मैं और मेरे नव्यतम नौ नवगीत
मैं
डॉ. रामकुमार रामरिया.मप्र उच्च शिक्षा विभाग के अंतर्गत शासकीय महाविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक के रूप में सेवा, 2018 में सेवानिवृत्त। हिंदी में कबीर एवं कबीरपंथी साहित्य परम्परा का आलोचनात्मक अध्ययन पर पी-एच.डी. हिंदी के अतिरिक्त दर्शन एवं अंग्रेजी में स्नातकोत्तर उपाधियां,
कविता, ग़ज़ल, गीत, निबंध, कहानी, आदि में निरन्तर लेखन, आकाशवाणी सहित अनेक राष्ट्रीय, प्रादेशिक एवं आंचलिक पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन, कहानियां पुरस्कृत,
'दलदली' एक लघु पुस्तिका एवं एक कविता संग्रह 'दूरियों के विंध्याचल' प्रकाशित, कहानी संग्रह, गीत संग्रह, दोहा एवं मुक्तक संग्रह, ग़ज़ल संग्रह, छंद विज्ञान पर शोध ग्रंथ, निबन्ध संग्रह, शोध निबंध आदि प्रकाशन की ओर।
संप्रति बाघ नगर बालाघाट में निवास,
पता : फ्लैट 202, दूसरा माला, किंग्स कैसल रेजीडेंसी, ऑरम सिटी, नवेगांव-बालाघाट।मप्र।
संपर्क सूत्र : 8770882423, 9893993403,
ई मेल : rkramarya@gmail.com,
पता : फ्लैट 202, दूसरा माला, किंग्स कैसल रेजीडेंसी, ऑरम सिटी, नवेगांव-बालाघाट।मप्र।
संपर्क सूत्र : 8770882423, 9893993403,
ई मेल : rkramarya@gmail.com,
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मेरे नव्यतम नौ नवगीत
1. अट्ठहासों के भरोसे
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जब कभी प्रतिमा गढूं मन की शिलाओं पर
चित्र तो बनते नहीं, चिंगारियां निकलें।
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जब कभी प्रतिमा गढूं मन की शिलाओं पर
चित्र तो बनते नहीं, चिंगारियां निकलें।
कंटकों की यात्रा के घाव गहरे हैं।
शूल से चुभते हुए संदिग्ध चहरे हैं।
भूल जाता क्यों नहीं मन चोट सब पिछली,
क्या समय के चिकित्सक के कान बहरे हैं?
इस नगर से उस नगर तक, भाग कर देखा-
हर अपरिचित विषमता से यारियां निकलें।
शौर्य के, उत्साह के दिन सींखचों में हैं।
और सद्भावों के सपने खंढरों में हैं।
जो निराशाएं गड़ा आया था मलबों में
वो निकाली जा चुकी हैं, आहतों में हैं।
हर चिकित्सालय से मैं भयभीत रहता हूँ
क्या पता, मुर्दा कहां, खुद्दारियाँ निकलें!
मर चुकी पाने की इच्छा, कुंद अभिलाषा।
दोगली लगने लगी है - आज की भाषा।
वाम, द्रोही, नास्तिक, कुंठित, भ्रमित, विक्षिप्त,
छद्म-जीवी गढ़ रहे हैं मेरी परिभाषा।
अट्ठहासों के भरोसे जी रहे जुमले,
घोषणाओं में भी जिनकी, गालियां निकलें।
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2. युद्ध की ललकार कर लें।
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हम मिलन को छोड़कर अगले जनम तक
विरह का हंसते हुए सिंगार कर लें।
थी कभी हमको
समंदर से भी ज्यादा प्यास।
तोड़ डाले कभी
तिनकों की तरह संत्रास।
थी कभी यह हौस
मुट्ठी भर हैं नभ-धरती
पर अभी है दूर
हर विश्वास से विश्वास।
घेर कर घड़ियां खड़ी हैं, घोर घातों की,
इनका आलिंगन करें, अभिसार कर लें।
देह के भूगोल में छल,
थल लगे है जल।
हाथ दाएं हों या बाएं,
बेच देते बल।
निकल जाते, बदल जाते,
घात कर जाते,
छांह भी हो जाए
तपती धूप में ओझल।
खेल यह अस्तित्व का, जीवन मरण का है,
दर्शकों-सा हम भी अब व्यवहार कर लें।
यह नहीं तो समर साधें,
फिर कमर कस लें।
आत्मबल के जिरह-बख्तर,
तीर-तरकस लें।
'आमरण-रद्दोबदल' की
लें अभी सौगंध,
अनृत-नृप का काटने से
अटल-साहस लें।
भय नहीं, हर सांस को अब, बांध छाती से,
आज अंतिम युद्ध की ललकार कर लें।
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3.लूट-पाट के रेशम पर है...
*
बिजली गिरती, बादल फटते,
ढहते बांध, पहाड़।
सहमी हुई आस्थाएं लें,
किस पत्थर की आड़।।
शपथ-पत्र सब झूठे निकले,
निष्ठा के मन बदले।
भय को भय-दोहन धर दाबे,
भीतर बाहर हमले।
विश्वासों के संगम पर हैं,
अब नदियां दो फाड़।।
षड्यंत्रों के वेग प्रबल हैं,
गुप्त-शत्रु निज-छाया।
प्रतिदिन भावी सूर्य क्षितिज पर,
लहूलुहान ही आया।
लूट-पाट के रेशम पर है,
राजाज्ञा की माड़।।
पीढ़ी को उद्दंड बनाकर,
राजदंड लहराकर।
धन-धरती को धूर्त्त धरेंगे,
लोकेच्छा लतियाकर।
रीति-नीति का गला रेंतकर,
देंगे गहरे गाड़।।
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4. धूप से आगे!
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अंधकार से दूर निकलकर
बांटें घर-घर रोज़ उजाले
हम चल सदा धूप से आगे!
धरती के हर रूप-महल पर
हमलावर ने पैर पसारे।
सुविधा के हर हाट-बाट पर
खड़े लुटेरों के चौबारे।
स्वर्ग, नर्क, तर्क, आश्वासन,
वादों, दावों, सौगन्धों के,
देखो नक़ली-रूप से आगे!
जीवन भर की जमा पूंजियां
लेकर भाग रहे हैं छलिये।
घी चुपड़ी खानेवालों को
खटक रहे हैं लोने दलिये।
गहरी तेज़ पारखी आंखें
रखो खुली जो रहे हमेशा
चलनी और सूप से आगे!
सांसों-धड़कन के काग़ज़ पर
लिया अंगूठा सेठ हो गए।
जो दिन आये फागुन बनकर
नज़र बदलकर जेठ हो गए।
हँसखोरी से, बतखोरी से
बचा रखो बस्ती की पगड़ी,
बढ़ो विदूषक-भूप से आगे!
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4. बिकनेवाली चीज़
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आगे मौन है,
पीछे उसके
दुनिया भर के झोल।
लपझप के
अनगिन झांसों में
सांसें फंसी हुई हैं।
ज़रूरतों के
जंगल में सब
गैलें गंसी हुई हैं।
खरपतवार,
मकड़जालों के
पथ ने पहने चोल।
बाज़ारों में
सजा-सजा रख
बिकनेवाली चीज़।
लोगों का दिल
लुभा सके जो
लकदक, गर्म, लज़ीज़।
दो कौड़ी की
बकवासों को
कह अद्भुत, अनमोल।
टोली, दल,
जत्था, समूह हैं
गठबन्धन के नाम।
हामीवाला-
दक्ष, कुशल है;
अकुशल वो जो वाम।
विश्व समूचा
बजा रहा है
कूट-युद्ध के ढोल।
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5. अंतर्मन का गीत
***
अन्तर्मन में टीस उठे तो गाऊं!!
मेरे सरस व्यतीत तुझे मैं,
आठों प्रहर बुलाऊं!!
*
सुनते हैं, फागुन है वन में, मधु बसन्त है छाया!
मेरे मुरझे मधुमासों पर पतझर का है साया!
दुनिया भर के संतापों के कद बौने निकले हैं,
मेरे मूल दुखों के पीछे नाम सुखों का आया!
आ मेरे अपराधी तुझको,
उमर-क़ैद करवाऊं !!
*
वे पत्थर सब टूट चुके हैं, जो थे कभी सहारा।
वे लहरें भी कुंठित जिनमें तूने रूप निखारा!
उन पेड़ों को कहां तलाशूं जिनमें झूले बांधे?
उन घाटों में प्यास बुझे क्या, जिनका खुश्क किनारा।
अब किससे कल के दुख बांटूं
किसको कष्ट सुनाऊं!!
*
आ जाओ मेरे बिछड़े पल, आती-पाती खेलें!
आ, मेले उन स्मृतियों के, मिलकर पीछे ठेलें।
छुपा-छुपौअल की कितनी ही, छुअन अभी बाक़ी हैं,
भूल-चूक के सब डांड़ों को, ब्याज सहित हम झेलें!
आ तेरे बदले मैं हारूं,
आ फिर तुझे जिताऊं!!
मेरे सरस व्यतीत तुझे मैं,
आठों प्रहर बुलाऊं!!
अन्तर-मन में टीस उठे तो गाऊं!!
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6. फुग्गा हो क्या
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बात बात पर,
गाल फुलाती,
फुग्गा हो क्या।
ऐंठू, ज़िद्दी और घमंडी,
सारे नाटक।
खुले हुए कुत्तों से चौकस,
वर्जित फाटक।
तुम्हें देख हर
दुम लहराए,
चुग्गा हो क्या।
बारह मास,
गरीबी छौंका,
रबड़ी घोंटी।
सूखा उगला,
जब जब तुमने
खोली टोंटी।
चोंच खोल
बकती हो अड़बड़,
सुग्गा हो क्या।
जंगल, नदी,
पहाड़ हड़पकर,
पैंगें भरती।
सबकी कुतर
रोटियां तुम
अय्याशी करती।
तुम्हें उजड़ने की
क्या चिंता,
झुग्गा हो क्या।
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7. पीर मन की
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गीत उत्सव में
निमंत्रित
पीर मन की हो
यही है लालसा।
जय-पराजय की
चढ़ाई में लुढ़कता
श्रम अचर्चित।
राह गढ़कर
खो गया हर हाथ
मंजिल से अपरिचित।
मर रहा है
पैर राहत
चाहता।
शब्द शंकित,
अर्थ की गहरी गुफ़ा में
है अंधेरा।
मकड़ियों के जाल ने भी
दृष्टि के
कोरों को घेरा।
खो चुकी है हर दिशा,
भय-ग्रस्त है
जीवेषणा।
हर तरफ जब
गिरोहों की जुगलबंदी
सफल है।
शिल्प की बाज़ीगरी का
जांघ ठोंकू दम
असल है।
बस तभी से
सृजन की निष्ठा गलित,
उतरा नशा।
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8. रत्ती रत्ती मासा मासा
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डोरी कलसा साथ लिये मैं
पनघट पर प्यासा बैठा,
जिस पर था विश्वास वही है
कुआं अभी तक प्यासा।
रहे हमेशा बाघ अकेला
नर वन-भैंसा, बरगद, पीपल।
रहें एकजुट झुंडों में सब
सोनकुकुर, वनशूकर, चीतल।
सबसे ज़्यादा सामाजिक ही
कुनबों में है बंटा आदमी-
कट्टर भेदभाव में लिथड़ा,
देता संगठनों का झांसा।
साथ चाह कर भाईचारा,
दर-दर भटक, गया दुत्कारा।
उसे देख मन के कालों ने
कुहनी मार लिया चटकारा।
टूटटूटकर जुड़नेवाला,
सरल अटूट हृदय पाकर ही,
मन बेशर्म 'कभी न कभी' का
ख़ुद को देता रहे दिलासा।
अहंकार-गढ़ के शोहदों से
मीठी चाहत मांग रहा हूँ।
यानी स्वयं बनाकर सूली,
मैं अपने को टांग रहा हूँ।
आया भलमनसाहत में भटका
चीलों-गिद्धों के मरुथल में
नोंच रहे हैं जो झुंडों में
रत्ती-रत्ती मासा-मासा।
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9. मत मरने दो
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मत मरने दो
अनगढ़ बोली,
बूढ़े सपने।
सपने और
शिकायत दोनों
साथों साथ ठुंसीं हैं।
मिट्टी के
छोटे गुल्लक में
गुत्थमगुत्थ घुंसीं हैं।
तोड़ो शायद,
एक हुए हों
सुख-दुख अपने।
दरवाज़े पर
कौन खड़ा यह
किसको पूछ रहा है।
उसको, जिसके
घर में, केवल
नीरस छूछ रहा है।
आनेवाला
क्यों आया,
भट्टी में तपने।
बहुत विकास
हुआ उसका ही
जिसकी बड़ी तिजौरी।
जल, थल, नभ को
जो ख़रीदकर
करता सीनाज़ोरी।
छोटी छातीवाले
उसकी, माला
लगे हैं जपने।
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डॉ. रामकुमार रामरिया
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