Skip to main content

दो भाइयों की रोमांचक कथाएँ : दो दूनी चार

 दो दूनी चार

(रामचरितमानस से साभार)

        रामायण और रामचरितमानस की मुख्य कथाएं लगभग एक सी हैं। संस्कृत ग्रंथ रामायण का लोकभाषा अवधी में रामचरित मानस के रूप में भावानुवाद और छायानुवाद हुआ तो भारतीय धर्म और आस्था के साथ जुड़े लोग इस ग्रंथ को कथा मानने की बजाए चमत्कार की तरह मानने लगे। 

        कतिपय आस्थावान व्यक्ति यह भी मानते हैं कि ये सब प्रतीक की भाषा और संकेत देने वाले महाग्रंथ हैं। इनके पात्र भी संकेतों के रहस्य लपेटे हुये हैं। 

       यह विशेष संयोग है कि इन दोनों ग्रंथों में दो भाइयों का जोड़ा स्थान स्थान में मिलता है। रामचरित मानस अकेला भी कहा जा सकता है किंतु इन दिनों रामचरित मानस और उसके रचयिता तुलसीदास जी संवेदनशीलता के दायरे में हैं  इसलिये बाल्मीकि जी को लेकर उस संवेदन शीलता से ध्यान बांटने का प्रयास किया गया है। कुलमिलाकर रामकथाओं में दो भाइयों के जोड़े मिलते हैं, जैसे राम और लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न, रावण और कुंभकर्ण,  जिन्होंने एक दूसरे का साथ मरते दम तक  दिया। एक सबसे छोटे तीसरे भाई विभीषण भी थे।  ये साधु स्वभाव के थे, इसलिए लंका से निष्कासित होकर राम के साथ हो लिए। रावण, कुम्भकर्ण तथा विभीषण के एक चौथे भाई भी थे कुबेर। वे दूसरी मां से थे अतः सौतेले थे और धनपति थे, धन के देवता। वे अलग राज्य में थे। अगर साथ साथ होते तो विभीषण के साथ उनकी ख़ूब जमती क्योंकि अपने भाई रावण के दुर्गुणों से उन्हें भी तकलीफ़ थी विभीषण की तरह। दोनों ने रावण को सही राह दिखाने की कोशिश की और दोनों को रावण ने मारा और पीटा। विभीषण की छाती पर लात मारकर लंका से निकाल दिया और कुबेर के सिर पर प्रहार कर उसे मूर्छित कर दिया और उसका अनूठा विश्वप्रसिद्ध पुष्पक विमान हथिया लिया।  खैर तुलसी ने कहा ही है -'समरथ को नहीं दोष गुसाईं।'

 इसके अतिरिक्त भी रावण के दो सौतेले भाई और थे। खर और दूषण। यहां तक कि वे दोनों भी आपस में सौतेले भाई थे। वैसे राम और लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न भी दो सौतेले भाइयों की जोड़ियां ही थीं। सगे सहोदर तो लक्ष्मण और शत्रुघ्न थे, जो जुड़वा भी थे। जुड़वा भाइयों की जोड़ी किष्किंध्या में भी मिलती है- बाली और सुग्रीव की। मज़े की बात तो  यह है कि जुड़वा भाइयों की एक अन्य जोड़ी, किष्किन्ध्या के राजा बाली और सुग्रीव की सेना में भी मिलती है, नल और नील की। ये दोनों समुद्री नाव बनाने की कला में इतने माहिर, कुशल, पारंगत और विशेषज्ञ थे कि समुद्री तूफानों में भी उनकी बनाई समुद्री नावें अडिग खड़ी रह सकती थी। इनके बारे में यह किंवदंती प्रसिद्ध हो गयी थी कि ये पत्थर भी छू दें तो वह तैरने लगे।  समुद्र में रास्ता बनाने में इनकी इसी विद्या का उपयोग राम ने किया। इन दोनों की इस विद्या की जानकारी स्वयं समुद्र के स्वामी जलनिधिपति समुद्र ने राम को दी थी। (पुराण अथवा पराकथाएं (सुपरनैचुरल) कहनेवाले बताते हैं कि  ये दोनों जुड़वा भाई नल और नील 'जुड़वा अश्विनी कुमारों के अवतार हैं, जो महाभारत में भी हैं, कहीं दो वृक्षों के रूप में जिसे ओखली में बंधे कृष्ण ने उखाड़कर उद्धार या मुक्ति दी थी। ये दोनों अश्विनीकुमार ही नकुल और सहदेव के रूप में माद्री के जुड़वा पुत्र हुए। इन अद्भुत अलौकिक कथाएं अभी तक एक बड़े वर्ग को आकर्षित किये हुए है।) 

भालू जाति के जामवंत नामक सुग्रीव के महामंत्री ने नल और नील के रहस्य की जैसी जानकारी दी, उसी प्रकार, रावण की नाभि की दुर्बलता की जानकारी विभीषण ने भी दी। कथाओं के इस बुनाव से पता चलता है कि कुदरत जिसे जिताना चाहती है, उसके जीतने के उपाय या व्यवस्था भी वह कर ही देती है। 

