जन्म तो खैर हो जाता है मगर जीने के अर्थ निरंतर विकसित होते रहते हैं। पहुंचे हूए लोगों को देखता हूं तो सोचता हूं किसने या किस-किसने इन्हें यहां पहुंचाया ? आगे बढ़ने का प्रयास और अपने होने का स्फोट करने की चेष्टा सभी करते हैं। मगर ध्यान सबकी तरफ सबका नहीं जाता ।
जंगल मैं मोर नाचता है कौन देखता है । जो देखता है अगर वह आकर गांव या शहर को यह देखना न बताए तो गांव को या शहर को कैसे पता चले कि मोर नाचता भी है। भालू को बांधकर या घोड़े को साघकर भी लोग नचाते हैं । मगर मोर तो स्वयमेव नाचता हैं। अपनी धुन में। जब मन मैं मौज आई तब। मैंने तो खैर नहीं देखा कि बंदर की तरह या तोतों की तरह या लोटन कबूतरों की भांति वह मनुष्य की गिरफ्त मैं पड़ा है और नाच रहा है। मोर अपने कोई कन्सर्ट भी नहीं करता कि उसको पहचान मिले और शान ,शौकत ,शोहरत और दौलत बढ़े। वह ऐसा कुछ नहीं करता कि लोगों का ध्यान कुछ नही ंतो उस हटकर किए गए के लिए उसकी तरफ हो जाए।
प्रतिभाशाली लोग अक्सर कुछ न कुछ निराला करते रहते हैं। या यूं कहें कि उनसे कुछ न कुछ निराला होते रहता हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी भी प्रतिभाशाली थे किंतु व्यक्तिगत जीवन में साधारण से हटकर थे। कई घटनाओं के समुच्चय ने उन्हें निराला बना दिया। उपेन्द्रनाथ अश्क बहुत पहुचे हुए उपन्यासकार थे और आखिर में उन्होंने परचून की दूकान खोल ली। आजीविका के लिए यह कोई अनहोनी घटना तो नहीं थी। लोगों ने इसे हटकर बताना चाहा। जैसे साहित्य या कविता से जिनका संबंध है वे कुछ काम-धाम नहीं करते। जयशंकर प्रसाद तंबाकू बेचते थे। प्रेमचंद प्रेस में काम करते थे। यह तो आधुनिक काल की बात है। मध्यकाल में तो कबीर कपड़ा बुनते थे , रायदास या रैदास जूते गांठतेें थे ,नामदेव कंपड़ा सिलते थे , सगना मांस बेचते थे। आजीविका के लिए कुछ तो करोगे। मास्टरी करो , कलेक्टरी करों , डाॅक्टरी करो , इंजीनियरी करो। वह तुम्हारी अपनी क्षमता है। कला और लेखन के लिए पुजारियों या साहूकारों की तरह को नेटवर्क नही होता कि घर में बैठे रहो और तुम्हारा नेटवर्क तुम्हें पैसा पहंुचाता रहे। लेखन में प्रायः पैसा नहीं है। मन में मोर बैठा हो तो आप जंगल में तुलसीदास की तरह स्वातः सुखाय नाचिए या फिर अपना प्रोजेक्ट बनाइये ,मैनेजमेंट फंटा अपनाइये और बेस्ट-सेलर के तौर पर मीडिया में छा जाइये। घर बैठे पैसा कमाइये। लेखन में भी अकूत दौलत है। परन्तु वह व्यावसायिक बुद्धि और मैनेजमेंट फंडा की बात है।अश्क के सिलसिले में परसाई की प्रतिक्रिया इसलिए व्यावहारिक तौर पर लेखको की जिम्मेदारी और महत्वाकांक्षाओं के बीच आत्मूुल्यांकन पर आधारित थी। अभी एक शायर जौनपुरी के पुस्तैनी काम बीड़ी बनाने को लेकर समाचार हाई-लाइट हुआ है। चुनाव के दौरान एक नगरपालिका अध्यक्ष के पुस्तैनी काम जूते गांठना हाइ-लाइट हुआ था। कवि लेखक को क्या काम करना चाहिए और नहीं करना चाहिए इसके कोई मापदंड नहीं हैं। कवि या लेखक या शायर किय प्रकार के ना्ररिक हैं यह भी कहीं उल्लेखित नहीं हैं। कलेक्टर अगर लेखक है तो वह श्रीलाल शुक्ल , अशोक बाजपेयी ,श्रीकांत वर्मा ,रामावतार त्यागी है। वर्ना वह प्रेमचंद है ,निराला है, परसाई है , अश्क है , जौनपुरी है। समाज इस फेर में नहीं पड़ता कि तुम किस हाल में हो। तुम छप सक रहे हो , अपने संकलन निकाल पा रहे हो और हम तक पहंुचा रहे हो , मतलब तुम हो।
यह बात बड़े गर्व और बहुत उपेक्षा के साथ कलावर्गीय और साधारण जीविकाधर्मियों के बीच कही जाती है कि कलाकार अपने स्वाभिमान के कारण प्रचलित मानदंडांे में कभी बंधता नहीं है। चारों और छद्मकलाकारों और व्यापारवादी ,प्रचारवादी ,अवसरवादी ,नक्काल लेखकों और तथाकथित साहित्य-प्रबंधन की साजिशों से घिरा व्यक्तित्व निखरने की बजाय बिखरते चला जाता है। कभी-कभीकोई-कोई प्रतिभाशाली गणितज्ञ ,साहित्यकार, महिला पत्रकार , या कभी कोई प्रतिभाशाली गायक विक्षिप्त होकर सड़कों पर जनरंजन के तौर पर देखा जाने लगता है। हमारी चैकसी ऐसी है कि घट जाता है तब तफसीस होती है। कोई घटना घटे ही नहीं ऐसी व्यवस्था अभी भी नहीं है। घटेगा तभी दिखेगा और तभी व्यवस्था की सक्रियता भी दिखाई देगी। यह नीति है , राजनीति है या कूटनीति है। जो भी है यही हमारा वास्तविक सत्य है जो खुला हुआ है। एक यही सत्य है जिसे सब जानते है ,जो कीलित नहीं है।
हाल ही में ’कुमार गंदर्भ का बेटा होशंगाबाद में मिला ’ शीर्षक से एक अखबार में साधारण-सा पुर्जीनुमा समाचार आया। दूसरे दिन उसी अखबार में फोटो सहित ’प्रख्यात गायक मुकुल शिवपुत्र के पुनर्वास की कोशिश ’ शीर्षक से समाचार आया और मुकुल शिवपुत्र को न जाननेवालों को पता चला कि अवसाद और शराब के नशे में गुमनाकल का जीवन बितानेवाले प्रख्यात गायक शिवपुत्र के गरिमामय पुनर्वास की मध्यप्रदेश में उच्चस्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं। मध्यप्रदेश में किसी संगीत अकादमी या केन्द्र में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दिए जाने का प्रस्ताव है। लेकिन मुकुल के मित्र कहते हैं कि बेहद स्वाभिमानी इस इस गाायक को व्यवस्था के अनुकूल ढालना असंभव है। घर , पुरस्कार या पैसा उन्हें अगर बांध सकता तो वह भीेपाल , दिल्ली अथवा मुंबई में रहकर मनचाहा पैसा कमा सकते थे।
दूसरी और, ग्वालियर घराने से संबद्ध ,मुलतः देवास निवासी ,खयाल गायकी के बेजोड़ कलाकार ,मुकुल शिवपुत्र के करीबी मित्रों के हवाले से मुकुल नशे के इतने बुरे आदी नहीं थे। उन्होंने छः छः महीने शराब को हाथ भी नहीं लगाया। डाॅक्टर कहते हैं कि मुकुल डिप्रेशन के शिेकार हैं और उन्हें इलाज की जरूरत है।
तीसरे दिन समाचार आया कि कई संगठनों ने मुकुल शिवपुत्र की सहायता की पेषकश की है। इसी के साथ कुकुल का एक सार्थक, स्वस्थ और साहित्यिक बयान प्रकाशित किया गया है जिाका शीर्षक है:’’ आत्मीयता से मिला संबल ’’ यह बयान मुकुल के हस्ताक्षर से जारी किया गया है - ’’ जिस तरह किसी के भी जीवन में घटती हैं ,उसी तरह कलाकार के जीवन में भी कुछ अनहोनी घटनाएं घट जाती है। ऐसे समय में व्यक्ति के रूप में सभी को अपने समाज से संवेदना की आशा रहती है। मैं हार्दिक रूप् से कलाप्रेमीजनों के साथ ही समाज और सरकार के प्रति कृतज्ञता का अनुभव कर रहा हूं , जो मेरी सृजनशीलता के प्रति सच्चे मन से चिंतित हैं। यह आत्मीयता मुझे नया संबल दे रही हैं। मेरे प्रति सबका विष्वास मुझे आनेवाले समय में और अधिक उर्जावान होने की शक्ति दे रहा है। ’’
इस कृतज्ञ ,समर्थ और सार्थक टिप्पणी को पढ़कर लगता है कि एक दिन पूर्व उठाए गए मीडिया के इन प्रश्नों में दम है कि मुकुल शिवपुुत्र क्या नशे के शिकार हैं अथवा उनकी इस हालत के पीछे कोई दूसरा कारण जिम्मेदार है। या फिर यह एक कलाकार की मन की मौज है। इन सारे सवालो पर अभी पर्दा ही पड़ा है।
कलाकार मौजी होता है यह बहुत अधिक प्रचाारित प्रसाारित रूमानियत है। इसी के चलते मूडी और अश्लील-बुद्धि-सम्पन्न एम .एफ.हुसैन अरब-खरबपति हो गए हैं। मगर मुकुल के ’वोट आॅफ थैंक्स’ या कष्तज्ञता ज्ञापन ने एक नया ही वैज्ञानिक अनुसंधान प्रस्तुत किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने तो कहा था -’’ को अस जनमा है जग माही । पद पाए जाको मद नाही ।’’ मुकुल ने यह मनोविज्ञान दिया है कि पद पाकर मद और प्रमाद ,अवसाद और कुण्ठा-ग्रस्त व्यक्ति भी स्वस्थ हो जाते हैं।
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जंगल मैं मोर नाचता है कौन देखता है । जो देखता है अगर वह आकर गांव या शहर को यह देखना न बताए तो गांव को या शहर को कैसे पता चले कि मोर नाचता भी है। भालू को बांधकर या घोड़े को साघकर भी लोग नचाते हैं । मगर मोर तो स्वयमेव नाचता हैं। अपनी धुन में। जब मन मैं मौज आई तब। मैंने तो खैर नहीं देखा कि बंदर की तरह या तोतों की तरह या लोटन कबूतरों की भांति वह मनुष्य की गिरफ्त मैं पड़ा है और नाच रहा है। मोर अपने कोई कन्सर्ट भी नहीं करता कि उसको पहचान मिले और शान ,शौकत ,शोहरत और दौलत बढ़े। वह ऐसा कुछ नहीं करता कि लोगों का ध्यान कुछ नही ंतो उस हटकर किए गए के लिए उसकी तरफ हो जाए।
प्रतिभाशाली लोग अक्सर कुछ न कुछ निराला करते रहते हैं। या यूं कहें कि उनसे कुछ न कुछ निराला होते रहता हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी भी प्रतिभाशाली थे किंतु व्यक्तिगत जीवन में साधारण से हटकर थे। कई घटनाओं के समुच्चय ने उन्हें निराला बना दिया। उपेन्द्रनाथ अश्क बहुत पहुचे हुए उपन्यासकार थे और आखिर में उन्होंने परचून की दूकान खोल ली। आजीविका के लिए यह कोई अनहोनी घटना तो नहीं थी। लोगों ने इसे हटकर बताना चाहा। जैसे साहित्य या कविता से जिनका संबंध है वे कुछ काम-धाम नहीं करते। जयशंकर प्रसाद तंबाकू बेचते थे। प्रेमचंद प्रेस में काम करते थे। यह तो आधुनिक काल की बात है। मध्यकाल में तो कबीर कपड़ा बुनते थे , रायदास या रैदास जूते गांठतेें थे ,नामदेव कंपड़ा सिलते थे , सगना मांस बेचते थे। आजीविका के लिए कुछ तो करोगे। मास्टरी करो , कलेक्टरी करों , डाॅक्टरी करो , इंजीनियरी करो। वह तुम्हारी अपनी क्षमता है। कला और लेखन के लिए पुजारियों या साहूकारों की तरह को नेटवर्क नही होता कि घर में बैठे रहो और तुम्हारा नेटवर्क तुम्हें पैसा पहंुचाता रहे। लेखन में प्रायः पैसा नहीं है। मन में मोर बैठा हो तो आप जंगल में तुलसीदास की तरह स्वातः सुखाय नाचिए या फिर अपना प्रोजेक्ट बनाइये ,मैनेजमेंट फंटा अपनाइये और बेस्ट-सेलर के तौर पर मीडिया में छा जाइये। घर बैठे पैसा कमाइये। लेखन में भी अकूत दौलत है। परन्तु वह व्यावसायिक बुद्धि और मैनेजमेंट फंडा की बात है।अश्क के सिलसिले में परसाई की प्रतिक्रिया इसलिए व्यावहारिक तौर पर लेखको की जिम्मेदारी और महत्वाकांक्षाओं के बीच आत्मूुल्यांकन पर आधारित थी। अभी एक शायर जौनपुरी के पुस्तैनी काम बीड़ी बनाने को लेकर समाचार हाई-लाइट हुआ है। चुनाव के दौरान एक नगरपालिका अध्यक्ष के पुस्तैनी काम जूते गांठना हाइ-लाइट हुआ था। कवि लेखक को क्या काम करना चाहिए और नहीं करना चाहिए इसके कोई मापदंड नहीं हैं। कवि या लेखक या शायर किय प्रकार के ना्ररिक हैं यह भी कहीं उल्लेखित नहीं हैं। कलेक्टर अगर लेखक है तो वह श्रीलाल शुक्ल , अशोक बाजपेयी ,श्रीकांत वर्मा ,रामावतार त्यागी है। वर्ना वह प्रेमचंद है ,निराला है, परसाई है , अश्क है , जौनपुरी है। समाज इस फेर में नहीं पड़ता कि तुम किस हाल में हो। तुम छप सक रहे हो , अपने संकलन निकाल पा रहे हो और हम तक पहंुचा रहे हो , मतलब तुम हो।
यह बात बड़े गर्व और बहुत उपेक्षा के साथ कलावर्गीय और साधारण जीविकाधर्मियों के बीच कही जाती है कि कलाकार अपने स्वाभिमान के कारण प्रचलित मानदंडांे में कभी बंधता नहीं है। चारों और छद्मकलाकारों और व्यापारवादी ,प्रचारवादी ,अवसरवादी ,नक्काल लेखकों और तथाकथित साहित्य-प्रबंधन की साजिशों से घिरा व्यक्तित्व निखरने की बजाय बिखरते चला जाता है। कभी-कभीकोई-कोई प्रतिभाशाली गणितज्ञ ,साहित्यकार, महिला पत्रकार , या कभी कोई प्रतिभाशाली गायक विक्षिप्त होकर सड़कों पर जनरंजन के तौर पर देखा जाने लगता है। हमारी चैकसी ऐसी है कि घट जाता है तब तफसीस होती है। कोई घटना घटे ही नहीं ऐसी व्यवस्था अभी भी नहीं है। घटेगा तभी दिखेगा और तभी व्यवस्था की सक्रियता भी दिखाई देगी। यह नीति है , राजनीति है या कूटनीति है। जो भी है यही हमारा वास्तविक सत्य है जो खुला हुआ है। एक यही सत्य है जिसे सब जानते है ,जो कीलित नहीं है।
हाल ही में ’कुमार गंदर्भ का बेटा होशंगाबाद में मिला ’ शीर्षक से एक अखबार में साधारण-सा पुर्जीनुमा समाचार आया। दूसरे दिन उसी अखबार में फोटो सहित ’प्रख्यात गायक मुकुल शिवपुत्र के पुनर्वास की कोशिश ’ शीर्षक से समाचार आया और मुकुल शिवपुत्र को न जाननेवालों को पता चला कि अवसाद और शराब के नशे में गुमनाकल का जीवन बितानेवाले प्रख्यात गायक शिवपुत्र के गरिमामय पुनर्वास की मध्यप्रदेश में उच्चस्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं। मध्यप्रदेश में किसी संगीत अकादमी या केन्द्र में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दिए जाने का प्रस्ताव है। लेकिन मुकुल के मित्र कहते हैं कि बेहद स्वाभिमानी इस इस गाायक को व्यवस्था के अनुकूल ढालना असंभव है। घर , पुरस्कार या पैसा उन्हें अगर बांध सकता तो वह भीेपाल , दिल्ली अथवा मुंबई में रहकर मनचाहा पैसा कमा सकते थे।
दूसरी और, ग्वालियर घराने से संबद्ध ,मुलतः देवास निवासी ,खयाल गायकी के बेजोड़ कलाकार ,मुकुल शिवपुत्र के करीबी मित्रों के हवाले से मुकुल नशे के इतने बुरे आदी नहीं थे। उन्होंने छः छः महीने शराब को हाथ भी नहीं लगाया। डाॅक्टर कहते हैं कि मुकुल डिप्रेशन के शिेकार हैं और उन्हें इलाज की जरूरत है।
तीसरे दिन समाचार आया कि कई संगठनों ने मुकुल शिवपुत्र की सहायता की पेषकश की है। इसी के साथ कुकुल का एक सार्थक, स्वस्थ और साहित्यिक बयान प्रकाशित किया गया है जिाका शीर्षक है:’’ आत्मीयता से मिला संबल ’’ यह बयान मुकुल के हस्ताक्षर से जारी किया गया है - ’’ जिस तरह किसी के भी जीवन में घटती हैं ,उसी तरह कलाकार के जीवन में भी कुछ अनहोनी घटनाएं घट जाती है। ऐसे समय में व्यक्ति के रूप में सभी को अपने समाज से संवेदना की आशा रहती है। मैं हार्दिक रूप् से कलाप्रेमीजनों के साथ ही समाज और सरकार के प्रति कृतज्ञता का अनुभव कर रहा हूं , जो मेरी सृजनशीलता के प्रति सच्चे मन से चिंतित हैं। यह आत्मीयता मुझे नया संबल दे रही हैं। मेरे प्रति सबका विष्वास मुझे आनेवाले समय में और अधिक उर्जावान होने की शक्ति दे रहा है। ’’
इस कृतज्ञ ,समर्थ और सार्थक टिप्पणी को पढ़कर लगता है कि एक दिन पूर्व उठाए गए मीडिया के इन प्रश्नों में दम है कि मुकुल शिवपुुत्र क्या नशे के शिकार हैं अथवा उनकी इस हालत के पीछे कोई दूसरा कारण जिम्मेदार है। या फिर यह एक कलाकार की मन की मौज है। इन सारे सवालो पर अभी पर्दा ही पड़ा है।
कलाकार मौजी होता है यह बहुत अधिक प्रचाारित प्रसाारित रूमानियत है। इसी के चलते मूडी और अश्लील-बुद्धि-सम्पन्न एम .एफ.हुसैन अरब-खरबपति हो गए हैं। मगर मुकुल के ’वोट आॅफ थैंक्स’ या कष्तज्ञता ज्ञापन ने एक नया ही वैज्ञानिक अनुसंधान प्रस्तुत किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने तो कहा था -’’ को अस जनमा है जग माही । पद पाए जाको मद नाही ।’’ मुकुल ने यह मनोविज्ञान दिया है कि पद पाकर मद और प्रमाद ,अवसाद और कुण्ठा-ग्रस्त व्यक्ति भी स्वस्थ हो जाते हैं।
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Comments
या तो फॉन्ट साइज बडी़ करें या थीम बदल दें...ऐसा ना हो कई महत्वपूर्ण चीज़ें बिना पढ़ें रह जाएं...
बढि़या आलेख है...
कलाकार अपना रास्ता खुद चुनता है..बहुत सारी वज़हों से वह प्रचलित सामाजिक तौर-तरीकों से अलग लीक बनाता है..और जाहिर है वह ऐसा नहीं करना चाहता इसीलिए नहीं करता, वरना संभावनाएं उसके पास भी होती है कि मुख्यधारा में शामिल हो जाए..
फिर वह या हम क्यों चाहें कि समाज से उसे ये ना मिला, वो ना मिला...क्यों मिले?
हम ख़ुद यह राह चुनते हैं तो हम ही इसके लिए ज़िम्मेदार हैं...
और अगर बदले में कुछ चाहते हैं, तो साफ़ है हमने किसी भ्रम में गलत राह चुन ली है...ये सब छोड़े और बाज़ार में आ जाएं...
हमारे पास भी बेचने के लिए कुछ ना कुछ निकल ही आयेगा.....