'कानन-रत्न' कौवे की सांस्कृतिक यात्रा
(स्मृति लेख)
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सातवीं आठवीं में था तब। मठ तालाब के उत्तर में जो तिगड्डा था उसी के तिहाने में हमारा स्कूल था। तिहाने की एक सड़क जो महावीर मढ़िया की ओर से आती थी और मठ तालाब के पूर्व में स्थित सिंहवाहिनी मठ के सामने से कटंगी क्रॉसिंग चली थी, उसी सड़क से एक शाखा दादू साहब के बाड़े की ओर निकलती थी। जहां से यह शाखा निकलती थी बस उसी के घेरे के अंदर एक जीर्ण शीर्ण भवन में लगता था हमारा स्कूल। उन दिनों हमारे स्कूल में दो विभूतियाँ प्रसिद्ध थीं। एक हमारे कक्षा शिक्षक श्री बेनीप्रसाद शुक्ल और दूसरे श्री महेंद्रप्रताप सिंह चौधरी। शुक्ल सर गणित पढ़ाते थे और सिंह सर सामाजिक अध्ययन। दोनों के मार्गदर्शन में हर शनिवार को काव्य-पाठ, लघुकथा, गान, प्रहसन के कार्यक्रम होते थे। बच्चों के अलावे सिंह सर भी कविता पाठ करते थे और गायन करते थे। शुक्ल सर हारमोनियम भी बजाते थे और गाते थे। एक थे व्यायाम शिक्षक नन्दकुमार यादव, वे ढोलक बजाते थे।
एक दिन सिंह सर ने एक गीत गाया- 'सब पाला करते हैं तोता, मैं कौवा पाला करता हूँ।' यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। इसमें कौवे का गुणगान जो था। नई बात यह थी कि इस गीत में तोते को अपदस्थ कर कौवे पालने का क्रांतिकारी कार्य किया गया था। दोनों शिक्षक राष्ट्रपति सम्मान प्राप्त थे। दोनों को शिक्षक रत्न का गौरव प्राप्त था और दोनों बॉम्बे (मुंबई) जाकर दो महीने फ़िल्म नगर घूम आये थे। भले ही उनके कौवे बॉम्बे की मुंडेरों से उड़ा दिए गए हों, पर उनका कौआ मेरे दिमाग़ की मुंडेर पर बैठ गया। मेरे लिए तब राष्ट्रीय पक्षी कौआ ही हो गया। मुझे लगता कि पक्षियों का सर्वोच्च सम्मान 'पक्षी रत्न' उसे कभी न कभी ज़रूर मिलेगा।
भारत में रत्नों का विशेष महत्त्व और सम्मान है। यहां तो कोयले की खदानों से भी रत्न निकलते हैं और माताओं की कोख से भी। कोयले की खदान से निकले रत्न हीरे कहलाते हैं और मां की कोख के रत्न को लाल कहते हैं। हालांकि लाल भी एक रत्न है। मूंगा और माणिक्य लाल होते हैं। यहां तो खारे समुद्र भी मोती उगलते हैं और शस्य सांवली धरती पन्ना और पुखराज।
रत्न एक पत्थर ही है, लेकिन मनुष्य के मन, तन और जीवन पर उसका इतना प्रभाव है कि वह बहुमूल्य हो गया है। पचास प्रतिशत से अधिक भारतीय लोगों की ज़िन्दगी उसके बिना निर्मूल्य हो जाती है। भारत के लोग भले ही खाना कम खाएं लेकिन उनके शरीर पर हीरे मोती नीलम पुखराज पन्ना मूंगा माणिक्य यदि न हो तो उन्हें नींद नहीं आती। हालांकि पचास प्रतिशत ऐसे भी हैं जो पत्थर तोड़कर रोटी पाते हैं और पत्थर पर सो जाते हैं। वे अपने बच्चों का नाम हीरा, मोती, जवाहर आदि रखकर संतुष्ट हो जाते हैं। उन्हीं ने इस देश में पुत्र को रत्न कहने की परंपरा डाली।
