स्वांतः सुखाय का सामाजिक सरोकार
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सभी को इस कहावत का अर्थ पता है कि 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता', इस लोकोक्ति को भी सैकड़ों बार सुन चुके हैं कि 'जंगल में मोर नाचा किसने देखा', तो कोई स्वेच्छा से सामाजिकता या सामाजिक सरोकार से मुंह कैसे मोड़ सकता है। अपनी अंतर्मुखी प्रवृत्ति के कारण, स्वाध्याय के कारण, मिलनसारिता के अभाव में, व्यवस्था-अव्यवस्था की आलोचना, विषमता और पक्षपात का विरोध करने, सच को बिना लाग लपेट के कहने, पाखण्ड नहीं करने या पाखण्ड का साथ नहीं देने के कारण यदि व्यक्ति अकेला पड़ जाए तो क्या उसे सामाजिक सरोकार से उदासीन या विरोधी व्यक्ति कहेंगे? क्या उसका कथित या लिखित वक्तव्य 'स्वान्तःसुखाय' हो सकता है? समयाभाव और सेवा सम्बन्धी विवशताओं के कारण, कहीं भी कविता पढ़ने न जाना, किसी भी संगठन में न जुड़ पाना, कोई आंदोलन या अभियान का हिस्सा नहीं होने के कारण क्या सारा व्यक्ति अकेला या एकाकी हो जाता है या हो जाना चाहिये?
एक व्यक्ति का परिचय, एक सेठाश्रित व्यक्तिगत साहित्यिक संस्था के वंश-धर को, उसके अनुयायी ने यह कहकर दिया कि अमुकजी बहुत बढ़िया लिखते हैं लेकिन इनका लेखन स्वांतः सुखाय है।' यह सुना तो अचानक यह 'स्वान्तःसुखाय' शब्द पुनः प्रासंगिक हो गया।
वर्षों पहले साहित्यिक संस्थाएं समूह द्वारा संचालित थीं। अनेक व्यक्ति मिलकर एक समूह बन जाते थे, जो किसी विचारधारा, विधा, छंद या छंद मुक्ति, जाति या संस्कृति, धर्म या भाषा, अध्यात्म या दर्शन, सामाजिक या आर्थिक, कृषि या व्यापार, श्रम या पूंजी, मनोरंजन या जागरण आदि के कारण, उस तरह के संचालकों, कार्यकर्ताओं और अनुयायियों का जत्था, समूह या संगठन के अंतर्गत कार्य करते थे। कोई साहित्यिक व्यक्ति, पत्रकार, सेठ या व्यापारी एकीकृत या पृथक इकाई के रूप में किसी समूह का मालिक, अध्यक्ष, संरक्षक, संयोजक, संस्थापक आदि के रूप में ऐसे समूह का केंद्रीय चेहरा होता था। राजशाही के दौर में राजदरबारों में राजा की प्रशंसा में गीत और छंद गानेवालों का राजाश्रित समूह होता था। बादशाह अकबर के दरबार और सम्राट भर्तृहरि या उनके छोटे भाई चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार के बारे में कौन नहीं जानता।
साहित्य के आदिकाल से दरबारी साहित्यकारों का बोलबाला रहा है। हालांकि हर काल में कवियों के दो वर्ग हुए.. दरबारी और बाहरी। तथापि अपने अपने अस्तित्व के लिए दोनों को आश्रय की आवश्यकता थी। दरबारी कवियों ने राजा की शरण ली और प्रशंसा में गीत गाने लगे। बाहरी कवियों ने विचारधारा की राह ली और धर्म-सम्प्रदाय की शरण ली। दोनों वर्गों को परिभाषित करने दो नाम सामने आए, वीरगाथा काल या चारणकाल और आदिकाल या सिद्ध, नाथ और जैन कवियों का काल। आगे चलकर राजाश्रय के अंदर भी रीतिसिद्ध और मुक्त कवि हुए। यह सब सरोकार के कारण हुआ। साहित्य का एक धड़ा अपना सरोकार राजा से जोड़े रहा और दूसरा आस्तिक जनता से। राज-शासित दोनों जनता-वर्ग सीधी राजभक्त थी या अपने धर्मगुरु की। धर्मगुरु राजा के साथ होते ही रहे हैं तो प्रकारांतर से दोनों वर्ग के सारे कवि, जो या तो राजा के लिये रच रहे थे या धर्मगुरु के लिये, इस तरह, सरोकार के आधार पर, अपने अपने आश्रयदाताओं के कवि पैरोकार हुए। जनता का राजा से जुड़ा जयकारी वर्ग और धर्मगुरु से जुड़ा सष्टांगी वर्ग खुशहाल था। इन सब से अछूता भी कोई वर्ग था जो कृषि मज़दूर, श्रमिक, दीन और निराश्रित वर्ग था, वह अदृश्य-कर्मों का फल भुगत रहा था। यह अमानुषिक-पाश्विक-भ्रम भी संभ्रांत वर्ग द्वारा फैलाया गया था। भ्रम फैलाने के कारण ही शायद 'सम्भ्रांत' शब्द बना। भ्रांत का अर्थ ही होता है 'भटका हुआ'।
ऐसा नहीं था कि राजा और धर्मगुरु के बीच हमेशा मधुर गठबंधन रहा हो। आपसी वर्चस्व की लड़ाइयां हुईं तो धर्मगुरुओं ने एक ऐसे अद्भुत और अदृश्य महापुरुष को जन्म दे दिया जो धर्म या धर्मगुरु की तरफ था और उसी की सत्ता के नीचे राजा और रंक भी थे। सभी का अभीष्ट होने से उसे प्रारम्भ में ईश्वर कहा गया और जब राजा ने धर्मगुरुओं के पर कतरने के लिए अपने दरबारियों के माध्यम से ईश्वर को सबसे ऊपर मान लेने की राजनीति की तो, उन्हीं के द्वारा राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि भी घोषित करवाया। यहां धर्मगुरु भी राजाश्रित हो गए और जनता से कवियों का सरोकार राजा के वर्चस्व स्थापित करने के लिए हो गया। राजा को दबोचने के लिए भी धर्मगुरुओं के आश्रय में ऐसे कवि हुए जिन्होंने राजा को अधीन सिद्ध करने में पूरी शक्ति लगा दी।
जनता के सरोकार की बात स्वतंत्रता संग्राम के समय देशभक्ति और स्वाधीनता के लिये हुई। इस बीच भी बहुत से धर्मप्राण कवि दर्शन, धर्म, अतीत गौरव आदि के माध्यम से जनता को अपने पक्ष में लाते रहे। राजाश्रय में छंदों, अलंकारों, रस और शब्द-सौंदर्य और शब्द-शक्तियों का जो विकास हुआ, उसके पीछे अभ्यास और कौशल के विकास की कार्यशालाएं चलती रहीं। आधुनिक काल में कविता और 'जन-सरोकार' अपने द्वंद्वात्मक रूप में बहुत फला फूला। सामंतवाद, पूंजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद, साम्राज्यवाद, विज्ञानवाद, औद्योगिकीकरण, तकनीकीकरण, वाणिज्यवाद, वैश्वीकरण, अंतरराष्ट्रीयतावाद, आदि आदि अनेक वाद आते रहे, राज, समाज, तंत्र, समूह, प्रकाशन संस्थान, पुरस्कार-गणतंत्र अपने अपने सरोकारों को लेकर बनते बिगड़ते रहे। सेठ, साहूकार, टोपी या सूट के दुकानदारों की तरह ख़िताब-विक्रेता अपने ही किसी अनुयायी को उसकी पसंदीदा विधा का सम्राट बनाते रहे। ग़रीबों, मज़दूरों, शोषितों, किसानों के पैरोकार अपने को सरोकारी कहकर भी अपने संग्रहों को भव्य-भवनों में विमोचित कराते रहे और साहित्य उन तक पहुंच ही नहीं पाया, जिनके पक्ष में होने का वह दावा करता रहा। किताबें गर्व के साथ शालाओं, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में बांटने और पाठ्यक्रम में लगवाने की प्रणाम से साष्टांग की सर्वांग कोशिशें होती रहीं, लेकिन जिनसे सरोकार था, उन तक जाकर उद्घघाटित होने की एक भी चेष्टा नहीं हुई, जिन्हें कविता से ज्यादा खाद, बीज, वस्त्र, छत का इंतज़ार था, है और रहेगा, उनके लिए कितने संवेदनशील सामने आए। वे सब संगठन बनाते रहे और लाभ के अवसर तलाशते रहे।
यहीं कुछ ऐसे भी थे, जो किसी बड़े समूह में सम्मिलित नहीं हो पाए या जिन्हें शामिल होने की योग्यता नहीं आ पाई, वे लिखते जनता का दुख दर्द रहे, अथवा अपने दुख दर्द को अपने जैसी जनता का दुख दर्द कहकर गाते रहे, वे भीड़, हुजूम, समूह, संगठन से दूर रहने के कारण, स्वीकृति के अभाव में, अपने तमाम पन्नों को 'स्वांतः सुखाय' कहकर संतुष्ट होते रहे। यही नहीं चालाक मठाधीश और उनके गुर्गे उन्हें रिजेक्ट या बहिष्कृत करने के लिए, उनके पुलँदों को 'स्वांतः सुखाय' का ठप्पा लगाकर निरस्त करते रहे।
स्वांतः सुखाय शब्द सबसे ज़्यादा तुलसीदास जी के संदर्भ में आता है। लोकभाषा का बड़ा प्रबन्ध उन्होंने लिखा और उसे संस्कृत भाषा में 'स्वान्तःसुखाय रघुनाथ गाथा' कहा। लोकभाषा में होने के बावजूद इस प्रबंध काव्य में राजा राम का चरित्र था, जिसे ईश्वर के भाव और आस्था के साथ गाया गया था। सापेक्ष-उपेक्षा के साथ यह भारतीय धर्मप्राण जनता को बिना राजाश्रय में गए महंतों और धार्मिक संस्थानों के माध्यम से, एक विचारधारा के जीर्णोद्धार की महायात्रा के रूप में, गायन और नाट्यकला के द्वारा दीन हीन जनता को व्यवस्था का भक्त बनाया गया। पर जनता की तकलीफों, अभाव, भुखमरी, दुरावस्था का न तो इसमें चित्रण था, न उसकी चिंता थी। समाज तक एक निश्चित उद्देश्य से सक्रिय इस अभियान को स्वयं कवि द्वारा 'स्वांतः सुखाय कहने पर भी स्वांतः सुखाय समझा नहीं जा सकता। समाज में रहनेवाले एक व्यक्ति का कुछ भी स्वान्त: सुखाय' कैसे हो सकता है, भले ही वह व्यक्ति समाज या राज द्वारा उपेक्षित कर दिया गया हो। हर दृष्टि से वह सामाजिक सरोकार का हिस्सा है। हेय हो या प्रेय। कबीरदास जी का उदाहरण सामने है। तुलसीदास जी के पूर्ववर्ती कबीरदास जी ने अपने जैसे समाज के अंतिम व्यक्तियों के लिये ना केवल आवाज़ उठाई बल्कि पूरे भारत की यात्रा की और लोगों को जागरूक किया। कबीर सामाजिक सरोकार के प्रतिनिधि बन गए और उन्होंने कभी नहीं कहा कि वे केवल अपने सुख के लिए साखियां गा रहे हैं। यह कविवर रवींद्रनाथ जी को भी भाई और डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी जी को भी।
@ रा.रामकुमार, १७.०१.२०२३
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