   इन जुड़वा भाइयों की जोड़ी में दो और जुड़वा भाई थे .. सम्पाति और जटायु। जुड़वा भाइयों में भी छोटा बड़ा होता है। कुछ पलों या मिनटों का अंतर जुड़वा भाइयों के जन्म में, भूमि में आने में होता ही है। तो एक हुआ बड़ा भाई सम्पाति और छोटा हुआ जटायु। दोनों को उड़ने का शौक़ था, ऊंची ऊंची उड़ान भरने में दोनों को बड़ा मज़ा  आता था। बेरोकटोक आसमान में बहुत ऊपर उड़ते-उड़ते उनकी महत्वाकांक्षा सूरज को छूने की हुई। बड़े भाई ने कहा :"छोटे! इतनी ऊँछाइयाँ तो हमने छू ली, हम सूरज को नहीं छूकर आ सकते हैं क्या?" छोटा भाई तो बड़े भाई के कहने पर कुएं में छलांग लगा दे। वह आंख मूंदकर तैयार हो गया। दोनों ने आसमान पर, पर फैलाये और उड़ते उड़ते मंगलग्रह से आगे निकल गए। छोटे की सांस मंगल तक पहुंचते-पहुंचते फूल गई। उसे बेचैनी हुई तो वह लौट आया। बड़ा आंखों से ओझल हो गया था। पता नहीं अपने ऑर्बिट में भटक गया था या सूरज के पास चला गया था। बहुत दिनों बाद समुद्र के किनारे उसे टूटे हुए पंखों के साथ घायलावस्था में देखा गया। राम ने ही देखा और चिकित्सा की। चिकित्सा के दौरान उस अति-महत्वाकांक्षी सम्पाति की मृत्यु हो गयी और उसका अंतिम संस्कार किया गया। छोटे परकटे भाई जटायु का अंतिम संस्कार तो राम पहले ही कर चुके थे। 

      इस प्रकार हम देखते हैं कि रामकथा वास्तव में दो भाइयों के जोड़े की कहानी है।  राम लक्ष्मण बताते ही रहे होंगे कि हम दो भाई यहां जंगल में लोगों से मेलमिलाप करते, वनवास काटते, घूम रहे हैं और हमारे दो भाई अयोध्या में राजकाज देख रहे हैं। (राम लक्ष्मण के मेलमिलाप का लाभ बाद में चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए किए गए अश्वमेध में मिला।) 

 ख़ैर, दूसरी ओर खर और दूषण दोनों भाई भी कहते रहे होंगे कि हम दो जंगलों का राज्य संभाल रहे हैं और हमारे दो भाई रावण और कुम्भकर्ण, स्वर्णनगरी लंका में ऐश कर रहे हैं। रावण कविताएं लिखकर और नृत्य आदि कलाओं में खुद को डुबाकर तथा कुम्भकर्ण अपने निष्कंटक राज्य में खा पीकर चैन की नींद सोकर। आदमी का पुरुषार्थ और है क्या आख़िर। अर्थ कमाओ, आर्थिक मज़बूती पैदा करो, सोना रिज़र्व करो और कामनाओं में उसे उपयोग करते हुए, खाओ पीओ और सोओ। यही धर्म है और यही मोक्ष। छोटे बड़े भाइयों की कहानी से यह बात हमारी समझ में आ जाए इसलिए  रावण जैसे महाकवि की एक कविता को रामचरित मानस में जोड़कर बड़ी कुशलता से तुलसीदास जी ने जोड़ीदार भाइयों की कथाएं हम तक पहुंचाया।

महाभारत में भी बलराम और कृष्ण दो भाइयों का जोड़ा बड़ा प्रसिद्ध है। वे गुजरात के सौराष्ट्र में द्वारिका नामक राज्य के अधिपति थे। छोटे भाई कृष्ण की हर बात बड़े भाई बलराम मान लेते थे। सामान्य शब्दों में कहें तो छोटे भाई की बहुत चलती थी। छोटे भाई का ससुराल महाराष्ट्र का था, विदर्भ का। उनका परिवार मूलतः उत्तर प्रदेश मथुरा का था, इसलिए  गोकुल वृंदावन तक उनकी चलती थी। उनके पैतृक वंश से एक बुआ हस्तिनापुर में ब्याही थी तो हस्तिनापुर में भी उनकी चलती थी। बाद में परिवारिक विवाद के चलते उनकी बुआ के पुत्रों को खांडववन बंटवारे में मिला तो खांडववन को कृष्ण के कहने पर ही इंद्रप्रस्थ कहा गया, जो आज की दिल्ली है। इससे पता चलता है कि स्थानों के नाम, नई पहचान के लिए सहस्रों वर्षों से बदले जा रहे हैं। 

ख़ैर, अतिशय क्षमा करें, अन्य कथाएं विस्तार के भय से यहीं स्थगित करते हैं। शेष फिर...

निवेदन :

 जानकारी कैसी लगी कृपया बताएं। न बता पाएं तो आपस में चर्चा अवश्य करें। मन की बात ज़रूर करना चाहिए, मन में नहीं रखना चाहिए। यह युग विज्ञापन का युग है, मन की बात करते रहिए। जैसे मेरे मन में बातें आईं तो आपसे मन की बात शेयर कर ली। समीक्षाशास्त्र इसे विरेचन की क्रिया कहता है। विरेचन जुलाब को कहते हैं, जिससे कब्ज़ दूर किया जाता है। विरेचन यानी मन की बात कहना, यह एक मनोवैज्ञानिक उपचार भी है और आयुर्वेदिक उपचार भी है। आयुर्वेद को पूरे विश्व में फैलाना चाहिए। हरिद्वार या ऋषिकेश में एक बाबा इसी काम में लगे हैं और खरबों का पैसा हरिद्वार आ रहा है। यानी सब  मस्त हैं। आप भी मस्त रहें, खुश रहें।

तो जय हिंद कहना पड़ेगा। जय हिंद!!


          ®रा. रामकुमार, ७ फरवरी २०२३.


Comments

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि