अप्सरा के अंडे : भविष्य और वर्तमान
पिछले दो दिन से हमारे घर में दुःख का वातावरण है। अप्सरा कल से अपने अस्थायी ठिकाने में नहीं लौटी। कल दोपहर में ही बेटे ने बताया था : "अप्सरा लौटी नहीं अभी तक। सुबह से गयी है। दो तीन बार देख आया हूं।"मैं भी चिंतित हुआ। पत्नी भी परेशान हो गई। पहले हमने सकारात्मक ही अनुमान लगाया- "गयी होगी दाना पानी की व्यवस्था के लिए।"
लड़के ने कहा : 'मैंने तो पर्याप्त कच्चे चांवल गमले के पास रख छोड़े हैं, ताकि उसे कहीं जाना न पड़े। वह अकेली है, अंडों पर बैठेगी कि खाने की व्यवथा करेगी।'
पत्नी ने कहा :"नहीं अकेली नहीं है। एक फड़का भी है। वह आता जाता रहता है। कल से वह भी नहीं दिखा है।" उसका मुंह मलिन था। शायद कोई आशंका उसके मन में थी।
मैंने तात्कालिक तसल्ली से कहा : "देखते हैं आज शाम तक। धैर्य और प्रतीक्षा बेहतर परिणाम लाती है।
हम लोगों ने चिंता को शाम तक के लिए अधखुला छोड़ दिया। अधखुला इसलिए कि चिंता की किताब पूरी बंद कहां होती है। बीच-बीच में पत्नी, बेटा और कभी-कभी मैं भी बालकनी के कोने में रखे रैक के ख़ाली गमलों में झांक आता था। केवल अंडे चमकते दिखते, अप्सरा नहीं दिखती थी। एक सांस खींचकर मैं बंद दरवाज़े की संधि में प्रतीक्षा अड़सा देता।
इस प्रकार पहले दिन की शाम तो प्रत्याशा की आश्वस्ति में सरक गयी कि काम होते ही लौट आएगी। किसी थाने या कोर्ट में तो गयी नहीं होगी कि रिश्वत के अभाव में या पुलिसवालों की नीयत ख़राब होने या पूछ-ताछ के नाम पर न्यायिक-कस्टडी में धांध ली जाए।
किंतु दूसरी सुबह पत्नी का चेहरा पहले से अधिक मलिन था। चिंता गटकते हुए बोली : "रात में भी नहीं लौटी वह तो। जाने क्या हुआ है?"
मैंने पत्नी को साहस देने के लिए मनोबल का घूंट भरकर कहा :"देखते है आज दिन भर और। क्या कर सकते हैं?"
कुछ ना करने पर भी सामान्यत: चिंता तो आदमी करता ही है।
करीब हफ़्ते-दस दिन पहले यह अप्सरा हमारी बालकनी में आने लगी थी। वह बहुत ख़ूबसूरत थी। कबूतर की तरह दिखनेवाली यह फड़की आकार में कबूतर से थोड़ी छोटी, भूरी और प्यारी थी। छोटी सी प्यारी चोंच और नीलम के दाने जैसी चौकन्नी मोहक आंखें। वह जंगले पर बैठे बैठे पलट-पलट कर हमें देखा करती थी। हमें लगता इंद्रलोक की कोई अप्सरा हमारी बालकनी की सैर पर निकल आयी है। हमें एक नई अनुभूति होने लगी। कौओं, गौरैयों, कबूतरों, कोयलों, महूकों, तोतों आदि का आवागमन हमारी बालकनी में यदा-कदा होते रहता है। जबकि टॉवरों के शहरों से पक्षी-गण दिन-प्रतिदिन लुप्त होते जा रहे हैं। विहंग-विलोपन की चिंता के बीच इस फड़की का आना हमारे लिए आनंदवर्धक था।
एक दिन जंगले पर चिड़िया का बैठना हुआ कि मेरे मुंह से निकला : "अप्सरा आली.. इंद्रपुरी कर ख़ाली, अप्सरा आली!" यह किसी मराठी फ़िल्मी गीत का आंशिक हिंदी रूपांतरण था।
