रामायणकाल मे शास्त्र पोषित सम्राट् राम की कहानी में एक युगान्तर तब घटित हुआ जब अयोध्या के राजा भरत ने आग्रह किया था कि आपका अधिकार है आप राजा बनें। शास्त्रीय नैतिकता और मर्यादा को कठोर व्यावहारिकता में बदल देनेवाले राम ने नियति से प्राप्त वनवास को वरेण्य मानकर भरत का आग्रह अस्वीकृत कर दिया था। तब भरत ने राम कीह खड़ाऊ मांग ली और सर पर रख्कर लौट आए। राजसिंहासन पर उन खड़ाउओं को स्थापित कर वे पगतिनिधि राज्य की भांति राजकाज देखने लगे और कुटिया में कुशों के आसन पर पतस्वी जीवन बिजाने लगे। ऐसा आदर्श और कहीं दिखाई नहीं देता कि भाग्य से प्राप्त राज्य को गर्हित मानकर उसके पारंपरिक वास्तविक अधिकारी की वस्तु मानते हुए राजा तपस्वी हो जाए। आज तो राज्य और राज्य सिंहासन के लिए मारकाट ,छीना झपटी और षड़यंत्रों की बाढ़ सी आ गई है। हालांकि भारत के महाभारत-काल में इसका सूत्रपात हो गया था। कितना अंतर है - रामकाल की उन खड़ाउओं में और आज जो फेंकी जा रही हैं उनमें।
अध्यात्म के क्षेत्र में भी गुरु की खडाऊ का पूजन भारतीय मनीषा की अपनी मौलिक साधना है। हमारे देश मंे केवल शास्त्रों की ही पूजा नहीं होती , शस्त्रों की भी होती है और शास्त्रों के पिर्माणकत्र्ता गुरुओं की चरण पादुका उर्फ खड़ाऊ उर्फ जूतों की भी। संतों की परंपरा में तो जूते गांठनेवाले संत रविदास या रैदास का समादर भी इसी देश में संभव हुआ। इतना ही नहीं राजपूताने की महारानी मीरांबाई अपने राजसी वैभव को छोड़कर उनकी चरणरज लेकर संन्यासिनी हो गई।
दूसरी ओर अपने आराध्य और श्रद्धेय के जूते सरपर धारण करने वाले देश में दूसरों को जूतों की नोंक पर रखने के अहंकार-घोषणा यत्र-तत्र-सर्वत्र सुनाई देती है। आज के घोषणापत्रों में अपने विचारों के अलावा दूसरों को जूता दिखाने की खुली गर्जनाएं गूंज रही हैं। अपने विकास कार्यक्रमों की बजाय देसरों के सत्यानाश की ललकारों पर उनको भविष्य दिखाई दे रहा है। श्रद्धा की चरणपादुकाएं ,खड़ाऊ या जूते आक्रोश , प्रतिहिंसा और कलुषित मनोविकारों में रूपायित हो गए। यह हमारी मानसिकता का विकास है या अधोपतन ?
