बसन्त पंचमी : अंधे हृदय के बन्धनों से मुक्ति की प्रार्थना
बसंत पंचमी के सरस्वती पूजा में बदलने की कथा अद्भुत, अनोखी, अविश्वसनीय और रोमांचक है। किंवदंती है कि कालिदास अक्षरशत्रु और विद्यादास थे। पत्नी विद्योत्तमा, विदुषी और अक्षरमहिषी थी। बसंत ऋतु का प्रभाव पड़ा और विद्यादास विषयासक्त होकर पत्नी के पास पहुंचे तो पत्नी ने धिक्कार दिया। तिरस्कृत कालिदास 'कामातक्रोधसंजायते' के सूत्र के अनुसार क्रुद्ध, रुष्ट, अवसादग्रस्त होकर, पुरुषार्थ के नष्ट होने से जीवन को निरर्थक मानकर गंगा में डूबने चले। कुछ विद्वान कहते हैं कि पत्नी ने कहा कि विद्या प्राप्त करके ही मुंह दिखाना तो वे सीधे काली के पास ज्ञानार्जन हेतु चले गए। काली स्वरूप सरस्वती ने उन्हें प्रेरणा, विद्या और वाणी दी और जीवन के रूपांतरण की बुद्धि दी। विद्यादास से कालीदास का पुनर्जन्म हुआ। सारा ध्यान उन्होंने विद्याध्ययन में लगा दिया। कालांतर में उज्जयिनी को एक कालजयी कवि मिला, जिसने भर्तृहरि और विक्रमादित्य की राजसभा को शोभित किया। रूपांतरण का यह दिन विक्रम संवत्सर की माघ शुक्ल पंचमी थी। इसलिए माघ शुक्ल पंचमी बसन्त ऋतु के नाम पर 'बसन्त पंचमी' तो हुई ही, कालिदास पर वाग्देवी सरस्वती की विशेष कृपा होने से यह 'सरस्वती पूजा' का दिन भी हुआ, कालिदास 'द्विज', उनको दूसरा जन्म मिला। कालिदास बाल्मीकि की तरह कवियों के कुलगुरु हैं, इसलिए कवियों के लिए यह विशेष महत्व का दिन है।
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृत्ता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता,
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा।।
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कालिदास से करीब डेढ़ हजार वर्ष बाद आधुनिक हिंदी साहित्य में, छायावाद युग में एक तेज़तर्रार कवि हुए- सूर्यकांत त्रिपाठी। बंगाल की मिष्ठी और संस्कृत की सुमधुर परम्परा के गायक कवि सूर्यकांत अपनी निराले व्यक्तित्व और कृतित्व के कारण 'निराला' के रूप में जाने गए। उनका जन्म यद्यपि माघ की भीष्म एकादशी को हुआ था, किंतु कालिदास की भांति उन्होंने भी बसन्त पंचमी की 'वाग्देवी' सरस्वती को अपना जन्म समर्पित कर दिया। 1930 ईसवी से 'माघ शुक्ल एकादशी' नहीं वरन 'बसन्तपंचमी' को ही उनका जन्मदिन मानकर कवियों ने एक समय तक ख़ूब कवि समागम किया। स्वयं महाप्राण निराला ने अपने समय की कमियों की प्राप्तियों के लिये सरस्वती से यह संस्कृतनिष्ठ प्रार्थना की और वर मांगे वे आज प्रासंगिक हैं। इस मांगपत्र को अब इस दृष्टि से पढ़ें.
प्रिय स्वतंत्र-रव, अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे!
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे!
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
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शब्दार्थ एवं भावार्थ :
१. प्रिय स्वतंत्र-रव : उन्नीसवीं शताब्दी के इन अंत में सुर्जकांत यानी सूर्यकांत का जन्म हुआ जब स्वतंत्रता की लड़ाई की आधी सदी बीत चली थी। कलकत्ता और पंजाब में साहित्यिक युद्ध ज़ोर पकड़ रहा था। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक तीन दशक तक भारतेंदु की मशाल सूर्यकांत आदि ने संभाल ली थी। गुलामी की जंजीर तोड़ने और अपनी स्वातंत्र्य की आवाज़ बुलंद करने का ना केवल आह्वान किया जा रहा था बल्कि सैकड़ों रणबांकुरे आज़ादी की लड़ाई में कूद चुके थे। मनुष्य सहित सभी प्राणियों का मूल स्वर स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है का नारा भारत में गूंज रहा था। अतः जब वीणावादिनी से अनुरोध कर रहा है वर देने का तो कवि ने पहली मांग इसी 'प्रिय स्वतंत्र-रव' स्वतंत्रता की प्रिय आवाज़ की ।
२. अमृत-मंत्र नव : अगर एक बार मनुष्य के अंदर से आवाज़ आयी स्वतंत्रता की तो वह अमृत की भांति नित्य जीवन दायिनी होगी। यही नव अमृत कालिदास ने भी चखा और अमृत काव्य का सृजन करने लगे। यही अमृत विद्योत्तमा की तरह रत्नावली ने तुलसीदास को पिलाया और लोकभाषा क़् महाकाव्य भारत की मध्यकालीन गुलाम जनता को मिला। दोनों अमृत तिरस्कार की तरह कड़वे थे। यहीं से यह नया अमृत-मंत्र मिलता है कि जीवन की कटुता से ही कालजयी संकल्प निकलते है, जो व्यक्ति को रूपांतरित करते हैं।
३. अंध-उर के बंधन-स्तर : समय, परिस्थितियों और विसंगतियो की दीवारें हृदय में अनेक प्रकार के अंधेरे उत्पन्न कर देते हैं। मनुष्य को कुछ सूझता नहीं। कालिदास और तुलसीदास की परंपराओं से ही सूर्यकांत निराला ने सीख था कि ऐसी अवस्था में सकारात्मक–मति केवल एक फेर सकती है, वह है सरस्वती। वे उर के अंधेपन के समस्त स्तरों को काट देने की याचना करते हैं।
४. ज्योतिर्मय निर्झर : अंधेपन का इलाज उजाला ही हो सकता है। ज्ञान, समझदारी, तार्किकता, अपने को पहचानने की क्षमता का व8कस ही वह आलोक है जो अपने सम्राट की अंधभक्ति से मुक्तकर स्वतंत्र व्यक्तित्व विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। इसलिए वाग्देवी वह ज्योतिर्मय निर्झर बहाएं।
५. कलुष-भेद-तम हर : कलुषता की कालिमा ही भेद का अंधेरा फैलाती है। इसलिए आलोक की जननी से कवि कलुष भेद के अंधेरे को मिटाने का अनुरोध करते हैं। और आग्रह करते हैं कि ६. प्रकाश भर।
७. नव गति/लय/ताल-छंद/कंठ/जलद-मन्द्ररव/नभ/विहग-वृंद/नव पर नव स्वर : जब यह प्रकाश भरेगा तब नई गति आएगी, जिंदगी नई लय प्राप्त करेगी, ऊर्जा नए ताल पर उछाल भरेगी, नए छंद, नई पद्धतियां, नई प्रणालियां मिलेंगी, नया विधान जीवन को प्राप्त होगा, कंठ जो पीड़ा से, दमन से, विवशता से, लाचारी से रुद्ध हो गया था वह नई दमदारी के साथ स्वतंत्रता के गीत गायेगा। आशा, विश्वास, संकल्प के नए किंतु मंथर, विवेकवान मेघ मधुर ध्वनि के साथ विचरण करेंगे, वे भी अपना नया आकाश गढ़ेंगे और हम भी नए लक्ष्य रूपी आकाशों की योजनाएं बनाएंगे, हम जो वास्तव में काल के, समय के विस्तृत नभ पर उड़नेवाले पक्षी ही तो हैं, प्राकृतिक पक्षियों की भांति हमें भी नए नए पर (पंखे) और नई चह-चह-आहट, चहकार मिलेगी। एक कवि जो शब्दों के शस्त्रों से अज्ञान के विरुद्ध लड़ता है, वह इससे सुंदर याचना, प्रार्थना कर ही नहीं सकता।
अंततः आज के स्वाधीनता दिवस पर, इन दो महाकवियों सहित वाग्देवी सरस्वती से हम भी यही प्रार्थना करें कि कल्मष, स्वार्थ, लोभ, अवसरवादिता, अज्ञान, मतिभ्रम, आदि के कारण जो आंतरिक अंधापन हमारे भारतवासियों में दिखाई दे रहा है, वह दूर हो। एक नया उजाला इस गणतंत्र में फैले, हमारा प्रजातन्त्र ज़िंदा रहे, सुरक्षित रहे, अक्षुण्ण रहे। आमीन! तथास्तु!!
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@ रा.रामकुमार,
२६ जनवरी २०२३, गणतंत्र दिवस,
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