रत्न को राष्ट्रीय पत्थर होने की घोषणा तो नहीं हुई है, पर मुझे लगता है रत्नों के देश में यह अन्याय और ज़्यादा देर नहीं चलना चाहिए। इस देश में देश-प्रेम से अधिक गहरा रत्न-प्रेम है। यह रत्न-प्रेम इतना शक्तिशाली है कि राष्ट्र के सर्वोच्च देश-रत्न या राष्ट्र-रत्न सम्मान को हम 'भारत रत्न' कहकर गर्व करते हैं। चूंकि इसकी कहानी गहरे जाकर राजनीति से जुड़ जाती है, इसलिये यहां से हम दूसरी बात करते हैं।
इस देश का रत्नप्रेम ही है कि यहां समुद्र को रत्नाकर कहते हैं। इस देश के पुराण में समुद्र मंथन की पटकथा में रत्नों के निकलने की बड़ी रोमांचक कथा है। चंद्रमा और लक्ष्मी के साथ साथ अमृत और विष भी निकला। अमृत को देवता पी गए और विष को देशहित में शिव ने पिया। लक्ष्मी उद्योगपतियों के घर की संपत्ति हुई तो मिट्टी का टुकड़ा (धरती का भग्नांश)चन्द्रमा फिर जनहित के लिए शिव के माथे पड़ा या चढ़ा। शब्दों की लड़ाई छोड़कर आप अपना अच्छा लगनेवाला अर्थ ग्रहण कर लीजिए। हमारे यहां जो सदियों से चली आ रही बीमारी है न, अर्थ का अनर्थ करने की, उससे बचिए। बीमारी से याद आया कि समुद्र मंथन से चिकित्सक धन्वंतरि भी निकले थे। उनसे स्वास्थ्य परामर्श लेते रहना चाहिए। मगर आप जानते हैं धन्वंतरि के जन्मदिन पर लोग वैद्य जी से औषधि लेने की बजाय रत्न जड़ित सोने के अलंकार लेते हैं। धन्वंतरि जी को सोने की जंज़ीर पहनाने वालों को पहचाना क्या आपने?
बात मंथन की चल रही थी, समुद्र मंथन की। बड़ी अद्भुत पटकथा है। पहाड़ और सांप के माध्यम से मथे गए समुद्र से चंद्रमा, लक्ष्मी, अमृत, विष, धन्वंतरि के साथ साथ मणि (रत्न), हाथी, घोड़ा, गाय, पेड़, शंख,अप्सरा, शैफाली और शराब भी निकली। यानी निर्धन और दुखी लोगों के लिए भी कुछ तो निकला। तभी उसे अम्मानपूर्वक 'देशी' यानी भारतीय कहा जाता है। शराब पर लंबी चर्चा हो जाएगी इसलिए रत्न पर केंद्रित रहा जाए। रत्न भी देशी है और उसका भी तो अपना ही नशा है।
हम रत्न से होकर भारत-रत्न तक आये थे। वहीं से आगे बढ़ें तो याद आता है कि जिस प्रकार देश के विशेष व्यक्ति को 'भारत-रत्न' दिया जाता है, वैसे ही कुछ समुदाय अपने विशिष्ट व्यक्तियों को 'जाति/वर्ग-रत्न' सम्मान देते हैं। हिंदी साहित्य में 'साहित्य-रत्न' एक उपाधि होती है। साहित्य में एक कवि रत्नाकर हुए। एक डाकू रत्नाकर हुए जो बाद में कवि हो गए।
ऐसे ही किसी कवि ने लिखा है कि एक कौआ एक राजकुमारी का 'रत्न-जटित नवलखा-हार' ले उड़ा। आगे की कहानी जो हो, मेरा ध्यान कौए पर अटक गया है कि उसकी चॉइस देखो। नवलखा लेकर उड़ा। नौसौ हज़ार करोड़ लेकर भागनेवाले ने कौए से ही शिक्षा ली होगी। ख़ैर, बचपन से कौए के बारे में बहुत पढ़ा है। 