इतिहास के पन्नों में संभवतः 2009 ‘जूता वर्ष’ के रूप में जाना जाए। विश्व की सबसे बड़ी ताकत के रूप में सर्वमान्य अमेरिका के निवृत्तमान राष्ट्रपति जार्ज बुश पर बगदाद के एक पत्रकार ने साम्राज्यवाद के विरोध में अपना जूता चलाया था। जूते या तो समाज और राजनीति में या घर और संसद में चलते रहे हैं। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी राष्ट्राध्यक्ष पर चलनेवाला यह पहला जूता था।सारा विश्व सकते मंे आ गया। इसे आंतरिक अव्यवसथा और युद्धाक्रांत देश की , दमन के विरुद्ध अभिव्यक्ति कहा गया। ताकतवर बंदूकों के शिकंजे में दबे प्रचारतंत्र द्वारा ईजाइ किया गया सूचना और संचार का , मासकम्युनिकेशन का नया तरीका था , अपेक्षाकृत नया असत्र था। अब ‘ जूता ’ समर्थों के खिलाफ अपनी बात कहने का नया वैश्विक-उपकरण बन गया।
ऐसा नहीं है कि यह गुस्सा साम्राज्यवाद , विश्पूंजीवाद और मुद्राबाजार के एकमात्र अधिनायक राष्ट्र तक ही सीमित रहा। कुछ दिनों बाद चीन के प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ पर भी उनकी आक्सफोर्ड यात्रा के दौरान फेंका गया।
सन 2009 भारत का चुनावी वर्ष भी है। दिल्ली सहित कुछ महŸवपूर्ण राज्यों की विधानसभा के चुनाव परिणामों ने लोकसभा के चुनावों को हड़बड़ा दिया है। शायद इसी का नतीजा था कि गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् पर चुनावी दौर की शुरुआत पर ही पत्रकार-वात्र्ता के दौरान एक पत्रकार ने जूता फेंका। वैश्विक संघटनाओं का यह भारतीयकरण था। भारत की यही विडम्बना है कि वह सर्वौत्तम का सृजन करता है और भौंडा , और वीभत्स का अनुकरण घटिया का अनुकरध करता है। पी. चिदम्बर पर फेंके गए पहले भारतीय जूते की गूंज दूर तक हुई। बुश पर जूता फेंकनेवाले बगदाददी पत्रकार का हश्र बुरा हुआ, जेल हुई। हमारी भारतीय परम्परा क्षमाशील है। ईसामसीह से हमने यह गुण लिया है। गृहमंत्री ने इसका पालन करते हुए भारतीय पत्रकार को क्षमा कर दिया और पत्रकार ने भी खेद व्यक्त करते हुए कहा: ‘‘ मेरा उद्देश्य नुकसान पहुंचाना नहीं ,ध्यानाकर्षण था। मैंने हीरो बनने के लिए यह नहीं किया बल्कि राष्ट्रीय स्तर तक अपनी बात पहुंचाने के लिए किया। जबकि अकालीदल ने तो जूता फेंकनेवाले पत्रकार जरनैल सिंह को भगतसिंह की उपाधि दे दी।
फिर तो जैसे जूते चलने का मानसून ही आ गया। 8 अप्रेल गुहमंत्री पी. चिदम्बरम् पर हमला अभी हमला ताजा ही था कि 11 अप्रेल सांसद नवीन जिंदल पर एक रिटायर्ड शिक्षक ने जूता फेंका , 17 अप्रेल को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रक्षेपित लालकृष्ण आडवानी पर पार्टाी काषर््कत्र्ता द्वारा खड़ाª फेंकी गई , 27 अप्रेल को भारत के वत्र्तमान प्रधानमंत्री डाॅ.मनमोहन सिंह पर एक बेरोजगार कम्प्यूटर इंजीनियर ने चप्पल फेंकी ,28 अप्रेल को दोबारा आडवानी पर निर्दलीय उम्मीदवार ने चप्पल फेंकी , और आज 29 अप्रेल को कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा पर एक युवक नेचप्पल फेंकी। इसी बीच सिने जगत के प्रसिद्ध अभिनेता जीतेन्द्र पर भी एक युवक ने चप्पल फेंकी। मजे की बात यह है कि इन सबसे बेपरवाह गुजरात के कलील शहर का नगरपालिका अध्यक्ष मुकेश परमार (भाजपा) अपने कार्यदिवस का काम निपटाकर अपनी पुश्तैनी चप्पल की दूकान पर नियमित मरम्मत और चप्पल निर्माण कर रहंे हैं। मूकेश परमार के दृष्टांत से हिन्दी उर्दू के प्रख्यात लोकप्रिय लेखक कृश्नचंदर की कहानी ‘ जूता ’ का बरबस स्मदण हो आता है. यह कहानी करीब 1965-70 के आसपास उनके कहानी संकलन ‘ जामुन का पेड़ ’ में संकलित थी. हंसी-हंसी में कृश्न चंदर मर्म पर चोट करने पर कभी नहीं चूकजे थे. ‘जूता’ कहानी के माध्यम से उन्होंने समाज की बेरोजगारी , डिग्री धारियों के मोहभंग , पैसों के पीछे भागने की समाज के प्रत्येक वर्ग की मूल्य विहीन लोलुपता पर उन्होंने तीखें कटाक्ष किए हैं. कहानी का प्रारंभ जामुन के पंड़ के नीचे बैठे एक मोची के जूते गांठने के दृष्य से होती है. बातों बातों में पता चलता है कि वह मोची पीछे खडत्रे आलीशान बंगले का मालिक था. उसने समाज के लोगों के चेहरों से पर्दा उठाने के लिए सौ जूते खानेवाले को दस हजार का ईनाम देने की घोषणा कर दी. तीन दिन तक समाज के हर वर्ग के लोग छुपते छुपाते आए और जूते खाकर चले गए. तीसरे दिन वह कंगाल हो गया और वही सामने मोची की दूकान खोल ली. आज अगर यह ईनाम रखा जाए तो घटनाएं बताता हैं कि दस हजार के बदले जूते खाने के लिए लोग अधिकार के साथ आएंगे. पैसा कमाने में शर्म कैसी ? खासकर उस वक्त जब जूते-चप्पल खाने में देश विदेेश मंें लोकप्रियता हासिल हो.