पत्नी पास ही कसूरी-मेथी फैला रही थी। उसने मुझे पलटकर देखा। मैंने आंखों से फड़की की तरफ़ इशारा किया। पत्नी के चेहरे पर रौशनी फैल गयी। मुस्कुराकर बोली : "अच्छा, तो अब फड़की भी अप्सरा हो गयी।"
मैंने कहा : "हां, मुझे तो लग रही है। अब इसे हम अप्सरा ही बुलाएंगे।"
तब से फड़की अप्सरा हो गयी। पत्नी भी अप्सरा बोलने लगी और बेटा भी। अप्सरा ने हमारे घर में डेरा डाल लिया और वह निडर भी हो गयी। वह हमारे आने जाने से डरकर उड़ती नहीं है। उसका डेरा मेरे कमरे से खुलनेवाली बालकनी में है। बालकनी कोई पन्द्रह फ़ीट लंबी और तीन फ़ीट चौड़ी है जिसमें पत्नी ने लड़के के साथ मिलकर छोटा सा बाग़ीचा बना लिया है। बाग़ीचे में रातरानी, मोंगरा, गुलाब, जसौन, कुछ दिखावटी फूल, तुलसी के तीन पौधे, चुटीली तीखी मिर्ची के तीन पौधे, बेर के आकार की भेजरी (चेरी-टमाटर) के तीन पौधे हैं। इन सबकी तिकड़ी उस बालकनी को सदा हरा-भरा, खिलाखिला, सुगन्धित और फलदार रखती है। इस बालकनी में हर मौसम में, दिन-भर धूप रहती है। जिन पौधों को धूप जीवन देता है वे यहां, जो पौधे ऑक्सीजन से भरपूर हैं और धूप के प्रति सम्वेदनशील हैं, वे सामने कॉरीडोर और हॉल की खिड़की छज्जे पर शोभायमान हैं। ये सभी हमें ऊर्जा, ख़ुशी, उत्साह और सकारात्मकता से भरे रखते हैं।
एक दिन पत्नी ने उमंग से भर कर बताया कि उस ख़ूबसूरत अप्सरा ने रैक पर पड़े ख़ाली गमले में दो सफ़ेद मोती जैसे अंडे दिए हैं। मिट्टी से भरे इस ख़ाली गमले की सतह पर पड़े दो सफ़ेद अंडे साफ़-साफ़ दिखाई देते हैं। अप्सरा बीच-बीच में अपने आहार की व्यवस्था में निकल जाती है, तब पौधों में पानी देते समय पत्नी ने उन अंडों की फ़ोटो भी ले ली। सुबह धूप निकलने के बाद और शाम को कुछ देर के लिए वह सामनेवाले डूप्लेक्स की पानी की टंकी पर बैठी दीखती। बेटे ने भोजन और सुरक्षा की चिंता से एक गत्ते का आयताकार टुकड़ा गमलों के खुले हिस्से में लगा दिया और कुछ चांवल बिखेर दिए।
वे चांवल अब भी वैसे ही पड़े हैं। जैसे पड़े हुए हैं गमले में यतीम अंडे। अप्सरा अभी तक नहीं लौटी। आज सुबह मौसम बहुत बिगड़ गया था। घने काले बादल छा गए थे। सूरज छिप गया था। बादलों के बीच से कहीं-कहीं सूरज झांक लेता था, जैसे कोई जिम्मेदार व्यक्ति अपने खुले पड़े घर की तरफ़ झांकता है। मुझे कई बार लगता कि चाहे कितनी ही व्यस्तता हो, इस बिगड़ते मौसम में अप्सरा अंडों की चिंता तो करेगी ही। वह अवश्य लौटेगी। लेकिन अप्सरा अपरान्ह बाद भी नहीं दिखाई दी।
अब हमारा मनोबल कमज़ोर पड़ रहा है। सकारात्मक विचारों की सलाखों से हमारी पकड़ ढीली होती जा रही है। एक क्षण पत्नी चिंतित होकर लड़के से बोली : "गत्ता लगाते समय तेरा हाथ अंडों से छू तो नहीं गया?"
लड़का बोला :"मम्मी! गत्ता मैंने कब लगाया? पांच छह दिन पहले न? परसों तक तो वह उस पर बैठी रही।"
पत्नी की नज़र मेरी तरफ़ घूमी। बोली : "आपको पता है, अगर आदमी छू दे तो अंडे क्या, चूजे भी पक्षी छोड़ देते हैं?"
