1. जंगल को पढ़ते हुये : तेरह दोहे
देशकाल चढ़ने लगा, केशकाल के घाट।
नमक-मिर्च बस्तर हुआ, हुई सियासत चाट।।०१
मुग़ल गए, इंग्लिश गए, गए सांप औ नाग।
जंगल से लेकर गए, अपना अपना भाग।।०२
एस.पि.ओ. सलवा-जुडुम, सेना, पुलिस, निजाम।
जंगल-हत्या में हुआ, शामिल मुल्क तमाम।।०३
जंगल से छीनो नहीं, महुआ, सल्फी, चार।
क़ुदरत ने जीवन दिया, तुम करते व्यापार।।०४
सत्ताएं पोषक बनें, रक्षक, पिता, मितान।
जंगल की भी बच सके, प्राकृतिक पहचान।।०५
संविधान अनुकूल ही, करना शिक्षित ठीक।
बस्तर के बदलें नहीं, भाषा, बिम्ब, प्रतीक।।०६
आदिम, मूल, सनातनी, सबकी अपनी शान।
सबकी मौलिकता रहे, पहन निजी परिधान।।०७
मान पराया व्यर्थ है, स्वाभिमान अनमोल।
परम्परा, निज मान्यता, बोली रखो अडोल।।०८
दूर दूर से देखकर, क्या समझोगे पीर।
भीतर बसकर बांचिये, जंगल की तहरीर।।०९
नंगे बस्तर की ढंके, शोषित वंचित देह।
बिना शर्त के बांटिए, इनमें अपना स्नेह।।१०
चारित्रिक हत्या प्रमुख, मुद्दे हुए नगण्य।
वनवासी हैं नागरिक, देश दण्डकारण्य।।११
जंगल को पढ़ते हुए, निकले महज़ उसांस।
महुए की पीड़ा नहीं, जान सकेगा कांस।। १२
जंगल की अंगिया बने, अस्तर बना चुनाव।
चूनर में छुप जाएगा, अब छाती का घाव।।१३
@ कुमार, १२-१३.०६.२२
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2. दलदल अब शतदल नहीं : पांच दोहे
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गुरुद्वारे-गिरजे फंसे, मंदिर-मस्जिद बीच।
दलदल अब शतदल नहीं, कीचड़ रहा उलीच।।
राजदंड क्रमशः गया, प्रजातंत्र के हाथ।
भक्षक ही बदले गए, जन-गण रहा अनाथ।।
अंटा खाकर धर्म का, घृणा उगलते लोग।
दवा सिर्फ़ विध्वंस है, आयुर्वेद न योग।।
भाईचारा, मित्रता, धर्म-विशेष विरुद्ध।
मात्र प्रेम के नाम पर, हो जाते हैं क्रुद्ध।।
आदिपुरुष नाटक बना, दल-प्रचार अभियान।
बहुत सोचकर ही किया, इसमें पात्र-विधान।।
@ कुमार, १२.०६.२२
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