#बस_कुछ_दिन_तक
बस कुछ दिन तक
याद बने फिर
'कोई था' में निपट गए।
मैदानों में जंगल जैसे
परम स्वतंत्र पेड़ होते थे।
बचकाने दिन उनमें चढ़कर
कूद-कूद खाते गोते थे।
कहां गये वो
खुले खेल-घर
रिश्तों जैसे सिमट गए।
हम ही थे जिनकी बल्ली पर
धुले पलों ने धूपें सेंकीं।
लक्ष्य साधकर घुमा गोंफने
टिड्डी-दल पर गुटियाँ फेंकीं।
वो हम ही थे
जिनसे बेखटक
बच्चे-बूढ़े लिपट गए।
जब बीती बातें चलती हैं
'हम थे' याद दिलाना पड़ता।
पहचानों के पड़-पोतों को
खींच-खींच दुलराना पड़ता।
उम्र दौड़कर
जब निकली हम
लदबद्दू से घिसट गए।
@कुमार,
०७.०८.२०२०
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