"बताओ? आदमी को फिर घमंड किस बात का है भाई! अपने को झूठी ऊंचाई पर खड़ा कर पागलों की तरह गाल बजाता रहता है कि पशु पक्षी जीव जंतु सबसे हम बहुत ऊंचे। देख लो, तुम्हारे छूने से अंडे तक अपवित्र हो जाते हैं।" मैंने अफ़सोस के साथ कहा।
लड़के ने कहा :"पापा, मम्मी इनडाइरेक्टली कहना चाह रही हैं कि आपने तो नहीं छू दिया।"
"मैं कभी छूता हूँ अंडे?" मैंने आश्चर्य से आंखें फैलाकर अपनी सफ़ाई दी।
पत्नी निरुत्साहित होकर पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गयी। बोली : "कोई बाज़ कौआ तो इधर आ नहीं रहा। बिल्ली इतने ऊपर चढ़ नहीं सकती। सांप के चढ़ने की भी कोई गुंजाइश नहीं। अरे यही सब सोचकर तो उसने यहां अंडे दिए थे। जाने क्या हुआ भगवान जाने।"- पत्नी दुःखी होकर बोली तो लड़के ने समझाया :"तुम भी मम्मी इतना अटैच्ड हो जाती हो कि बस। अब नहीं आ रही है तो मान लो कि नहीं आएगी। ये तो अच्छा हुआ कि अंडों से चूजे नहीं निकले थे।"
पत्नी ने लड़के की तरफ़ देखकर सिर हिलाया :"सच कह रहा है।"
पत्नी उठकर अंदर चली गयी।
अप्सरा जैसे भविष्य का सारा ब्लूप्रिंट लेकर चली गयी है। अंडों के वर्तमान ने पत्नी और दूर मर्बलसिटी में बैठी लड़की के मन में एक भविष्य जगा दिया था। लड़की ने अपने छह साल के बच्चे को ख़ुश होकर बताया था :"पता है मेरी जान, नानी के घर में चिड़िया ने दो अंडे दिए हैं। एक महीने बाद जब हम जाएंगे तो उसमें से दो प्यारे से बच्चे निकलेंगे... दिन भर चूं चूं करेंगे!"
बच्चे ने हुलसकर कहा : "फिर तो बहुत मज़ा आएगा।"
बच्चे की नानी को लग रहा था कि भविष्य का वह खिलौना ही छिन्न-भिन्न हो गया। भ्रूण-भ्रंश या गर्भ-पात का दर्द मां से बेहतर कौन समझ सकता है। अप्सरा फड़की के दो दिन लौटकर ना आने से अंडों से जो चूजे निकलने थे, वह घटना अब कभी नहीं घट सकती। चिड़िया इतने दिन अंडे पर बैठी तो कुछ जैविक क्रिया अंदर हो गयी। अचानक शारीरिक गर्मी का क्रम टूटने से जैविक क्रिया भ्रष्ट हो गयी। अंडे ख़राब हो गए हैं।
देखने में हम अपने अपने काम में लग गए हैं, पर मन में एक अज़ीब सा अहसास फड़फड़ा रहा है। क्या हुआ होगा चिड़िया के साथ? क्या हुआ होगा चिड़ा के साथ? किस बड़े पक्षी ने उस चिड़िया पर हमला किया होगा? क्या ऐसा हुआ होगा कि किसी दिन चिड़ा नहीं लौटा होगा तो चिड़िया उसकी खोज में निकल गयी होगी? क्या ऐसा हुआ होगा कि चिड़े को किसी और चिड़िया के साथ देखकर उस चिड़िया ने चिड़े और नई चिड़िया से झगड़ा किया हो और उस संघर्ष में वह घायल होकर ...?
मैंने कुछ चिड़ियों के बारे में कवि-चर्चा सुनी है कि एक के न रहने से दूसरा जान दे देता है। तो क्या ऐसा हुआ कि चिड़िया ने देखा कि किसी बाज़ ने चिड़े पर हमला किया और चिड़िया उसे बचाने गयी और वह भी बाज़ का शिकार हो गयी।
मैंने बारीक़ी से अंडे वाली पहली फ़ोटो और चिड़िया के ना आने के बाद वाली फ़ोटो का मिलान किया। पहली वाली फ़ोटो में अंडों के आसपास कुछ लकड़ियां (आम वगैरह की) बड़ी संजोकर रखी गयी हैं। ताकि अंडे इधर उधर न लुड़क सकें। बाद वाली फ़ोटो में अंडे के आसपास की यह सुरक्षा व्यवस्था बिखरी हुई है। लकड़ियां नीचे रैक पर पड़ी हुई हैं। इसका क्या अर्थ हुआ? मौक़ा ए वारदात के हालात और सबूत बता रहे हैं कि चिड़िया पर, उसके घर में घुसकर हमला हुआ है। चिड़िया ने भरपूर संघर्ष किया होगा जिससे लकड़ियां बिखर गईं। फिर हार गई होगी। परास्त चिड़िया को हमलावर उठाकर ले गया।
जो भी हुआ हो, इन सब में बेचारे अंडे के अंदर पनपते जीवों का तो जीवन ही स्खलित हो गया। यह एक दुःखद और मनहूस वास्तविकता है, जो हमारे सामने है। एक साथ तीन या शायद चार जीवों के भविष्य का अंत हो गया। एक सप्ताह की सारी ख़ुशियां दो दिन में ख़त्म।
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