कुण्डलिया छंद :
गिरधर कवि की नियमव्रता कुण्डलिया :-
जंगल,नद,नाला जहाँ, तहाँ बचावै अंग।।
तहाँ बचावै अंग, लपक कुत्ता कौ मारे।
दुश्मन दावागीर, झपटि तिनहूँ को झारे।।
कह गिरिधर कविराय, सुनो हे दूर के बाठी।
सब हथियारन छाँडि, हाथ महँ लीजै लाठी।
इसी के साथ-साथ दूसरे प्रसिद्ध हास्य कुण्डलियाकार काका हाथरसी की कुण्डलिया भी देखें।
देव,दनुज,किन्नर सभी, करें सोमरस पान।।
करें सोमरस पान, सभी कवि, लेखक, शायर।
जो इससे घबराय, उसे कहते हैं 'कायर'।।
कह 'काका', कवि 'बच्चन' ने पीकर दो प्याला।
दो घंटे में लिख डाली, पूरी 'मधुशाला'।।
तीसरे समकालीन प्राध्यापक हैं रामकुमार, आवश्यकतानुसार छंदों के उदाहरण के लिए ख्यात हैं, एक उदाहरण दृष्टव्य -
ज़िंदादिल जाने गए, जग में सच्चे वीर।।
जग में सच्चे वीर, आपदाओं से लड़ते।
नहीं चुराते आंख, शूल से ये जा गड़ते।।
भाई रामकुमार, ज़िन्दगी दरिया में धँस।
खुशियां हैं अनमोल, लूट ये मोती हँस हँस।।
ऊपर के तीनों उदाहरणों को देख-समझकर नियमों की उधेड़बुन की जा सकती है।
एक कुण्डलिया की संरचना में स्पष्ट रूप से छह पंक्तियां दिखाई देती हैं, जिसमें कुल बारह चरण होते हैं।
पहली दो पंक्ति की संरचना दोहे की है। दोहा अर्थात चार चरणों की ऐसी संरचना जिसके पहले और तीसरे विषम चरण 13 13 मात्राओं के हैं जिनके अंत अतुकांत हैं किंतु लघु गुरू के साथ हैं । इसके सम चरण दो चार 11 11 मात्राओं के गुरू लघु के साथ तुकांत हैं।
कुण्डलिया की शेष चार पंक्तियां दोहे की ठीक उल्टी दिखाई पड़ रही हैं। दोहा का ठीक उल्टाक्रम सोरठा कहलाता है। दोहे के दोनों अतुकांत विषम पहला और तीसरा चरण सोरठा के दूसरे और चौथे तुकांत चरण हो जाते हैं।
दो सोरठे मिलकर एक रोला छंद बन जाता है। किंतु मात्र यह गठजोड़ इसे रोला नहीं बनाता, इसमें एक थोड़ा सा परिवर्तन करना पड़ता है, वह यह कि सोरठा के दोनों तुकांत विषम चरण (1,3) रोला बनने के लिए तुकांतता भी मांग ले जाते हैं। यानी सोरठा के उलट रोला के चारों सम चरण (दो, चार, छः और आठ) तुकांत हो जाते हैं। इसलिए कुण्डलिया एक दोहा और एक रोला मिलकर बननेवाला छः पंक्तियों का बारह चरणवाला छंद है।
यही नहीं कुण्डलिया बनने के लिए और भी नियम इसे पालन करने पड़ते हैं -
1. पहला नियम : कुण्डलिया जिस शब्द या शब्द समूह से प्रारम्भ होती है, वही शब्द या शब्द समूह कुण्डलिया के अंत में होते हैं। (दोहा के मुंह में, रोला की दुम, यही कुंडली है।)
2. दूसरा नियम : कुंडलिया का स्थायी अर्थात पहली दो पंक्ति यानी दोहा का अंतिम सम पद(चौथा चरण) रोला का पहला पद हो जाये। (दोहा की दुम रोला के मुंह में )
3. तीसरा नियम : रोला के दूसरे सोरठे के पहले पद/चरण (9वें चरण) में कवि का नाम आ जाये।
गिरधर और काका के दो दो उदाहरण और देखिए ...
1. गिरधर कविराय
काम बिगारै आपनो, जग में होत हंसाय॥
जग में होत हंसाय, चित्त में चैन न पावै।
खान पान सन्मान, राग रंग मनहिं न भावै॥
कह गिरिधर कविराय, दु:ख कछु टरत न टारे।
खटकत है जिय मांहि, कियो जो बिना बिचारे॥
2. काका हाथरसी
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और।।
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने।
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने।।
कहँ ‘काका’ कवि, दया_राम जी मारें मच्छर।
विद्याधर को भैंस, बराबर काला अक्षर।।
इस प्रकार बहुत से कुण्डलीकार कुण्डलिया छंद के सभी नियमों का पालन करते हैं, और आधुनिक कवि नहीं करते। कुछ दोहा के पहले शब्द को रोला के आख़िरी शब्द साथ कुंडलित नहीं करते। कुछ अपने नाम का उपयोग पांचवीं पंक्ति के नौवें चरण में नहीं करते, तब भी चल निकलते हैं। काका ने ढेरों 'काका के कहकहे' ऐसे ही लगाए। कविता का आनंद पक्ष समयानुसार ढेर सारी छूट ले लेता है। मस्तमौला काका यति की भी परवाह नहीं करते। 13, 11 या 13, 11 की यतियों को उन्होंने भंग किया है।
@डॉ. रा. रामकुमार,
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