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मानसून के बहाने एक व्यंग्य

 आषाढ़ का बहुचर्चित पहला दिन
अभी मानसून यानी आषाढ़ के बादल नहीं आये हैं, आषाढ़ का पहला दिन (कृष्ण पक्ष) भी कब का जा चुका है।(पन्द्रह और चार उन्नीस दिन हो गए।) आज आषाढ़ के शुक्ल पक्ष का चौथा दिन है। हालांकि मानसून ईसवीं के 20 जून तक ही आता है। आज 22 जून है। उसे दो दिन लेट कह सकते हैं। आज आया और सचमुच मन का मयूर नाच उठा। आज ही देश के गृहमंत्री आनेवाले थे। उनका हल्का-यान  (हेलीकाप्टर) मौसम ख़राब होने से नहीं उतर सका। जो मौसम सामान्य स्त्री पुरुषों के लिए ख़ुशगवार होता है, वही मौसम राजपुरुषों के लिए मनहूस होता है। बादल धरती के आंचल पर प्रेम सिंचन हैं लेकिन सुरक्षा की दृष्टि में वही बादल, हवा पानी विघ्न हैं, बाधा हैं। लाखों की भीड़, करोड़ों की व्यवस्था, हजारों रक्षा कर्मियों की तैनाती बादलों के आगे फ़ीकी पड़ गयी। बादलों के आगे सूरज की भी नहीं चलती, फिर 'जब तक सूरज चांद रहेगा, अमुक तेरा नाम रहेगा' का नारा बिखरे हुए पेम्पलेटों और पोस्टरों से ऊपर तो नहीं जा सकते।
मौसम किसी-किसी को रास नहीं आता। एक तरफ़ मानसून का आना तय है, आया। देश के गृह मंत्री का आना चुनावी शंख नाद था, वे ज़मीन पर नहीं उतर सके। सह्याद्रि की घाटियों पर प्रेम करने का दंड भुगतते किसी यक्ष की आह लग गयी। प्राकृतिक मौसम और राजनयिक मौसम का अंतर दिखाई देने लगा।
बस इसी दृष्टिकोण को स्पष्ट करती हुई कालिदास नामक कवि की यह प्रसिद्ध और बहुचर्चित पंक्तियां पढ़कर उस अंतर को समझने का हम कष्ट उठा सकते हैं...अपने पर्यटन काव्य 'मेघदूतम्' का प्रारम्भ करते हुए कालिदास लिखते हैं-

आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्ट सानु
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।*                            
 अर्थात् - आषाढ़ मास के पहले दिन पहाड़ की चोटी पर, परस्पर लिपटे हुए मेघों को,  वियोगी यक्ष ने ऐसे देखा जैसे हाथी का जोड़ा देखने योग्य क्रीड़ा में मगन हों, लिप्त हो।

जब उज्जयिनी के कवि कालिदास को पूरे भारत का काव्यमय वर्णन करना था तो उसमें प्रेम के सबल पक्ष 'वियोग' का छौंका लगाना ही था। जैसा कि सभी कथाकार, उपन्यासकार, गीतकार और कविगण, आकर्षण और रोचकता के लिए यह बघार लगा ही देते हैं। कालिदास ने भी एक यक्ष की कल्पना की, जिसे अपनी परिणीता यक्षिणी के साथ प्रेम क्रीड़ा करने में मग्न होने के कारण अलकापुरी से निष्कासित कर दिया गया। समाज में सभी प्रेम करते हैं, लेकिन दूसरों को प्रेम करते देख मारे ईर्ष्या के उन्हें प्रताड़ित करने में उनके आनन्द का ठिकाना नहीं रहता। 'पर-पीड़ा' मानव का स्वभाव है। प्रकृति का नियम है कि पीड़ित, शोषित और कमज़ोर वर्ग को या अल्पसंख्यक या विधर्मी या वंचित वर्ग को सबल और संगठित वर्ग दबाए रखें। यक्ष भी तो कंदराओं में रहनेवाली असंगठित पर्वतीय जाति थी। वनीय और पर्वतीय 'आदिजनों' के साथ आज भी यही हो रहा है, तो आपके पास विश्वास न करने का कोई बहाना नहीं है।
खैर, उज्जयिनी के राजकवि कालिदास ने राजधर्म और सात्विक या कुलीन समाज की मर्यादा के अनुकूल यक्ष को निष्कासित या देशनिकाला या समकालीन शब्दों में तड़ी-पार करवाया। यक्ष ने विरोध नहीं किया। उन दिनों और आज भी, प्रेम करते पकड़ाए जानेवाले यक्ष-यक्षिणी विरोध नहीं करते, मानो मान लेते हैं कि प्रेम किया तो अपराध हुआ। प्रेम को स्वीकार करने की मांग करने पर 'पंच परमेश्वर' उनको मार डालते हैं। सभ्य समाज और कुलीन समाज में प्रेम को अपराध समझकर गर्व किया जाता है तथा आक्रमण, बलात वस्तु-ग्रहण अथवा स्त्री-हरण को वीरोचित ओज या पौरुष माना जाता है। ऐसी वीरता की कथाओं से ग्रंथ भरे पड़े हैं और जन-सामान्य की आस्था बने हुए हैं। समाज इन कथाओं को पढ़ता, सुनता और गाता है। जब पाठकों की यही रुचि और संतुष्टि है तो सौन्दर्यवादी और यथास्थितिवादी लेखक, कवि, उपन्यासकार, कहानी लेखक इस प्रकार की कथावस्तु बुनकर लोकप्रियता और विक्रय-सुख क्यों नहीं उठाएं।   
कालिदास ने भी ऐसी ही कहानी बुनी। लेकिन यक्ष और मेघ के बहाने 'कन्याकुमारी से कश्मीर' तक का पर्यटन उन्होंने रसिकों को कराया, बादल की यात्रा के बहाने। ख़ास बात यह कि उन्होंने 'अपनी' उज्जयिनी में उस यात्री-बादल को अधिक समय तक ठहराया। ठहराते भी क्यों नहीं, यह उनका 'क्षेत्र' था, इस क्षेत्र पर बादल का अधिक ठहरना समृद्धि का अधिक बरसना भी तो है। यही तो भूमि या मातृ भूमि के प्रति प्रेम है। 'अपने क्षेत्र' का ख़्याल कालिदास ने भी रखा। जितनी देर बादल उज्जयिनी में रहा, वहां के कृषक ही नहीं, उनकी लावण्यमयी कन्याएं भी प्रसन्न होती रहीं। उनके साथ पर्याप्त समय बिताकर बादल आगे बढ़ा। बादल के बहाने भारत की प्राकृतिक सामर्थ्य, कृषि, सौंदर्य के प्रति कवि का अनूठा प्रेम ही उसे शताब्दियों बाद भी, दो हज़ार अस्सी वर्षों बाद भी लोकप्रिय बनाये हुए है। अपने क्षेत्र, अपनी माटी, अपने लोगों के प्रति अपना उत्तरदायित्व समझो, फिर देखो, 'आह! कितना देती है प्रकृति?'
अत्यंत दुख के साथ कहना पड़ता है कि कालिदास ने जिस शिप्रा को लबालब भरे रखने के लिए बादल को बिलमाये रखा, आज वही शिप्रा सूखी पड़ी है। अगर नर्मदा नहीं होती तो वह मर चुकी होती। इसीलिए तो सतपुड़ा की घाटियों में मानसून के बादलों को देखकर मन-मयूर नाच उठते हैं। सतपुड़ा की घाटियों में, विशेषकर 'कान्हा वन परिक्षेत्र'  के 'यक्षों' को, बादलों में हाथियों के आपस में टकराने या मिट्टी के ढूहों को उकसाते सांढ़ों की जगह, प्रेम-लड़ाई लड़ते हुए मयूर दिखाई देते हैं। बादलों के उमड़ने-घुमड़ने से क्या चित्र बनते हैं, यह मन की अवस्था पर ही तो निर्भर हैं। बादलों में मयूर क्यों नहीं दिखे कालिदास को? क्यों टीले ढहाते हाथी दिखे, उनकी मानसिक अवस्था वे ही जानें। चलिए, हम अपने मयूरों के साथ नाचते हैं।

@डॉ. रा. रामकुमार, २२-२३. ०६.२३, गुरु-शुक्र,
               
*शब्दार्थ :
आश्लिष्ट : लिपटे हुये, चिपके हुए,
सानु : पर्वत शिखर पर
वप्रक्रीड़ा : [संज्ञा, स्त्री०, सं०,] टीले या ऊँचे उठे हुए मिट्टी के टीले या ढेर को हाथी, साँड़ आदि का दाँतों या सींगों से मारना, ढहाना, यही उनकी आनन्द क्रीड़ा है ।
परिणत : डूबे हुए, मग्न, लिप्त,
प्रेक्षणीयं : देखने योग्य, देखी जाने योग्य,


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