एक स्नानागारी गीत
0सब स्नानागार में गाये गए वो गीत हैं,
साबुनों में जो घुले, पानी में धुलकर बह गए।
जिन कमीज़ों ने कभी सिलवट नहीं स्वीकार की,
वो सफ़ेदी की लड़ाई में हैं कालिख फेंकती।
वे, जिन्हें रफ़्तार पे, अपनी बड़ा ही गर्व था,
रश्मियां, ध्वनियों के पीछे आ रही हैं रेंगती।
चांद सूरज की मिसालों पर थे ख़ुद जो दांव पर,
बाज़ियां ऐसी पड़ी उल्टी कि हतप्रभ रह गए।
वे, जो अमृत, काल का पीकर हुए चिरकाल के,
चलो पूछें अमर होकर लग रहा कैसा उन्हें?
वो समय, गुण-धर्म जिसका, नित्य परिवर्तन रहा,
अमरता की शर्त पर, स्वीकार कर लेगा उन्हें?
थे अनूठे तात्कालिक सामयिक प्रासाद, गढ़-
समय ने अपनी कसौटी पर कसा तो, ढह गए।
कुछ ज़मीं पर जम गए, कुछ आसमां पर उड़ रहे,
हम अलग हैं, ले रहे आबोहवा का जाइज़ा।
सारे साधन अब समर्थों की धरोहर बन गए,
समंदर, आकाश, धरती, उनकी मर्ज़ी की फ़िज़ा।
हवा, पानी, धूप पर क़ब्ज़े पे मुन्सिफ़ मौन है,
'पुरुष-सिंह' इतिहास के, यह ज़ुल्म कैसे सह गए!
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@ रा. रामकुमार, 22-23.02.23,
(१०.३०, १४.००, १४.३०, १७.५५,- ११०५)
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