हो गया होगा। सरकारी दस्तावेज़ में एक बार कुछ इंद्राज़ हुआ तो फिर उसे ब्रह्मा भी नहीं मिटा सकता, ऐसी जन-धारणा है। इसी विषय पर ‘काग़ज़’ नाम की एक फिल्म बनी है, जिसमें जीवित मनुष्य सरकारी-काग़ज़ (अभिलेख) में मृत हो गया और अपने जीवित होने के प्रमाण में काग़ज़ मांगता फिरता रहा।
बालाघाट की तो बात ही निराली है। इस दस्तावेज़ की तस्दीक़ करती एक ‘काली बाला’, ‘काला घड़ा’ लेकर शहर के ‘ज़ीरो-माइल चैक’ के बीचों बीच बैठी है और उसके चारों और रंगीन फव्वारे लगे हैं। मज़े की बात तो यह है कि कभी-कभी, राष्ट्रीय पर्वों पर, रात में जब रंगीन फव्वारें चलते हैं, तब कुछ कुछ ‘कथा-जीवियों’ ने उस काली बाला को हंसते हुए भी देखा है। इस रहस्यमयी बाला को देखने के लिए बालाघाट आने का मन हो तो जरूर आएं।
सम्पूर्ण भारत की भांति बालाघाट भी अनेक रहस्यमयी कथाओं का नगर है। ‘बूढ़ा बूढ़ी’ और ‘काली बाला’ की कथाओं के इंद्रजाल से आप उबर भी नहीं पाते कि एक दूसरी अद्भुत रहस्यमयी महिला की कहानी आपके सामने उभर आती है। काली पुतली चैक से दक्षिण की तरफ़ उतरते हुए जिस सड़क से आप आते हैं, वह बाबा साहब डाॅ. भीमराव अंबेडरकर चैक में मिलती है। सर्किट हाउस, लाइफ इंशुरेन्स, उत्कृष्ट उच्चतर माध्यमिक विद्यालय और महात्मा गांधी नगरपालिका उच्चतर माध्यमिक शाला इस चैक के चारों कोणों पर स्थित हैं। इस चैक से जो मार्ग गोंदिया की और निकलता है, जिसे ‘सर्किट हाउस रोड’ कहते हैं, उसके दक्षिणी कोण में उत्कृष्ट विद्यालय है, जहां वर्षों एक रहस्यमय औरत रही। यह स्त्री घुटनों के ऊपर तक की एक धोती पहनती थी, जिससे उसके उड़ीसा की होने का पता चलता था। वह बोलती नहीं थी। स्कूल के एक कक्ष में उसने अपना डेरा जमा लिया था। शाला प्रबंधन ने उसके लिए प्रकाश की व्यवस्था कर दी थी। आदिवासी तौर तरीके के मिट्टी के बर्तन, चूल्हे, बांस की बनी टोकनियां, सूपे वगैरह उसकी संपदा थी। कुछ लोग इस रहस्यमय महिला को आधुनिक शबरी भी कहते थे। वह अब इस इस दुनिया में नहीं है। संभवतः कोरोना काल में अज्ञात कारणों से उसकी मृत्यु हो गई। बालाघाट के लोगों की सहृदयता थी कि किसी ने उसके शाला प्रागंण में इस तरह रहने पर कोई आपत्ति नहीं ली।
बालाघाट की एक जनसांख्यिकी भी इसके बाला यानी कन्या के प्रति सदय होने और ‘बाला-घाट’ कहलाने की पुष्टि करती है। जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि बालाघाट में बाला, कन्या या स्त्री प्रतिशत पुरुषों से अधिक है। इस राजनैतिक सत्र में इसकी एक और उपलब्धि को नज़र -अंदाज करना अन्याय होगा। बालाघाट की संसदीय आसंदी पर पहली बार एक महिला बैठी है। इस महिला की उपलब्धि केवल यही नहीं है कि वह पहली महिला सांसद है बल्कि यह भी है कि इसी सत्र में वह पहली बार पार्षद चुनी गई थी और पार्षद के पद से ही उसने सांसद का चुनाव पहली बार लड़ा और इस संसदीय क्षेत्र को पहली महिला सांसद देने का गौरव उसे मिला। इस विधान सभा क्षेत्र से भी पहली बार कोई महिला विधायक चुनी गई है। वर्तमान समय में सांसद, विधायिका और नगरपालिका की अध्यक्ष तीनों पदों पर महिलाएं हंै।
एक तीसरी ‘स्त्री’(लिंग) है भाषा या बोली। इस दृष्टि से भी बालाघाट की ‘पंचरंगी’ विशेषता है। प्रमुख भाषा हिन्दी के अतिरिक्त बालाघाट में पंवारी (पोवारी), लोधांती, मरारी, गोंडी और मराठी प्रचलित हैं। हालांकि कुछ भाग में कलारी और गढ़वाली बोलनेवाले भी हैं। मुस्लिम समुदाय में उर्दू बोली जाती है। बुंदेली और मारवाड़ी परिवार भी हैं, पर अधिकांशतः वे हिन्दी ही बोलते हैं। साहित्य की दृष्टि से भी बालाघाट समृद्ध है। अनेक साहित्यकारों की सात-आठ पुस्तकों से लेकर एक दो पुस्तकें प्रकाशित हंै और कतिपय चर्चित भी हैं। कला के क्षेत्र में नाटक और संगीत की काफी ख्याति है। लोक संगीत में गोंडी, छत्तीसगढ़ी, बंुदेली, मराठी आदि नृत्य और गान का व्यापक रुझान है। बालाघाट के कलाकार मुम्बई में उल्लेखनीय स्थान बनाए हुए हैं। मेहरुन्निसा परवेज़ का संबंध बालाघाट से रहा है। शेरनी फ़िल्म के अधिकांश हिस्से बालाघाट, मलाजखंड, मुक्की आदि में फिल्माए गए हैं। शेरनी फिल्म में नायिका का निर्णायक-दृश्य मलाजखंड की मनोहारी ‘ओपन-माइन’ पर ही चित्रित हुआ है।
कुलमिलाकर, बालाघाट अपनी विशेषताओं की किसी एक उपलब्धि पर नहीं ठहरता। वह आकाश में उड़ती चिड़िया की भांति कभी नीचे, कभी ऊपर उड़कर अपने लिए अवसर की तलाश करता रहता है। इसीलिए भौगोलिक बंटवारे में उसे ‘उड़ती हुई चिड़िया’(सिलपदह इपतक) का नक़्शा मिला है। अब ‘उड़ती हुई चिड़िया के पर’ कौन गिन सका है भला? अगर गिनने का ही किसी ने संकल्प ले लिया हो तो उसे भी पचास-सौ किलोमीटर का घेरा बनाकर उड़ना पड़ेगा।
चलिए पहली उड़ान में, सत्तर किलो मीटर दूर छत्तीसगढ़ की सीमा से लगी बालाघाट की तहसील लांजी में ‘लांजी का क़िला’ और ‘कोटेश्वर धाम’ की ऐतिहासिकता पर ‘विहंगम’ दृष्टि डालें। पुरातात्त्विक महत्त्व के ‘अवशेष मात्र शेष’ कल्चुरीवंशीय लांजी क़िला अपने ‘खंडहरों’ में भी तात्कालिक वास्तुशिल्प के अद्भुत प्रमाण देता है। लांजी नगर से लगभग तीन किलोमीटर उत्तर में कोटेश्वर धाम अपनी प्राचीनता का तो प्रदर्शन करता ही है, कल्चुरीकाल के मूर्ति-शिल्प का भी प्रमाण देता है।
लांजी से बालाघाट मुख्यालय की ओर लौटें तो पौनी दूरी तय करने पर आप सत्तरह सौवीं शताब्दी में गौंड राजाओं द्वारा बनाई ‘हट्टा की बाउली’ की ऐतिहासिकता से परिचित होते हैं। सेना के विश्राम के लिए चिन्हित इस ‘बाउली’(वापी) को नागपुर-महल (महाल) के साथ जोड़कर देखा जाता है। ‘हट्टा की बाउली’ से पंद्रह किलोमीटर पर ही बालाघाट मुख्यालय है। इसके सर्किट हाउस रोड पर ‘अंबेडकर पंचराहा’ है। चैंकिए नहीं बालाघाट में चैराहे है ही नहीं। सारे प्रमुख ‘चैराहे’ पांच या पांच से अधिक ‘राहों’ के गठबंधन हैं। अतः ‘अंबेडकर पंचराहे’ को पारकर, सिविल लाइन के अंत में फारेस्ट कालेज के इस पार, प्रसिद्ध और सिद्ध ‘कालीपाठ मंदिर’ है। इसकी प्रसिद्धि यह है कि यहां स्थापित काली की मूर्ति ‘धरती से स्वमेव’ आविर्भूत हुई है। यह प्रतिवर्ष ‘कुछ और’ निकल आती है। कितनी अंदर है, इसे किसी ‘आस्था और भक्ति के नाप’ से आंका ही नहीं जा सकता। जनश्रुति है कि अनवरत वार्षिक रूपेण बढ़नेवाली देवी के दर्शन करने नवरात्रि में जन-सैलाब उमड़ता है।
ऐसे चमत्कारिक मंदिरों की संख्या और भी है। बालाघाट के पश्चिम-दक्षिण में लगभग चालीस किलोमीटर दूर ‘रामपायली का राम-मंदिर’ अपनी इस पौराणिक-कथा के कारण ही प्रसिद्ध है कि यहां वनवासी ‘राम के पांव’ पड़े थे। इसलिए यह ‘रामपायली’ कहलाया। जहां राम, वहां मारुति’ की भारतीय-आस्था के अनुकूल यहां हनुमान की ऐसी मूर्ति भी है, जिसका एक पैर धरती में धंसा हुआ है। किन्तु इसे ‘भग्न-मूर्ति’ कहकर आस्था उपेक्षित नहीं करती, बल्कि श्रद्धा से ‘लंगड़े हनुमान’ कहकर उसकी पूजा करती है।
इस ‘दर्शन लाभ’ के बाद मुख्यालय आएं तो नगर के हृदयस्थल में स्थित ‘नाट्य कला मंदिर’ के पीछे, ‘देवी-तालाब’ के दक्षिणी-तट पर स्थापित, ‘दक्षिणमुखी गणपति’ के दर्शन करते हुए, निकटस्थ चित्रगुप्त-नगर में उतरकर ‘दक्षिणमुखी पंचमुखी हनुमान’ के भी ‘दर्शन-लाभ’ लेते चलें। मारुति के ये पंचमुख हैं -बाएं से दाएं क्रम में वराह, गरुण, हनुमान, नरसिंह और हयदेव। इस वर्ष पांचमुखवाले इस हनुमान जी का सत्तरहवां स्थापना-पर्व मनाया है भक्तों ने।
दूसरे पंचमुखी हनुमान मंदिर को देखने जाने के लिए लगभग साठ किलोमीटर पश्चिम में कटंगी तहसील से सिवनी की ओर जाना पड़ेगा। फागुन मास इस मार्ग पर पीले पलाश बिखेर कर आकर्षित करेगा। इसी मार्ग में प्रसिद्ध ‘नहलेसरा बांध’ है। इसके पीछे पहाड़ पर ‘अंबादेवी का सिद्ध मंदिर’ है। अंबा देवी पहाड़ की सीढ़ियां चढ़ने के पूर्व तलहटी पर विराजित ‘पंचमुखी हनुमान’ जी से परवाना (पार-पत्र, अधिकार पत्र) अवश्य लेते चलें।
बालाघाट की इस चिड़िया के रंगीन पंखों में अभी और भी पंख शेष है। ‘सोम जी गोम जी’ का मंदिर, जिसे लोग ‘ज्वालादेवी देवी मंदिर’ कहते हैं, वह रह गया। भाई-बहन के नाम से भी इसकी ख्याति है। भरवेली के समीपस्थ पहाड़ों की कठिन चढ़ाई चढ़कर इसके रहस्य तक ‘फिर-कभी’ पहुंचंेगे। उसी समय यानी ‘फिर-कभी’ बैनगंगा पर बने ‘धूटी डैम’ और बावनथड़ी पर बने ‘राजीवसागर डैम’ की भी सैर करेंगे। उद्देश्य तो प्रकृति की गोद में पहुंचकर उसकी ‘भव्यता’ और ‘अद्भुत‘त्व’ का आनंद मन में संजोना है। अभी अन्य जनपदों के सौदर्य से मन भरना है। तथापि, बहुत कुछ कहने पर भी बहुत कुछ शेष रह जाए तो कहनेवाले की क्षमता को कम कहना भी न्याय नहीं होगा न।
(क्रमशः)
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