'प्यासे कौए की कहानी' में कौए की लक्ष्य तक पहुंचने की अथक बुद्धिमत्ता-पूर्ण-चेष्टा से बहुत सीख गुरुओं ने दी। संस्कृत साहित्य में कौए को सम्मान देते हुये उसकी इसी जीवटता को रेखांकित किया गया है-'काक चेष्टा वको ध्यानं श्वान निद्रा..' एक कवि ने तो कौवे की झपट्टा-नीति तक की सराहना कर डाली। हरि नामक किसी बच्चे के हाथ से कौआ रोटी झपटकर ले गया और कवि कहते 'काग के भाग बड़े..'. फिर तो रोटी हो या विधायक, सबको झपट्टा मारकर ले उड़ना अच्छे भाग्य के खाते में चला गया। जाए हमें क्या। हम तो सामाजिक प्राणी हैं और हमारे समाज में कौआ हमारे समाज का प्रतिनिधि है। बचपन से हमने यही देखा। पितृपक्ष में हमारे घरों के पुरुष एक पखवाड़े तक दाढ़ी मूछों को पितृ-स्मृति के सम्मान में कटाते नहीं थे। कद्दू के हरे पत्ते और पीले फूलों पर पुरखा-पकवान परोस कर पुरखों के प्रतिनिधि कौओं को आमंत्रित करते थे 'आ आ'। कौवे स्वाभिमानी थे। 'आ आ' कहने पर क्यों आते। बड़े होने के नाते बाद में बच्चों को क्षमा करते और छत पर परोसा गया पकवान खाते और खुश होकर कांव कांव करते।
देखा, कौए हमारे समाज में कितना बड़ा स्थान रखते हैं? हमारे समाज की विरहनों का ख़ुफ़िया संदेश वाहक वही है। माना जाता है कि जब मुंडेर पर कौआ बोलता है तो परदेश गया हुआ लौटता है। राजस्थान की एक महाराणी कवयित्री ने ऐसे ही मुंडेर पर बोलते हुए कौए की ख़ुशामद में झूठी प्रशंसा करते हुए कहा कि तेरी बोली तो बहुत मीठी है रे! अगर मेरे पिया आज आये तो तेरी चोंच सोने से मढ़वा दूंगी। और सुन, मैं प्रीतम को पाती लिख देती हूं, उसे ले जाकर दे दे। तू तो बड़ा सुंदर है, मेरे सिर का ताज है। मेरे अच्छे कौए, जाकर पिया से कहना कि तेरी विरहन ने खाना पीना छोड़ रखा है।'
देखा आपने, अपना काम निकालने के लिए साम और दाम का कैसा चक्रव्यूह रचा जाता है।आये दिन झुंड के झुंड काले कौवे सोने की चोंच यानी करोड़ों का सूटकेस लेने इधर से उधर उड़ जाते हैं। क्रय विक्रय क्या इसी तरह शुरू हुआ?
लेकिन कौवे क्या इतने मूर्ख और लोभी होते हैं?
क्या ऋषि काकभुशुण्डि के वंशज ऐसे होते हैं?
क्या वे कौवे, जिन्हें वन्य जीव विशेषज्ञ सबसे होशियार और जीवट कहते हैं, उसे इतना दृढ़-संकल्पी कहते हैं, जो मरते दम तक अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए संघर्ष करता है, क्या वह इतना ढुलमुल हो सकता है? जिसके सम्मान में संस्कृत सुभाषित की 'काक चेष्टा' एक प्रतिमान बन गयी। जिसकी हर दिशा में शकुन अपशकुन के सैकड़ों टोटके हिन्दू धर्मावलंबियों में घर किये हुए हैं। क्या उस बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी कौवे के नाम पर हम 'वन्य रत्न' या 'कानन रत्न' का सम्मान भी न माँगे। जिसके
सम्मान की प्रतीक्षा शुक्ल सर और चौधरी सर कर रहे हैं। महाकवि शेख़ फ़रीद कर रहे हैं। यह कहकर -
कागा सब तन खाइयो, (मेरो) चुन चुन खाइयो मास।
दो नैना मत खाइयो,(इमे) पिया मिलन की आस।
@डॉ. रा. रामकुमार,
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