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लाल-कृष्ण कण्ठीवाले तोते के साथ सात दिन

लाल-कृष्ण कण्ठीवाले तोते के साथ सात दिन 
                    @रा. रामकुमार


पिछले सात दिन से मैं लाल-कृष्ण कण्ठीवाले तोते के साथ हूं। हम दोनों घर में अकेले हैं। उसका होना नहीं होना मेरे लिए कोई माने नहीं रखता। वह मेरे किसी काम में हाथ नहीं बंटाता, न खाली वक़्त में मेरे मनोरंजन का सहारा बनता, जैसा कि मेरी पत्नी का बनता है। जब सारे बच्चे स्कूल चले जाते और मैं महाविद्यालय, तब पत्नी अकेली होती और वह उससे बातें करती। उसे बोलना सिखाती रहती। वह भी, पहले उसके साथ और अकेले भी बहुत बोलता था।

पिछले पांच-छः साल से लाल-कृष्ण तोता बिल्कुल मौन है। उसका कारण वीर है। वीर यानी मेरा नवासा, दौहित्र, नाती। जबसे वीर आया है, पत्नी का और घर के एक-एक सदस्य का सारा ध्यान शिशु वीर की तरफ़ ज़्यादा है। लाल-कृष्ण कंठीवाला मिट्ठू उपेक्षित हो गया है। मौन उसकी मज़बूरी भी है और शायद अवसाद भी। हालांकि उसका मौन मेरे लिए मूल्यवान है। मैं निर्विघ्न अपने काम कर सकता हूं। उसकी निरर्थक ‘टें-टें टांय-टांय’ मेरा ध्यान भंग करती थी और अनेक बार उत्तेजित भी। कई बार तो इतना गुस्सा आता था कि मैं उसे घर के बाहर आंगन में टांग आता था-‘‘लो मरो! अभी आयेगी बिल्ली और खा जायेगी, तब पता चलेगा तुझे। घर के अन्दर चैन से रह नहीं सकते तुम।’’
तोते को पता नहीं मेरी बात समझ में आती थी या नहीं, वह गर्दन टेढ़ी करके एक आंख से मुझे देखता रहता था और मेरे हर वाक्य के बाद विश्राम-चिन्ह की तरह ‘ऐं ऐं’ करता था। कभी बिना कुछ बोले केवल गर्दन झुका-झुकाकर देखते रहता था। शायद सोचता था कि ‘‘अब इसका भेजा घूम गया गया है तोताराम, चुप रहो।’’
हालांकि मैं बोल ज़रूर देता था कि मरो, बिल्ली खा जायेगी, किन्तु टांगता उसे ऐसी जगह था, जहां वह सुरक्षित रहता। बाहर टांगने से वह चीखता नहीं था। मैं जब ज़ोर से दरवाज़ा बंद कर अन्दर जाता था तो थोड़ी देर बाद वह धीरे-धीरे मीठे स्वर में ‘मिट्ठू बिट्टू, मम्मी मम्मी’ करने लगता था।
मुझे लगता कि वह बाहर आने के लिए ही चीखता था। घर के अन्दर पढ़ा लिखा इन्सान  या घरेलू महिला ही मज़े से रह सकती है, कण्ठीवाला तोता नहीं। उसे खुली हवा में रहना पसन्द है। हर जीव स्वतंत्रता चाहता है। पता नहीं क्यों लोग तोते जैसे प्यारे पंछी को पिंजरे में कै़द कर के रखते हैं। शायद इसका रंग, रूप, इसका मनुष्यों के जैसे बोलना। नक़ल उतारना। प्याार से मम्मी-मम्मी कहना। बच्चों को नाम लेकर पुकारना। हंसना और हुंकारना। ‘हां हां' या ‘ऐं ऐं’ कहकर हुंकारा देना और संवाद क़ायम रखना।
मेरी पत्नी की ममता और दयालुता ने उसे जीवनदान भी दिया था और बच्चों जैसा प्यार भी। उसके जीवनदान की भी एक कारुणिक कहानी है। यह मिट्ठू हमने जाल डालकर मिट्ठू पकड़नेवाले बहेलियों से नहीं खरीदा है। यह आकस्मिक रूप से हमारे घर आ गया है।
कहानी यह है कि हमारा घर बन रहा था। दीवार पर पलस्तर चढ़ रहा था। राजमिस्त्री सीढ़ी पर था और एक सहायक लड़का गारा (सीमेट रेत का मसाला) उसे दे रहा था। पास ही सेमल के लाल सुर्ख़ फूलों से लदे हुए पेड़ के नीचे दरी बिछाकर हम लोग धूप में बैठे-बैठे मटर छील रहे थे। तभी पास के एक बगीचे की बाड़ के पास कुत्ते के भौंकने, कौओं के झपटने और किसी पक्षी के किरियाने की दर्दभरी आवाज़ से हम चौंके। ऊपर चढ़े राजमिस्त्री ने देखा कि कौवे एक पक्षी को पकड़ने की कोशिश में हैं और कुत्ते के भौंकने से डर रहे हैं। राजमिस्त्री ने लड़के को कहा -‘जा रे लल्लन, लगता है तोते के बच्चे को कौवे परेशान कर रहे हैं।’
 लड़का मसाला छोडकर भागा। दूर से उसने चिल्लाकर कुत्ते पर पत्थर फेंका और लपककर घायल पड़े पक्षी के चिनुए को पकड़ लिया। दौड़कर लौट आया। मिस्त्री ने घायल चिनुए को देखा और निर्णय सुनाया -‘‘तोते का चिनुआ ही है।  पैर में कोओं ने चोंच मार दी है। ख़ून निकल रहा है।’
‘ओह तोते का बच्चा। लाओ इधर लाओ। मेरे पास एण्टीसेप्टिक क्रीम है।’ पत्नी ने कहा तो लड़का उस घायल चिनुए को पत्नी के पास ले आया। पत्नी ने उसे शाल में लपेटकर पकड़ा और गोद में डालकर पर्स से एण्टीसेप्टिक निकाल कर उसके जख़्मी पैर पर लगाया। फिर बोली:‘मुझे लगता है करन तोता है, क्यों मिस्त्री भैया!’
‘हां दीदी! सही पहचाना। अभी तीन चार माह का है। साल भर में इसकी कण्ठी निकल आएगी।’ मिस्त्री ने कहा।
 ‘हां, बहुत सुन्दर होती है करन मिट्ठू के गले की लाल-काली कण्ठी।’ वह सकपकाए और सहमकर गोद में दुबके हुए तोते को सहलाने लगी। बोली: ‘बहुत डरा हुआ है। ज़ोर ज़ोर से सांस ले रहा है ..’’
‘‘जान बच गई उसकी .. डरेगा ही दीदी! आप पालोगी न दीदी कि मैं ले जाऊं?’’मिस्त्री ने कहकर पूछा।
‘‘मैं पालूंगी भैया! तुम्हें तो गांव में ढेर मिल जायेंगे। पता नहीं क्या संयोग है कि इसको मेरी गोद मिल गई।’’ पत्नी ने उसके पंखें सहलाते हुए कहा।
 