भारत जितना अद्भुत देश है ,उतनी अद्भुत उसकी विरासतें है। साहित्य भी अद्भुत है। आज भी जूते चप्पलॅे फेंकने की घटनाओं पर पत्रकार अगर अपनी बात कह रहे हैं तो चित्रकार अपने कार्टून बना रहे हैं , व्यंग्यकार इसे अपनी दृष्टि से देख रहे हैं तो प्ररूज्ञासनिक अधिकारी बतौर लेखक अपने दिशा निर्देश दे रहे हैं। जहां पी. चिदम्बरम् पर फेंके गए जूते पर पत्रकार गोकुल षर्मा ने उसे ‘लोकतंत्र की निराशा ‘ कहा तो आडवानी पर फेंके गए खड़ाऊ और के विषय में उन्होंने चेताया कि यह भाजपा को चेतावनी है कि कार्यकत्ताओं को नजर अंदाज न करें। आलोक पुराणिक ने ‘ जूता संहिता ‘ बनाने की व्यंग्यात्मक पहल की जा पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एम एन बुच ने आक्रोश को कानून की हदें पार न करने की तरबीयत की।
एक व्यंग्य चित्रकार हैं मंजुल । उन्होंने पहले भारतीय जूता कांड पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ‘मास कम्युनिकेशन इंस्टीट्यूट ’ के छात्रों को जूता फेंकने के हुनर का अभ्यास करते हुए चित्रित किया। वहीं 25 अप्रेल को उनके कार्टून में एक नेता अपने जूतों के , अपनी पत्नी के जूतों के तथा अपने बच्चों के जूतों के नाप और नम्बर बता रहा है। हर जूता प्रकरण के बाद हमारे राजनेता निर्विकार भाव से अपनी बात जारी रखते है। यह अद्भुत समभाव राजनीति की देन है या गीता की ?
यह लेख जब तक लिखा जा रहा है ( 29 अप्रेल ) तब तक लगभग प्रतिदिन जूता किसी बड़े राजनेता पर चल रहा है।येदुरप्पा पर आज की तारीख खत्म हुई हैलेकिन यह अंत नहीं है। 2009 के समाप्त होते होते , चुनाव के बाद सरकार बनते तक और सरकार बनने के बाद संसद में अभी और न जाने कितने जूते चलेंगे कौन जानता है ? इन जूतों को कौन रोक सका है जो रोकेगा ?बस केवल विश्लेषण , लेख , टिप्पणियां ,व्यंग्य ,कार्टून और कविताओं का दौर चलेगा।
यह संयोग ही है केवल कि 2003 के अप्रेल माह में विदेशों की अकादमिक यात्रा से लौटे दो भारतीय विद्वानों ने जब ‘जूतों ’ को संबोधित मेरी कविता ‘ क्रियात्मक और सर्जनात्मक ’ कहा था तब मुझे कहां पता था कि 2009 के अप्रेल को हमें जूतों के इतने कारनामे सुनने पढ़ने को मिलेंगे और वर्ष 2009 ’ जूतों का अभिनंदन वर्ष ’ कहलाएगा ? 2003 की यह कविता जरा 2009 के अप्रेल में देखी जाए..
जूतों !
पहने जाते हो पैरों में,/मगर /हाथों में देखे जाते हो
जूतों ! /सच सच बताओ /यह जुगाड़ कैसे भिड़ाते हो ?
संसद की बदल जाती हैं /सांवैधानिक प्रक्रिया
चलती नहीं आचार संहिता -/जब तुम चलते हो
स्तब्ध है विराट प्रजातंत्र /और दिव्य भारतीय संस्कृति
थ्नकृष्ट
तुम कितने रूप बदलते हो !
आओ , तुम्हें सिर पर धारण करें .........
अध्यात्म के क्षेत्र में भी गुरु की खडाऊ का पूजन भारतीय मनीषा की अपनी मौलिक साधना है। हमारे देश मंे केवल शास्त्रों की ही पूजा नहीं होती , शस्त्रों की भी होती है और शास्त्रों के पिर्माणकत्र्ता गुरुओं की चरण पादुका उर्फ खड़ाऊ उर्फ जूतों की भी। संतों की परंपरा में तो जूते गांठनेवाले संत रविदास या रैदास का समादर भी इसी देश में संभव हुआ। इतना ही नहीं राजपूताने की महारानी मीरांबाई अपने राजसी वैभव को छोड़कर उनकी चरणरज लेकर संन्यासिनी हो गई।
दूसरी ओर अपने आराध्य और श्रद्धेय के जूते सरपर धारण करने वाले देश में दूसरों को जूतों की नोंक पर रखने के अहंकार-घोषणा यत्र-तत्र-सर्वत्र सुनाई देती है। आज के घोषणापत्रों में अपने विचारों के अलावा दूसरों को जूता दिखाने की खुली गर्जनाएं गूंज रही हैं। अपने विकास कार्यक्रमों की बजाय देसरों के सत्यानाश की ललकारों पर उनको भविष्य दिखाई दे रहा है। श्रद्धा की चरणपादुकाएं ,खड़ाऊ या जूते आक्रोश , प्रतिहिंसा और कलुषित मनोविकारों में रूपायित हो गए। यह हमारी मानसिकता का विकास है या अधोपतन ?
इतिहास के पन्नों में संभवतः 2009 ‘जूता वर्ष’ के रूप में जाना जाए। विश्व की सबसे बड़ी ताकत के रूप में सर्वमान्य अमेरिका के निवृत्तमान राष्ट्रपति जार्ज बुश पर बगदाद के एक पत्रकार ने साम्राज्यवाद के विरोध में अपना जूता चलाया था। जूते या तो समाज और राजनीति में या घर और संसद में चलते रहे हैं। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी राष्ट्राध्यक्ष पर चलनेवाला यह पहला जूता था।सारा विश्व सकते मंे आ गया। इसे आंतरिक अव्यवसथा और युद्धाक्रांत देश की , दमन के विरुद्ध अभिव्यक्ति कहा गया। ताकतवर बंदूकों के शिकंजे में दबे प्रचारतंत्र द्वारा ईजाइ किया गया सूचना और संचार का , मासकम्युनिकेशन का नया तरीका था , अपेक्षाकृत नया असत्र था। अब ‘ जूता ’ समर्थों के खिलाफ अपनी बात कहने का नया वैश्विक-उपकरण बन गया।
ऐसा नहीं है कि यह गुस्सा साम्राज्यवाद , विश्पूंजीवाद और मुद्राबाजार के एकमात्र अधिनायक राष्ट्र तक ही सीमित रहा। कुछ दिनों बाद चीन के प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ पर भी उनकी आक्सफोर्ड यात्रा के दौरान फेंका गया।
सन 2009 भारत का चुनावी वर्ष भी है। दिल्ली सहित कुछ महŸवपूर्ण राज्यों की विधानसभा के चुनाव परिणामों ने लोकसभा के चुनावों को हड़बड़ा दिया है। शायद इसी का नतीजा था कि गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् पर चुनावी दौर की शुरुआत पर ही पत्रकार-वात्र्ता के दौरान एक पत्रकार ने जूता फेंका। वैश्विक संघटनाओं का यह भारतीयकरण था। भारत की यही विडम्बना है कि वह सर्वौत्तम का सृजन करता है और भौंडा , और वीभत्स का अनुकरण घटिया का अनुकरध करता है। पी. चिदम्बर पर फेंके गए पहले भारतीय जूते की गूंज दूर तक हुई। बुश पर जूता फेंकनेवाले बगदाददी पत्रकार का हश्र बुरा हुआ, जेल हुई। हमारी भारतीय परम्परा क्षमाशील है। ईसामसीह से हमने यह गुण लिया है। गृहमंत्री ने इसका पालन करते हुए भारतीय पत्रकार को क्षमा कर दिया और पत्रकार ने भी खेद व्यक्त करते हुए कहा: ‘‘ मेरा उद्देश्य नुकसान पहुंचाना नहीं ,ध्यानाकर्षण था। मैंने हीरो बनने के लिए यह नहीं किया बल्कि राष्ट्रीय स्तर तक अपनी बात पहुंचाने के लिए किया। जबकि अकालीदल ने तो जूता फेंकनेवाले पत्रकार जरनैल सिंह को भगतसिंह की उपाधि दे दी।
फिर तो जैसे जूते चलने का मानसून ही आ गया। 8 अप्रेल गुहमंत्री पी. चिदम्बरम् पर हमला अभी हमला ताजा ही था कि 11 अप्रेल सांसद नवीन जिंदल पर एक रिटायर्ड शिक्षक ने जूता फेंका , 17 अप्रेल को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रक्षेपित लालकृष्ण आडवानी पर पार्टाी काषर््कत्र्ता द्वारा खड़ाª फेंकी गई , 27 अप्रेल को भारत के वत्र्तमान प्रधानमंत्री डाॅ.मनमोहन सिंह पर एक बेरोजगार कम्प्यूटर इंजीनियर ने चप्पल फेंकी ,28 अप्रेल को दोबारा आडवानी पर निर्दलीय उम्मीदवार ने चप्पल फेंकी , और आज 29 अप्रेल को कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा पर एक युवक नेचप्पल फेंकी। इसी बीच सिने जगत के प्रसिद्ध अभिनेता जीतेन्द्र पर भी एक युवक ने चप्पल फेंकी। मजे की बात यह है कि इन सबसे बेपरवाह गुजरात के कलील शहर का नगरपालिका अध्यक्ष मुकेश परमार (भाजपा) अपने कार्यदिवस का काम निपटाकर अपनी पुश्तैनी चप्पल की दूकान पर नियमित मरम्मत और चप्पल निर्माण कर रहंे हैं। मूकेश परमार के दृष्टांत से हिन्दी उर्दू के प्रख्यात लोकप्रिय लेखक कृश्नचंदर की कहानी ‘ जूता ’ का बरबस स्मदण हो आता है. यह कहानी करीब 1965-70 के आसपास उनके कहानी संकलन ‘ जामुन का पेड़ ’ में संकलित थी. हंसी-हंसी में कृश्न चंदर मर्म पर चोट करने पर कभी नहीं चूकजे थे. ‘जूता’ कहानी के माध्यम से उन्होंने समाज की बेरोजगारी , डिग्री धारियों के मोहभंग , पैसों के पीछे भागने की समाज के प्रत्येक वर्ग की मूल्य विहीन लोलुपता पर उन्होंने तीखें कटाक्ष किए हैं. कहानी का प्रारंभ जामुन के पंड़ के नीचे बैठे एक मोची के जूते गांठने के दृष्य से होती है. बातों बातों में पता चलता है कि वह मोची पीछे खडत्रे आलीशान बंगले का मालिक था. उसने समाज के लोगों के चेहरों से पर्दा उठाने के लिए सौ जूते खानेवाले को दस हजार का ईनाम देने की घोषणा कर दी. तीन दिन तक समाज के हर वर्ग के लोग छुपते छुपाते आए और जूते खाकर चले गए. तीसरे दिन वह कंगाल हो गया और वही सामने मोची की दूकान खोल ली. आज अगर यह ईनाम रखा जाए तो घटनाएं बताता हैं कि दस हजार के बदले जूते खाने के लिए लोग अधिकार के साथ आएंगे. पैसा कमाने में शर्म कैसी ? खासकर उस वक्त जब जूते-चप्पल खाने में देश विदेेश मंें लोकप्रियता हासिल हो.
भारत जितना अद्भुत देश है ,उतनी अद्भुत उसकी विरासतें है। साहित्य भी अद्भुत है। आज भी जूते चप्पलॅे फेंकने की घटनाओं पर पत्रकार अगर अपनी बात कह रहे हैं तो चित्रकार अपने कार्टून बना रहे हैं , व्यंग्यकार इसे अपनी दृष्टि से देख रहे हैं तो प्ररूज्ञासनिक अधिकारी बतौर लेखक अपने दिशा निर्देश दे रहे हैं। जहां पी. चिदम्बरम् पर फेंके गए जूते पर पत्रकार गोकुल षर्मा ने उसे ‘लोकतंत्र की निराशा ‘ कहा तो आडवानी पर फेंके गए खड़ाऊ और के विषय में उन्होंने चेताया कि यह भाजपा को चेतावनी है कि कार्यकत्ताओं को नजर अंदाज न करें। आलोक पुराणिक ने ‘ जूता संहिता ‘ बनाने की व्यंग्यात्मक पहल की जा पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एम एन बुच ने आक्रोश को कानून की हदें पार न करने की तरबीयत की।
एक व्यंग्य चित्रकार हैं मंजुल । उन्होंने पहले भारतीय जूता कांड पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ‘मास कम्युनिकेशन इंस्टीट्यूट ’ के छात्रों को जूता फेंकने के हुनर का अभ्यास करते हुए चित्रित किया। वहीं 25 अप्रेल को उनके कार्टून में एक नेता अपने जूतों के , अपनी पत्नी के जूतों के तथा अपने बच्चों के जूतों के नाप और नम्बर बता रहा है। हर जूता प्रकरण के बाद हमारे राजनेता निर्विकार भाव से अपनी बात जारी रखते है। यह अद्भुत समभाव राजनीति की देन है या गीता की ?
यह लेख जब तक लिखा जा रहा है ( 29 अप्रेल ) तब तक लगभग प्रतिदिन जूता किसी बड़े राजनेता पर चल रहा है।येदुरप्पा पर आज की तारीख खत्म हुई हैलेकिन यह अंत नहीं है। 2009 के समाप्त होते होते , चुनाव के बाद सरकार बनते तक और सरकार बनने के बाद संसद में अभी और न जाने कितने जूते चलेंगे कौन जानता है ? इन जूतों को कौन रोक सका है जो रोकेगा ?बस केवल विश्लेषण , लेख , टिप्पणियां ,व्यंग्य ,कार्टून और कविताओं का दौर चलेगा।
यह संयोग ही है केवल कि 2003 के अप्रेल माह में विदेशों की अकादमिक यात्रा से लौटे दो भारतीय विद्वानों ने जब ‘जूतों ’ को संबोधित मेरी कविता ‘ क्रियात्मक और सर्जनात्मक ’ कहा था तब मुझे कहां पता था कि 2009 के अप्रेल को हमें जूतों के इतने कारनामे सुनने पढ़ने को मिलेंगे और वर्ष 2009 ’ जूतों का अभिनंदन वर्ष ’ कहलाएगा ? 2003 की यह कविता जरा 2009 के अप्रेल में देखी जाए..
जूतों !
पहने जाते हो पैरों में,/मगर /हाथों में देखे जाते हो
जूतों ! /सच सच बताओ /यह जुगाड़ कैसे भिड़ाते हो ?
संसद की बदल जाती हैं /सांवैधानिक प्रक्रिया
चलती नहीं आचार संहिता -/जब तुम चलते हो
स्तब्ध है विराट प्रजातंत्र /और दिव्य भारतीय संस्कृति
थ्नकृष्ट
तुम कितने रूप बदलते हो !
आओ , तुम्हें सिर पर धारण करें .........
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