कविता : 3
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सूरज की रोशनी में मौजूद हो तुम
तुम में मौजूद है सूरज की रोशनी
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तुम्हारे पास से गुजरते ही
मन भर जाता है अनदेखी उजास से
ऊर्जा की एक अकथनीय सिहरन से
निकलने लगती है अकूत ऊष्मा।
दिखाई नहीं देता तुम्हारा हाथ
पर कलाइयों में महसूस होता है
मज़बूत और ताक़तवर पकड़ का अहसास
सांसों में छातियों को फुलाने का साहस
उछाल मारने लगता है।
तुम पिता तो नहीं हो
जिसके अभाव में ढूंढता रहा हूँ मैं
पिता जैसा लगनेवाला कोई कद्दावर किरदार
किसी सूरत या शक्ल की तरह नहीं
अपनेपन के सिंकाव की तरह
जो मेरे भाग भागकर थके मन को
दे सकता एक स्थायी राहत
नहीं, उस मरे हुए पिता की
अनाथ यादें भी तुम नहीं हो
उनमें इतनी ऊर्जा और ऊष्मा कहां?
तुम कौन हो जिसकी नज़र पड़ते ही
फूलों में ताज़गी भरी मुस्कानें आ गयी
खिल उठा ज़मीन का ज़र्रा ज़र्रा
नदियों की कलकल जगमगा उठी
लहलहा उठी खेतों की असंख्य उम्मीदें
जाग उठे झंझावातों से लड़ने के
जंगल के सारे मनसूबे
तुम्हारी नज़र पड़ते ही
ख़ून में रवानी आ गयी
मिठास बढ़ गयी,
जवानी आ गयी
तुम्हारी नज़र पड़ते ही
पत्ते पत्ते की सांसें लौट आयी
उदास, हताश और अवसाद-ग्रस्त लम्हों को
मिल गए जी उठने के अपरिभाषित बहाने
रतजगा करती बेचैन रूहों को
मिल गए हों जैसे
चैन की नींद सोने के लिए
चौड़े सीने और कन्धेदार ठिकाने।
तुम कौन हो
ओ अपरिचित अप्रत्याशित इरादे
जिसने लिख दी है उंनींदी आंखों में
हज़ारों हज़ारों रोशनी की इबारतें।
तुम कौन हो?
सूरज की रोशनी में मौजूद हो तुम
तुम में मौजूद है सूरज की रोशनी भी।
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@कुमार, ०२.
१२.२१, ७.३०-१.५०
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