हफ़्ते भर तक तोते सदमें से नहीं उबर पाया। हफ़्ते भर बाद उसकी आवाज़ लौटी। बच्चे उसके आने से खुश थे। अभी तक एक टोकनी के नीेचे उसे ढांककर एक टेबल के ऊपर रखा जाता था। लड़के उसके लिए पिंजरा लाने की योजना बनाने लगे।
बेटी ने प्यार से उसे नाम दिया था कृष्णा। बेटी से वह इतना हिल गया था कि उसकी बहन ही बन गया था। वह खांसती तो वह खांसता। उसे डांट पड़ती तो वह हंसता। बहन इसलिए भी कि वह था तो एक तोती ही। किसी लिंग विशेषज्ञ ने पत्नी पर यह राज़ खोला था, वर्ना पक्षियों की गणना लिंग के आाधार पर सामान्यतः कौन करता है? समानता के चलते सभ्य समाज ने लड़के और लड़कियों को पहनने, रहने और व्यवहार करने में कोई भेदभाव नहीं रखा है। मेरे दो बेटों के बाद एक बेटी हमने बेटों के रक्षाबंधन के लिए चाही थी। किन्तु वावजूद इसके, उसकी मां बेटी को छः साल तक लड़कों जैसे कपड़े पहनाती रही और बाल भी लड़कों जैसे कटवाती रही। यहां तक कि लड़की भी ‘आता हूं, जाता हूं, खाउंगा, पीउंगा’ बोलने लगी थी। छः साल बाद, जब आगे के सोलह सालों के लिए मां को घबराहट हुई तो उसके लिबास बदले, बाल बढ़ाए और भाषा को लिंग-संस्कार दिए। मेरे एक साथी प्रोफेसर ने भी यही किया। उनकी तीन लड़कियां थीं। सबसे छोटी लड़की को भी उन्होंने बेटे की चाहत के हिसाब से रंग, रूप, परिधान दे दिया था।

मिट्ठू के लिंग के पता चलने के बाद भी उसके प्रति 
संबोधन और व्यवहार में हमारे परिवार के किसी भी सदस्य में कोई फर्क नहीं पड़ा। वह ‘कृष्ण-लाल’ ‘कृष्णा’ ही रहा। अंग्रेजी ने कृष्णा में लिंग भेद भी मिटा दिया है। राम और रामा एक, कृष्ण और कृष्णा एक। वह कृष्णलाल यानी काला-लाल ‘कृष्णा’ ( या लालकृष्ण कंठीवाला तोता)  हमारे परिवार में एक पारिवारिक सदस्य की तरह, बिल्कुल बराबरी से रहता। लड़के केे एक दो मित्रों ने कहा कि तुम लोग जानवरों और मनुष्यों में अन्तर क्यों नहीं करते, घर के अंदर रखते हो, सर्दियों में ओढ़ाते-ढांकते हो। नहलाते धुलाते हो। गर्म पानी देते हो। जूठा नहीं देते। जो जो खाते हो, सब देते हो। उसके बर्तन मांजते-मंजवाते हो। फिल्टर्ड पानी उसे भी देते हो। गोद में लेना, चूमना, चिपटाना, कंबल शाल में लपेटना, ऐसा कौन करता है यार!
लड़के  का संक्षिप्त जवाब होता: ‘हम करते हैं यार!’
मित्र ने कहा था:‘जानवरों से इतना प्यार नहीं करना चाहिए। इनकी उम्र ज्यादा नहीं होती। दस पन्द्रह साल बस। जब मरते हैं तब उतना ही दर्द होता है, जितना अपनों के मरने पर होता है। हमारी दादी की बात बताते हैं....’ आगे उसने बताया कि कैसे उसकी दादी कुत्ते के मरने पर कई कई महीनों रोयी थी।
पत्नी सुन रही थी। उसका कलेजा कांप गया। मिट्ठू भी तो उसके कलेजे का टुकड़ा हो गया था। वह पिछले बाइस तेइस साल से हमारे परिवार का छठवां सदस्य है। हम दो, दो लड़के, एक बेटी, एक मिट्ठू। सबसे वह इतना जुड़ गया है कि उसके बिछड़ने की कल्पना नहीं कर सकते।
पत्नी अंन्दर से ही चिल्लाई -‘टिट्टू, अपना मुंह बंद रख तो... क्या बोल रहा है?’
टिट्टू हड़बड़ाया। बोला:‘’कुछ नहीं आंटी, दादी की बात बता रहा था।’
पत्नी बोली:‘हां चुप कर, मां के दिल को क्या जाने तू’
‘‘जी आंटी!’’ -टिट्टू समझ गया कि मामला ममता का है। चुप्पी ही ठीक है।

मैंने पता किया कि मिट्ठू की उम्र कितनी होती है और पत्नी की ममता को यह सदमा कब लगनेवाला है। किसी ने बताया कि साधारणतः पैराकीट यानी भारतीय तोते आठ, पन्द्रह या पच्चीस साल से ज्यादा नहीं जीते।  जिसमें लाल-काली कंण्ठीवाले तोते भी शामिल हैं। किसी ने यह भी कहा कि तोते बड़े बेईमान भी होते हैं। मौक़ा मिलते ही फुर्र।
लेकिन कृष्णा ने इस मिथक या सच्चाई को भी झुठला दिया। कृष्णा कई बार उड़ा। कोई पांच छः बार। इन पांच छः बार पत्नी का कलेजा मुंह पर आ गया। उसकी आवाज़ रुंध गई। हाथ पांव कांपने लगे। वह कातर स्वर में चिल्लाई -ए मिट्ठू, मिट्ठू बेटा, कृष्णा, मेरा बिट्टू, आ जा !’
मिट्ठू आसपास से बोल पड़ता ‘मम्मी .. मिट्ठू बिट्टू’।
वह पास ही कहीं होता। अमरूद के पेड़ पर। छत पर। आम के पत्तों के पीछे। अनार की डाल पर। पपीते के फल कुतरता। कपड़े सुखाने की अलगनी के तार पर झूलता। फिर तो जहां से, जिससे संभव होता वह आराम से पकड़कर मिट्ठू को लाकर पत्नी को दे देता। पत्नी की डबडबाई आंखें छलक पड़तीं। वह एक हाथ से उसे छाती से लगाकर दूसरे हाथ से उसके सिर पर थपड़याती -‘‘जायेगा, अब और जायेगा?’’ मिट्ठू की आज्ञाकारिता भी अद्भुत थी। वह चुपचाप मम्मी की छाती से सर चिपटाए पड़ा रहता। चुपचाप लाड़ में लिपटी सज़ा भुगतता।
उसकी हरकत देखकर मुझे अक्सर सुभद्राकुमारी चौहान की बचपन में पढ़ी ‘कदम्ब का पेड’* कविता याद आती। कैसे एक बच्चा अपनी मां की ममता से खिलवाड़ करता है? कैसे उसकी विह्वलता में अपने महत्व को भुनाकर ख़ुश होता है। कैसे थोड़ा सताकर फिर आत्मीयता के आंचल में आश्रय पाता है। वही बाललीला देखकर कभी ख़ुश होता, कभी चिन्तित होता। सोचता, जब एक दिन सचमुच इसके पन्द्रह या पच्चीस वर्ष पूरे हो जायेंगे और यह जीवनलीला समाप्त कर जायेंगा, तब पत्नी का क्या हाल होगा। कभी-कभी गुस्से में उसे चुपके से उड़ा देने की इच्छा होती। पर मैं भविष्य में घटनेवाली दुःखद घटना को वर्तमान में घटित करने का साहस नहीं जुटा पाता।

कभी-कभी मैं कृष्णलाल या लालकृष्ण कंठीधारी मिट्ठू के बेईमान हो जाने की कामना करता कि मौक़ा मिलते ही वह उड़कर दूर चला जाए? कितनी बार उसका पिंजरा खुला रह गया या बच्चे खुला छोड़ गये, किन्तु आज्ञाकारी-वचन-बद्ध बच्चे की भांति ‘कृष्णा’ अपनी रॉड पर बैठा रहा। कितनी बार वह पिंजरे के कुन्दे के आंकड़े को हटाकर, दरबजिया के बाहर आकर, पिंजरे के ऊपर ही बैठा मिला है। पत्नी पर उसकी उस ईमानदारी का बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने उसे तब भी बहुत प्यार किया। ‘‘किसने यह झूठ फैलाया है कि मिट्ठू बेईमान होते हैं, मौक़ा मिलते ही भाग जाते हैं। मेरा मिट्ठू बिट्टू मुझे छोड़कर कहीं नहीं जायेगा, है ना बेटा।’’ मिट्ठू भी ‘हें हें’ का हुंकारा भरता।
मिट्ठू का हुंकारा तो ठीक है, लेेकिन हम नकारा हो गये थे। कहीं जाना होता तो किसी एक का घर में होना ज़रूरी होता। किसके भरोसे छोड़कर जाओगे? लोग तो उसे जानवर समझते हैं। ऐसे कौन रखेगा जैसे हम रखते हैं। ऐसी स्थिति में मुझ पर जिम्मेदारी आती। परीक्षा आदि के कारण प्रायः मेरा बाहर जाना नहीं हो पाता था। पत्नी बच्चों को लेकर जाती। घर की परिचारिका को तोते महाराज के खाने और नहलाने का काम सौंपकर पत्नी जाती। शाम के समय जब मैं घर आ जाता और दोपहर के काम निपटाकर गृह-परिचारिका अपने घर चली जाती, तब दूध-भात, दूध-रोटी, मौसमी फल, मूंगफल्ली, गाजर, मटर आदि देने की जिम्मेदारी मेरी होती। भोजन दोनों समय का गृह-परिचारिका बना जाती। गर्म करके खाने और खिलाने का पुरुषार्थ तो मैं कर ही सकता था। 

इस बार भी ऐसा ही समय आया। कड़ाके की सर्दी थी। लड़की सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला के जाबालीपुरम् में थी, हमारे छः साल के नाती के साथ। चैन्नई से बड़ा लड़का जाबालीपुरम् के अपने ज़रूरी काम से आ रहा था। नानी और नीनू मामा के लिए नाती मचल रहा था और मामा और नानी भी उससे मिलने के लिए तड़प रहे थे। हालांकि मुझे भी सेवानिवृत्त हुए पांच साल हो गए थे और जा सकता था, पर एक तो मिट्ठू, दूसरी कड़ाके की सर्दी। मेरी, पत्नी की और बच्चों की भी यही राय बनी कि मैं घर में सुरक्षित रहूं। उनके जाने के बाद हम दोनों, मैं और लाल-काली कण्ठीवाला तोता, घर में रह गए।
अब मेरा मिट्ठू-केन्द्रित जीवन शुरू हो गया। अक्सर मैं सोचा करता था कि सेवा निवृत्त होने के बाद कुछ वान्यप्रस्थ का अभ्यास घर में ही किया जाये। घर में अकेले रहने और अपने हिसाब से काम करने, पकाने और खाने का, स्वाध्याय आदि का अनुभव मैं फिर करना चाहता था। पहले जो बाहर पढ़ते समय बहुत किया है। शायद उसी की स्मृतियां मुझे आमंत्रित करती रहती हैं। सुबह जल्दी उठना, गरम पानी, चाय, कॉफी पीना, पढ़ना लिखना, प्रातः-भ्रमण में निकल जाना, लौटकर खाने की तैयारी करना, खाना पकाना, नहाना, खाना, दोपहर में नोट्स बनाना, कुछ समय पसंद के गायकों को सुनना, शाम में हॉरमोनियम वगैरह में उंगलियां चलाना, गला साफ़़ करना वगैरह। बीच-बीच में मिट्ठू को गाजर, फल, मटर, मूंगफल्ली वगैरह देना। बहुत हुआ तो उसे ढांक देना।
कभी कभी वह नियंत्रण के बाहर हो जाता। चिल्लाना शुरू करता तो बंद ही नहीं करता। चिल्लाना यानी बेहद कर्कश और तीखी आवाज़ में चिल्लाना। एकदम कानफाड़ू। दूध भात, चने मुरमुरे, मूंगफल्ली, गाजर, सेब, आलू चिप्स आदि कुछ काम न आते। सब उलट देता। पानी देता, वह भी उलट देता। कपड़े से ढंकने से भी वह चुप नहीं होता। पता नहीं मेरे किस काले-कानून के विरुद्ध वह बिफरे हुए किसान आंदोलनकारियों या वाहन-वाहक हड़तालियों की तरह गला फाड़कर ‘टें टें'  के नारे लगाता रहता।
इस समय बहुत गुस्सा आता। बोलना वह छोड़ चुका था। उसकी मांग समझ में नहीं आती। मैं तोता विशेषज्ञ तो था नहीं कि उसकी आवाज़ से उसकी मांग समझ लेता। मेरे पास एक ही उपाय होता कि उसे बाथरूम में बंद कर के ढंक दूं और दरवाजा बंद कर दूं। कम से कम कान के पर्दे तो फटने से बच जायेंगे। मैं इत्मीनान से अपना पढ़ना और लिखना ज़ारी रख सकूंगा। क्योंकि उसकी ‘टें टें’ अपेक्षा से अधिक मेरा व्यक्तिगत समय बर्बाद कर देती। इसलिए उसे ‘न्यायिक हिरासत’ की तरह बाथरूम में बंद कर देना मुझे न्यायसंगत और व्यवस्था की दृष्टि से विधि-संगत लगता। इस कार्यवाही के बाद मेरा मनुष्य, एक अदना से तोते को गृहस्वामी की शक्ति दिखाकर गर्व से घूमनेवाली कुर्सी पर बैठकर घूमने लगता। कुछ कुछ मद में झूमने जैसा।
लेकिन यह मद ज्यादा देर तक मुझे नशे में नहीं रहने देता। मुझे लगता कि एक स्वतंत्र पक्षी को कैद करके इतना अत्याचार करना क्या मेरे पुरुषार्थ को शोभा देता है? यह तो कानूनन अपराध है। आप अपने परिवार में किसी व्यक्ति को पीड़ित नहीं कर सकते। किसी पालतु पशु या पक्षी को प्रताड़ित नहीं कर सकते। भले ही वह आपको पीड़ित कर रहा हो? आप अपनी पीड़ा लेकर न्यायालय जाओ। अगर वहां अपनी पीड़ा सिद्ध कर पाए तो आपको न्याय मिलेगा।
न्याय? इस शब्द के आते ही मैं चिन्तित हो जाता हूं। क्या सचमुच पीड़ित वर्ग को न्याय मिलता है? गाय, बकरी, भेड़, मछली, मुर्ग़े, तोेते, स्त्री, आदिवासी, दलित, मजदूर, किसान, बेराजगार, मध्यमवर्गीय एवं निम्नवर्गीय कर्मचारी, शिक्षाकर्मी, अतिथि विद्वान आदि आदि। कुछ ने इसे भाग्य मानकर शांत रहने की आदत डाल ली है। कुछ अपनी तकदीर बदलने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं। अपने-अपने वर्ग को लाभ पहुंचाने का सत्ता-संघर्ष चल रहा है। ‘जनता का हित’ वास्तव में कुछ खास वर्ग का हित होकर रह गया है। ‘सर्व जन सुखाय सर्व जन हिताय’ केवल जुमला बनकर हास्य पैदा कर रहा है। इससे केवल सदन में ठहाके गूंज रहे हैं। निजाम मेरी तरह घूमनेवाली कुर्सी पर घूम-घूमकर ठहाके लगा रहा है।
अचानक मेरा घूमना बंद हो जाता है। सोचता हूं - यह सब क्या सोच रहा हूं? क्यों सोच रहा हूं?
और मुझे याद आ जाता है कि क्यों सोच रहा हूं। अभी जाबालीपुरम् जाने के पहले मेरे दोनों ज्येष्ठ और कनिष्ठ पुत्र पांच दिवसीय अंडमान (निकोबार) यानी कालापानी की उजली सैर कर के आए हैं। पल-पल की वे ख़बर देते रहे हैं। पोर्ट-ब्लेअर (वीएसआईएन) एअरपोर्ट, रोस आईलैंड (एनएससीबी आईलैंड), हेवलॉक आईलैंड, कालापत्थर बीच, राधानगर बीच, एलिफेंट बीच के उजले और पारदर्शी पानी की साफ़ शफ़्फ़ाक़ तस्वीरें मन को लुभा रहीं थी। कालापानी का काला जादू हमारे दिमाग़ से मोम की तरह पिघलकर बह गया था। सफेद कोरल के पत्थर और सफेद रेत के ‘बीच’(समुद्री तट) सागर को स्फटिक की राधा और नीलांबरी माधव का रूप दे रहे थे। यह सब वीडियो कॉलिंग के ज़रिए हमने साफ़-साफ़ देखा।  और फिर हमने देखा- कालापानी का काला सच। रात में सेलुलर जेल में हिन्दुस्तानी क्रांतिकारियों पर अंग्रेजी हुकूमत का नृशंस अत्याचार। चीख पुकार, कोडे़, कोल्हू, हाथों और पैरों की जंजीरें, शरीरों से बहते ख़ून, फांसी के फंदे, ‘जन्मसिद्ध स्वतंत्रता’ को पाने का यह ‘जानलेवा संघर्ष’ क्या किसी ‘तानाशाह की ख़ुशी’ को घूमनेवाली कुर्सी पर बैठकर ठहाके लगाने के लिए किया गया था? इस सवाल पर मैं सन्न रह गया।

