फागुन राग सप्तक (परिमार्जित)
फिर पलाश फूले हैं। (स्वतंत्र मत, जबलपुर, २३ मार्च १९९७)फिर पलाश फूले हैं, फिर फगुनाई है।
मस्ती कब किसके दबाव में आई है!
नाज़ उठाती हवा चल रही मतवाली।
इतराती है शाख़ नए फूलों वाली।
कलियां कब अब संकोचों में आती हैं।
गाती हैं विस्फोट का गाना गाती हैं।।
पत्ते नए, नए तेवर दिखलाते हैं।
पेड़ उन्हें अपने माथे बिठलाते हैं।
धूप, ठीक नवयौवन का अभिमान लिए।
चूम रही धरती को नए विहान लिए।।
जिधर देखिए उधर वही तो छाई है।।१।।
मस्ती कब किसके दबाव में आई है!
सिकुड़े बैठे शीत के मारे उठ धाये।
खेतों की पेड़ों पर ठस के ठस आये।
ख़ूब पकी है फसल पसीनावालों की।
व्यर्थ गयी मंशा दुकाल की, पालों की।।
भाग भाग कहने वाले शरमाये हैं।
सिर्फ़ आग के रखवाले गरमाये हैं।
गर्मी से जिनका रिश्ता है नेह भरा।
खेतों खेतों जीवित है वह परम्परा।।
कुछ न कुछ कर गुज़रेगी, तरुणाई है।।२।।
मस्ती कब किसके दबाव में आई है!
दूध पका है बच्चे इन्हें भुनाएंगे।
मसल हथेली फूंक-फूंक कर खाएंगे।
मेड़ों पर जो ऊग रही है बे मतलब।
वही घास बनती 'होलों' का मुख्य सबब।।
इसके बाड़े की लकड़ी छिन जाती है।
उसके माथे पर कालिख पुत जाती है।
पोल खुल रही बंद द्वार की गलियों में।
जाने क्या-क्या छुपा हुआ उन डलियों में--
मालन जिनकी करती फिरे बड़ाई है।।३।।
मस्ती कब किसके दबाव में आई है!
रात में जब फिर लकड़ी कंडे आते हैं।
जलनेवाले ढेरों में जल जाते हैं।
लगी आग लो जली विकारों की होली।
हवा उठाये नए विचारों की डोली।।
लकड़ी किसकी है, ये कंडे किनके हैं?
जले अभी जो वो हथकंडे किनके हैं?
जिन हाथों ने आग लगाई, किनके हैं?
जिन होंठों ने विरुदें गाई, किनके हैं?
दबी हुई बातों की खुली कलाई है।।४।।
मस्ती कब किसके दबाव में आई है!
डंके की चोटों पर बजते ढोल मृदंग।
ताल ठोंककर टोली निकली मस्त मलंग।
सोतों को न जगा सके वह राग नहीं।
कडुवाई न घोल सके वह फाग नहीं।।
गलियों-गलियों कूट कबीरा गाते हैं।
आज कई बंधन ढीले पड़ जाते हैं।
जो काटे मन की विकृतियां, विकलांगन।
उसकी ऊर्जा को बांधेगा क्या आंगन।।
पूनम पर यौवन ने धाक जमाई है।।५।।
मस्ती कब किसके दबाव में आई है!
सुबह हुई है आग होलिका की लेने।
चली गृहणियां पहन पलाशों के गहने।
चूल्हे-चूल्हे चली चिनगियां चेतमयी।
राख उठी माथे पर चढ़कर खेत गयी।।
हर अंगारा नित दहकाया जाएगा।
सारा घर फिर इससे जीवन पायेगा।
परम्परा से आग बचाई जाती है।
ठीक समय पर फिर सुलगाई जाती है।।
हमने अपनी ऐसे साख बचाई है।।६।।
मस्ती कब किसके दबाव में आई है!
रंग अग्नि का उत्साहों का रंग बना।
अंग-अंग की फड़कन और तरंग बना।
अंदर के रंगों की बाहर बौछारें।
गलियों में फूटे हैं रस के फौवारे।।
गहराई तक भींग गए सब तप्त मनस।
चिन्ह छोड़कर मुग्ध खड़े हैं तृप्त परस।
पर्दे के अंदर जब सिमटी नव-लज्जा।
साहस लपका बिखर गई उसकी सज्जा।।
रोध विरुद्ध विरोधों की हथपाई है।।७।।
मस्ती कब किसके दबाव में आई है!
@ रा.रामकुमार, १ मार्च १९९७, नैनपुर.
एक फागुनी मधुमासी गीत
– डॉ. रा. रामकुमार
[ बालाघाट, मध्यप्रदेश ]
किसके अधरों की रंगत पलाशों पे है,
कोई कस्तूरी’-मृग क्या इधर से गया।
क्यों गुलाबी हवा में है मीठी चुभन,
दुष्ट कंदर्प क्या छेड़कर है गया?
फूल सरसों के, अंजुरी में मकरन्द ले,
आनेवाले को जैसे भिगाने खड़े।
बाग वन पथ पे फूलों की चादर बिछा
भूप ऋतुराज को हैं लिवाने खड़े।
पाहुना आ गया तो, वो भगदड़ मची,
कोई तन, कोई मन लूटकर ले गया।
आम्र रसराज बौरा के सुरभित हुए,
यह भी कुदरत का अद्भुत चमत्कार है।
जाते जाते भी फागुन सुफल दे गया,
यह बड़प्पन सुसभ्यों का व्यवहार है।
वर्ष के अंत में भी मिला घट भरा,
हर पथिक घूंट अमृत के भर के गया।
चैत्र की प्रतिपदा सांवली है तो क्या,
सात रंगों से हमने उसे रंग दिया।
इन्द्रधनुषों का यह पर्व हो वर्ष भर,
यूं लगे कोई अपनों के संग-संग जिया।
जो अंगूठी सगाई की पहना गया,
हाथ वो धर के हम सब के सर पे गया।
@ रा.रामकुमार
Comments
भीतर ही थी तुमसे मिलने बाहर आई है ।
हर बंध , हर छन्द , हर शब्द भाव कथ्य सभी अप्रतिम है । सम्पूर्ण गीत आपकी प्रतिष्ठा और भीतर के आंदोलन का प्रतिनिधित्व कर रहा है ।
कुंजकिशोर विरुरकर
12 मार्च 2023
आपने कविता का सम्मान बढ़ा दिया।