Skip to main content

चिकनी खाल के रसीले रहस्य

नींऊंड़ा ,नींमुड़ा ,नींबुड़ा:
चिकनी खाल के रसीले रहस्य

मेरे ख्याल से प्रातः-भ्रमण का स्वास्थ्य से चाहे जितना संबंध हो , मस्तिष्क से कहीं ज्यादा है। ताज़ा हवा में ताज़ा विचारों के साथ घूमते हुए ठंडी हवा कितना कुछ दे जाती है ,उसका पता सुबह-सुबह टहलकर घर लौटे हुए आदमी के चेहरे और उत्साह से चल जाता है।
मैं भी उस दिन अपने चेहरे पर उत्साह और विचारों का नये पतेवाला लिफ़ाफ़ा बनकर लौटा था। पत्नी बगिया में पानी दे रही थी । पत्नी को घेरकर मीठी-नीम , पोदीना ,मोंगरे , भटे , इकट्ठी दुृकट्ठी पत्तियोंवाला नगोड़ा नींबुड़ा यानी नीबू वगैरह खड़े थे। नीबू में भरपूर निंबोड़ियां झूल रही थी। ऐसे लग रह था जैसे पत्नी के माथे पर पसीने की चमकदार बूंदों से हंस-हंसकर कुछ बतिया रही हों। मैं कुतूहल के साथ बगिया में घुस गया और ठीक निंबुड़ियों की झूलती डाली के पास खड़ा हो गया । पत्नी ने चेतावनी दी:‘‘ सम्हलकर , नींबू में कांटे होते हैं।‘‘
मैं ठिठक गया। रसीली वनस्पतियों में कांटे ? मैं सोचने लगा कि और कौन कौन से फलदार पेड़ हैं जिनमें कांटे होते हैं! ऐसे फल जो मुझे पसंद है...और ऐसे फूल जो फूलों के राजा हैं.. और ऐसी सब्जियां जिनकी रोज रसोई पकती है और उन सबमें कांटे या कंटेदार रोयंे होते हैं। मुझे सोचता देख पत्नी ने टोका:‘‘ होने लगी कविता ,पकने लगा साहित्य.?’’
मैंने हंसकर कहा:‘‘ पकेगा जो भी ,तुम्हारे निंबुड़े के रस को निचोड़े बिना उनमें स्वाद तो आने से रहा ....लाओ दो एक निंबुड़ियां तोड़ लूं।’’
’’ नहीं ...अभी कच्ची हैं... रस नहीं पड़ा है.. ’’ पत्नी ने वर्जना की।
’’ तुम्हें कैसे पता कि रस नहीं हैं... आई मीन ..कैसे पता चलता है कि रस है या नहीं है ?’’ मैंने जिज्ञासा की।
पत्नी ने कहा:‘‘ नींबू की खाल देखो.. अभी खुरदुरी है... जब यह चिकनी होने लगे तो समझना चाहिए उसमें रस पड़ रहा है।’’
’’ अच्छा ! वनस्पतियां भी तभी रसीली होती हैं जब उनकी खाल चिकनी होती है ?’’ मेरे मुंह से निकल तो गया पर मैं सच कहता हूं यह अकस्मात् ,स्वभाववशात् हो गया था ,ऐसा कोई इरादा नहीं था । परन्तु पत्नी बिफर पड़ी:‘‘ सुबह सुबह तो दिमाग़ दुरुस्त रखा करो....कुछ भी कह जाते हो...जाओ चेंज करो , मैं चाय बनाकर लाती हूं।’’
मैंने सकपकाकर निंबुड़े की झूमती हुई डालियों को देखा और दिमाग में झूलते हुए विचारों को संभाले हुए कमरे में चला आया। यह भी अजीब संयोग था कि उसी दिन अखबार में पचपन-प्लस स्वप्नसंुदरी और चिरयौवना तारिका का संसदीय बयान छपा था:‘‘ मैं बिहार जाकर देखना चाहती हूं कि सड़कें मेरे गालों की तरह चिकनी हुई हैं या नहीं।’’
कहने की जरूरत नहीं है कि बुढ़ज्ञपे मंे भी ताज़गी की चमक से भरे ललिआए गालोंवाले एक भूतपूर्व बिहारी मुख्यमंत्री ने केन्द्रीयमंत्री के रूप में कभी कहा था कि वे बिहार की सड़को को स्वप्नसुंदरी के गालों की तरह चिकना बनाएंगे।’’ यह भी चिकनी परत वालों की रसीली चुटकी थी। तारिका सांसद का बयान भी रसीला था। पत्नी सही कहती है कि जब खाल चिकनी होती है तो उसमें रस पड़ने लगता है। दोनों राजनीति-जीवियों ने यह सिद्ध कर दिया है। हालांकि राजनीति कांटे बोने ,उगाने , बांटने और हटाने की जगह है , इसे सब जानते हैं। यह भी सबको पता है कि तारिकाओं के जीवन में पग-पगपर कांटे होते हैं। यही कांटें शायद उनके जीवन को रसीला बनाते हैं।
मनुष्य जिस प्रकृति का अंग वह प्रकृति अद्भुत है। कांटे हों या फूल...उनसे हमारे संघर्षों को बल मिलता है। इसीलिए हमारे आदर्शों में पुष्पवावटिका भी है और कंटीला वनवास भी। कांटेदार खट्टी मीठी बेरों से हमारे यहां आतिथ्य गौरवांवित होता है तो जंगली संजीवनी से पुनर्जीवन मिलता है। प्रकृति में बसंत भी होते हैं और पतझर भी। यह अद्भुत संयोग है कि बसंत में फूल खिलते हैं तो पेड़ नंगे हो जाते हैं।पत्ते झड़ जाते है। गर्मी जैसे जैसे तेज होती है तो पेड़ों पर भरपूर हरियाली छा जाती है। यानी कुदरत का कोई भी काम इकतरफा नहीं है....धूप है तो छांव भी है। कांटे हैं तो फूलों का राजा गुलाब भी है ,खुश्बू है। कांटे हैं तो नींबुड़ा में रस है ,चटखार है। इतना कुछ देने के बाद भी प्रकृति जीवंत कितनी है ? कांटे आते है तो खिली पड़ती है। फूलती है तो फलती भी है। विनम्र ऐसी कि फलने लगती है तो झुकी पड़ती है। जिन पेड़ों पर न फल हैं ,न फूल वे तने खड़े हैं। सागौन और सरई प्रशासनिक अधिकारी हैं ...उन्हें झुकाना जुर्म हैं ,उन्हें काटना जुूर्म। विलाश के मामलों में उनकी कटाई छंटाई सरकारी इजाजत के साथ की जा सकती है। फलदार वृक्ष तो आम आदमी है , जमीन से जुड़ा आदमी , सरल और सीधा आदमी... आम और अमरूद और सेव और संतरें और नीबू.... फले जा रहे हैं और झुके जा रहे हैं..... 2006 की एक ग़ज़ल का एक शेर ज़हन में उभरता है , जसे कुछ ऐसा है-
फलने लगता है तो झुक जाता है ,
पेड़ गर आदमी होता तो अकड़ जाता।
कुदरत और आदमी यहीं अलग हो जाते हैं। कुदरत झुकती है ,आदमी अकड़ता है। यूं तो आदमी प्रकृति का एक हिस्सा है। प्रकृति के अंदर आदमी है , आदमी के अंदर प्रकुति क्यों नहीं आती ?
नहीं नहीं ,आती तो है।प्रकृति कवियों के अंदर अनायास आती है। मेरे एक परिचित वयोवृद्ध कवि थे...स्व. केशव पांडे। धर्मयुग के कवि। इस्पात नगरी में एक कोमल आदमी... हंसी से भरा हुआ उनका चेहरा...। इस्पात भवन में हम प्रायः रोज मिलते थे। उन्हें हृदयाघात हो गया। पता नहीं जिनके हृदय कोमल होते हैं , प्रायः उन्हें हृदयाघात क्यों होता है ? केशव पांडे के कोमल हृदय में प्रकुति बसी हुई थी । एक दिन लंच में नीबू निचोड़ते हुए मुझे ऐ कविता सुनाई थी....
मित्र !
ये अफसर , ये नेता
हमें नीबू सा निचोड़ लेते हैं
दोपहर के भेजन में ।
मैं बस अवाक्। न आह भर सका ,न वाह कर सका। वे अनुभवी थे। कविता के प्रभाव को जानते थे । मुस्कुराकर बोले:‘‘ इसी में तो मजा है। मित्र , हम अपने को निचोड़कर अपना लंच स्वादिस्ट बनाते हैं ...चलो लंच करें।’’
तबसे मैं देख रहा हूं कि रोज प्रकृति कवियों के अंदर घुसती है और कविता के गवाक्षों से झांकती है। आलेखांे में प्रकृति अपनी द्वंद्वात्मकता , अपना द्वैतवाद उलीच रही है..संभावनाओं को भी , विडम्बनाओं को भी। गीतों में ग़ज़लों में दर्द कराह रहे हैं तो जिन्दगी गुनगुना रही है। कहानियों में करुणा रिस रही है तो आनंद भी झर रहा है।नगमों में नजाकतें इठला रही हैं तो रसीली चटपटी नींबुड़ियां झूम रही है।
नहीं , नींबू मेरे ज़हन से अभी उतरा नहीं है। उसका दिमाग मे चढ़ गया है और वह मेरे सर पर चढ़ गया है। नशा बनकर। जबकि यही सरचढ़ा नींबू कइयों के नशे उतार देता है। यही नींबुड़ा स्वाद को बढ़ाता है तो घमंड को और मद को उतार देता है। गर्मी चढ़ी हो तो नींबू का पानी उतार दे। यह नींबुड़ा जीरा और संेधा नमक के साथ गठबंधनकर सर पर चढ़कर बेहाल कर देने वाली गैस को मिनटों में उतार देता है।
उतारने को तो नींबू भूत भी उतारता है ,और दीठ भी ,नजर भी। सर पर चढ़ी भावों की देवी भी नींबू का उतारा मांगती है। नई खरीदी हुई गाड़ी के पहिए के नीचे नींबू को कुचल दो तो गाड़ी की बलाएं उतर जाती हैं। अपने अस्तित्व को , अपने को निचोड़कर केवल नींबू यानी प्यार में पुकारा गया नींबूड़ा दूसरों की बलाएं उतारता है। यही नहीं भव्य भवनों , दूकानों के सामने मिर्ची के साथ लटके हुए नींबू को देखो...कितने मजे से उनकी चैकसी में पैबस्त हैं ,तैनात हैं।
नींबू के कारनामों और करामातों की फेहरिस्त लम्बी है। वह स्वस्थों को स्वस्थ रखता है तो बीमारों को स्वस्थ करता है। खाली पेट सुबह-सुबह लेने से चर्बी गलने लगती है ,मोटापा छंटता है , रक्त-संसचार सुधरता है , रक्त-चाप सामान्य होता है।
कुलमिलाकर नींबू एक जीवित कविता है ,जिसमें रस है और ऊर्जा भी। नींबू के एक गिलास पानी से मैंने कविता को नहाकर बाहर निकलते देखा है। मेरे मित्र की पत्नी ने बिस्तर पर पड़े हुए पति को नींबू पानी का गिलास थमाते हुए ताना मारा था:‘‘ दिन चढ़े तक ऐसे पड़े हैं जैसे रात मे चढ़ाकर सोये हों।’’
मित्र ने इत्मीनान से नींबू-पानी पिया और पत्नी का हाथ पकड़कर यह शेर सुनाया:
दांव खेला ही नहीं है , तो चुकारा क्यों हो ?
रात जब पी ही नहीं है , तो उतारा क्यों हो ?

चाय पीकर मैं चुपचाप नींबू के पौधे के पास खड़ा हो गया हूं। मैं उसकी बलाएं उतार रहा हूं और अपने सर ले रहा हूं। मुझे याद है कि लगातार चार सालों तक नींबू पर न फूल खिले , न फल आए। तब किसी ने टोटका दिया था कि इतवार बुधवार नींबू के पास खड़े होकर घुड़को कि इस बंझेड़े को काट डालूंगा..क्योंकि यह फलता फूलता ही नहीं। ऐसा एक दो बार कहने से वह फलेगा भी और फूलेगा भी। मैंने इस टोटके को आजमाकर देखने में कोई बुराई नहीं समझी ,क्योंकि इसमें अपना फायदा था। सचमुच नींबू उस घुड़की के बाद फूला भी और देखो कैसे झमाझम फल रहा है। किंतु , किसी कार्यालय में काम अटका हो ,कोई कोशिश फलीभूत न हो रही हो और ऐसे धमकाओ कि काट डालूंगा अगर इस बार काम नहीं हुआ तो। क्या काम फलीभूत होगा ? उलटे मुसीबत खड़ी हो जाएगी। रासुका लगेगा सो अलग। यह तो नींबू है जिसे धमकाने का बुरा नहीं लगता। जरूरतमंदांे के दर्द को वह समझता है।
आखिर मैंने ग्लानि और कृतज्ञता से कांटों की परवाह किये बिना ,नींबू के फलदार वृक्ष की टहनी को चूमा और कहा:‘‘ झूठी मूठी धमकी को दिल से मत लगाना यार ,जब निचोड़ूं तो निचुड़ जाना ।’’

डाॅ. रामार्य

Comments

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि