Skip to main content

साहित्य में अफ़सरवाद

उद्योग-नगरी के साहित्य क्लब में तब अध्यक्ष कोई बड़ा अधिकारी होता था और सचिव भी एक छोटा अफसर होता था। ये अफसर प्रायः प्रबंधक-वर्गीय होते थे। डाॅक्टर और इंजीनियर कार्यकारिणी में रखे जाते थे। टीचर्स ,इस्टेट और सैफ्टी इंस्पेक्टर वगैरह सदस्य हुआ करते थे। अध्यक्ष और सचिव पद पर बैठे पदाधिकारी अपनी शक्ति लगााकर महाप्रबंक जैसी मूल्यवान हस्तियों को तलुवों से पकड़कर ले आते थे और तालियां बजाकर अपने हाथ साफ कर लेते थे। उन दिनों मैं प्रबंधन में नया था और अफसर नहीं था। मेरे जैसांे की रचनाएं सराही तो जाती थीं मगर ’अधिकारी-सम्मान’ नहीं दिया जाता था।
एक दिन मैं प्रशासनिक सेवा के लिए चुन लिया गया। अचानक जैसे सब कुछ बदल गया। मैं अब उपेक्षणीय से सम्माननीय हो गया। मेरी रचनाओं में वज़न आ गया। जबकि राजधानी की प्रशासनिक अकादमी के लिए मुझे उद्योग-नगरी से विदा होना था , तब मेरे सम्मान में साहित्य क्लब में विशेष आयोजन किया गया। अध्यक्ष , सचिव और कार्यकारिधी के पदाधिकारीगण फूलमालाओं की तरह बात बात में गले लगने लगे।विदाई में जो रचनाएं मुझे पढ़नी थीं , उसे रिकार्ड करने का इंतज़ाम स्वयं अध्यक्षरूपी अधिकारी ने की थी। ये वही अधिकारी थे जो मेरी रचना पाठ के समय माथे पर यूं हाथ रखकर बैठे होते थे मानो उनकी इज्जत लूटी जा रही हो।
तभी मुझे साहित्य में अफसर होने का अर्थ बेहद नज़दीक से समझ में आया। निरंतर नीचा दिखाने का प्रयास करनेवाली तोपें सलामियां दे रहीं थीं। ये साहित्य को सलाम नहीं था बल्कि अफ़सर को कोर्निशें थीं। मुझे जैसे दिव्य-दृष्टि मिल गई। साहित्य का इतिहास मुझे आर पार दिखाई देने लगा। किसी मित्र ने मेरी समीक्षा-दृष्टि को कभी ‘एक्स-रे‘ कहा था। अफ्सरों द्वारा की गई उपेक्षाओं की मार से पीड़ित और कुंठित मुझ ‘ज्ञानीनाम अग्रगण्यम्‘ हनुमान को तब वह बात व्यंग्य की कालीमाता का खूनी-खडग प्रतीत हुई थी। वर्ना आज मैं नामवर होता। ‘हुए नामवर बेनिशां कैसे कैसे‘ के निराशावादी गानों के बावजूद मैं आलोचनावादी खेमे का सिपहसालार होता। खैर ,जो हुआ सो हुआ , ऐसी असफलता में तुलसी सहायता करते हैं कि ‘होहिहे वही जो राम रचि राखा‘।
आज लगा कि अफ़सर होना ब्रह्म-देव का सर्वोत्कृष्ट वरदान है। जिन रवीन्द्रनाथ टैगोर , रामचंद्र शुक्ल , महावीर प्रसाद द्विवेदी , सूर्यकांत त्रिपाठी , जयशंकर प्रसाद ,मुंशी प्रेमचंद , सुमित्रा नंदन पंत वगैरह के नामों को दुहराते दलराते मैं नहीं थका करता था ,अचानक वहां आई.सी.एस अधिकारी विलियम थैकरे , आर. व्ही. रसैल. मैकाले मेरे आदर्श बन गए. भारतीय आई.ए.एस. अध् िाकारियों में स्थापित कवि अशोक वाजपेयी, श्रीकांत वर्मा , सुदीप बैनर्जी , भारतीय आई.ए.एस. अधिकारियों में स्थापित व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल, रामावतार त्यागी ,अजात शत्रु ,डाॅ.देवेन्द्र वर्मा ,भारतीय आई.ए.एस. अधिकारियों में स्थापित जनसंपर्क एवं साक्षरता लेखक डाॅ. सुशील त्रिवेदी , रघुराज सिंह , नए भारत के प्रमुख दलित-विमर्श में स्थापित दलित आई.ए.एस. कवि और लेखक ओमप्रकाश मेहरा ,रमेश थेटे , डाॅ. धर्मवीर , राम मेश्राम आदि अनेक प्रशानिक अधिकारी स्थापित हो गए। इनमें कुछ बैंक अधिकारी ,कुछ प्रसिद्ध राजनेताओं के भतीजे भांजे और रिश्तेदार आ गए। जिन डायरियों में राजधानी के गलियारों में जगमगाते साहित्यकारों के पते थे ,जो सचिवालय के अवर सचिवों को ‘श्रद्धेय‘ कहकर चिरौरियां करते थे और वांछित लाभ प्राप्त करते थे , उनके स्थान पर उन साहित्यकारों के नाम आ गये जिन्हें पदेन श्रद्धेय होने का गौरव हासिल था।
‘‘ आपका भविष्य बहुत ब्राइट है साहब। आप तो संस्कृति विभाग के लिए ट्राई मारना। से।कड़ों टुटपुंजिए साहित्यकार और साहित्यिक संस्थाएं आपकी कृपा पाने के लिए लाइन लगाएंगी। सैंकड़ोंप्रकाशक आपकी रचनाओं के संकलन छापकर धन्य हो जाएंगे। कमीशनों की बाढ़ आ जाएगी और वे समीक्षक जो गैर-अफ़सरों के संकलनों को हाथ भी नहीं लगाते ,अब आपके घर के बाहर हाथ बांधे और कलम खोले दांत निपोरते खड़े रहेंगे। कहेंगे:‘ सर , लाइए ..समीक्षा कर दूं।...कुछ रेडीमेड समीक्षाएं भी आपको सौंपे जाते हैं..जब जहां जैसी जरूरत हो , इस्तेमाल कर लीजिएगा।‘‘ मेरे एक परमशुभचिंतक टाइप साहित्यकार ने मुझे सलाह दी। वे इसी प्रकार की सलाहें दे देकर प्रमोट हुए थे। अपने से बड़े अधिकारियों को ऐसी सलाहें देकर खुष रखने का उनको वर्षों का अनुभव था।सरकारी अकादमी के खाते से उन्होंने सैकड़ों अधिकारियों की किताबें छपती देखी थीं।
शिक्षक से जन-संपर्क अधिकारी बने एक अस्पष्ट कवि के दो-चार कविता संग्रह उन्होंने मुझे दिखाए। उनकी समीक्षा ऐसे साहित्यकारों ने की थीं जो प्रतिबद्ध किस्म के खड़ूस माने जाते थे।क्लर्क से प्रबंधक हुए एक उपन्यासकार और कवि की किताबों की समीक्षा लिखनेवाले अवकाशप्राप्त शिक्षक तथा बैंक के एक खजांची साहित्यकार का परिचय कराते हुए वे मुस्कुराए:‘‘सर ये स्थापित समीक्षक हैं। एक अनियतकालीन लघुपत्रिका के संपादक हैं और सचिवालय में उदीयमान प्रशासनिक साहित्यकारों की तलाश हेतु राजधानी में प्रायः प्रवासित रहते हैं। इनकी लघुपत्रिका का वर्तमान और भविष्य सचिवालय के दान पर टिका हुआ है।‘‘ फिर धीरे से बोले:‘‘ बहुत से प्रशासनिक अधिकारियों के लिए तो ये छद्मलेखन भी करते हैं।‘‘
‘‘ अच्छा !‘‘ अफसर बनने के बाद मुझे साहित्य में अवसर ही अवसर दिखाई देने लगे।साहित्य में अफ़सरवाद देखकर मेरे अंदर सुप्त हो गया साहित्य का कीड़ा कुलबुलाने लगा।मेरे हाथ में वषों से वह कलम थी जिसे ताकतवर होने का यश प्राप्त था ,किन्तु जिसे वास्तव में साहित्य की ताक़त कहते हैं , उसकी वास्तविकता आज मेरे समक्ष खुली थी।

150309,रविवार ,रात 10 बजे .

Comments

Unknown said…
bahut hi khoooooob
MAZA AAGAYA
Dr.R.Ramkumar said…
aap ki baat albeli bhi hai ,nirali bhi.
bas ab is dor ko jor se thame rahein yhi abhilasha hai.
dr.r.ramkumar.

Popular posts from this blog

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।...

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब...

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि...