जाता साल : आता साल
आज है *आख़री दिन* ...
अव्यवस्था, अंशदान चोरी, सामूहिक धन यानी अमानत में हेराफेरी, आरोप-प्रत्यारोप, धौंस, मनमानी, तनातनी, गुटबंदी, माफ़िया को बचाने के लिए छर्रों की लामबंदी, बेमेल वसूली, भेद, मान-अपमान की कलह-नीति की समाप्ति का...
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कल से होगा *नया शुभारंभ* ....
सबका हित, शांति, उखड़ी हुई सड़कों की जगह नई और मज़बूत सड़क, सुव्यवस्थित और पारदर्शी पानी की व्यवस्था, सभी का बराबरी और ईमानदारी से अंशदान, सामूहिक बिजली और सफ़ाई की सुचारू व्यवस्था, फिज़ूलखर्ची का अंत, *जितनी चादर, उतने पैर फैलाने* की परंपरा का ....
☺️☺️
जाते जाते थोड़ा सा मज़ाक़ तो चलता है।
यह जानते हुए भी कि अंधों के आगे रोकर अपनी ही आंखें ख़राब करना है। और यह जानते हुए कि
कुछ भी नया नहीं होने वाला
झूठ मुठ का
*नया साल मुबारक!*
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( *कोहराम नगर* से दुखियादास कबीर )
शब्दार्थ :
झूठ-मूठ : वह मूठ जिसके नीचे तलवार नहीं होती, दिखावा, गीदड़ भभकी।
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