तोता, हमारा कृष्णा अब शांत है। असहाय जनता की तरह उसने मेरे आतंक को स्वीकार कर लिया है। मुझे दया आ जाती है। यह मुझे ही आ सकती थी क्योंकि मैं एक मघ्यमवर्गीय शिक्षक हूं।
मैं तोते को निकालकर गोद में बैठा लेता हूं और सहलाने लगता हूं। वह तुष्ट होकर ‘ऊं ऊं’ करने लगता है। पक्षी ही तो है। बदले या प्रतिशोध के भाव से गड़े मुर्दे उखाड़कर नफ़रत में पलटवार थोड़े ही करेगा। एक शिक्षक के घर रहकर ऐसी राजनीति वह कहां सीख सकता है?
चूंकि मैं भी कोई तानाशाह राजनीतिज्ञ नहीं था, अतः प्यार से उसे चूम लेता हूं।
000
*परिशिष्ट:
1.
+++
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हें  बुलाता।।
सुन मेरी बंसी को माँ तुम इतनी खुश हो जाती।
मुझे देखने काम छोड़ कर तुम बाहर तक आती।।
तुमको आता देख बांसुरी रख मैं चुप हो जाता।
पत्तों में छिपकर धीरे से फिर बांसुरी बजाता।।
गुस्सा होकर मुझे डांटती, कहती ‘नीचे आजा’।
पर जब मैं ना उतरता, हंसकर कहती ‘मुन्ना राजा’।।

++++

@ रा. रामकुमार, ७.२.२४, 

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तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि